ओस के कतरे बदन को धो गए आशा ,
आंच
दे कुछ सर्द मौसम हो गए आशा !


देखना धीरे से आना पास मेरे तुम ,
रेत
के थे फर्श फिशलन हो गए आशा !


हो गयी इतनी बड़ी बेटी मेरी फ़िर भी ,
आए ना वो क़र्ज़ लेकर जो गए आशा !


मिल गए थे लोग कुछ मेरे शहर के सब,
आँख के आंसू जिगर को धो गए आशा !


हुकूमत की बेचैनी थी उन्हें शायद "प्रभात"
जो शहर में नफ़रतों को बो गए आशा !

()रवीन्द्र प्रभात()

(कॉपी राइट सुरक्षित )


8 comments:

  1. बहुत बढ़िया रवीन्द्र भाई. बहुत अच्छा लिखा है. बधाई.

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  2. बहुत अच्छा रवींद्र जी, आपकी गजल पढ़कर तो लग रहा है कि रोज-रोज बदलता रहे मौसम और हमें मिलता रहे अवसर आपकी काव्य प्रतिभा से रू-ब-रू होने का।

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  3. आपकी प्रेरक टिप्पणियाँ नि:संदेह मेरे भीतर सात्विक उर्जा का संचार करती है और हमेशा कुछ नया लिखने -कहने को प्रेरित करती है,क्योंकि मैं तो साहित्य का नन्हा प्रभात हूँ,जो सिखते-सिखते
    सीखेगा ,आप सभी का आभार !

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  4. बहुत उम्दा - प्रभात की किरणें प्रतिभा बिखेरती हैं - और आशा

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