आँखें खुलीं तो पाया आँगन में चटकीली धुप फैली है.हडबडाकर खाट से तकरीबन कूद ही पड़ा.लेकिन दुसरे ही क्षण लस्त हो फिर बैठ गया.कहाँ जाना है उसे?,किस चीज़ की जल्दबाजी है भला? आठ के बदले ग्यारह बजे भी बिस्तर छोडे तो क्या फर्क पड़ जायेगा? पूरे तीन वर्षों से बेकार बैठा आदमी. अपने प्रति मन वितृष्णा से भर उठा.डर कर माँ की ओर देखा,शायद कुछ कहें, लेकिन माँ पूर्ववत चूल्हे में फूँक मारती जा रहीं थीं और आंसू तथा पसीने से तरबतर चेहरा पोंछती जा रहीं थीं .यही पहले वाली माँ होती तो उसे उठाने की हरचंद कोशिश कर गयीं होतीं और वह अनसुना कर करवटें बदलता रहता.लेकिन अब माँ भी जानती है कौन सी पढाई करनी है उसे और पढ़कर ही कौन सा तीर मार लिया उसने? शायद इसीलिए छोटे भाइयों को डांटती तो जरूर हैं पर वैसी बेचैनी नहीं रहती उनके शब्दों में. ......!



ये अंश हिंदी की सर्वाधिक सक्रिय चिट्ठाकारा रश्मि रवीजा की कहानी कशमकश के हैं ...इनकी इस कहानी को ब्लोगोत्सव-२०१० में आज श्रीमती सरस्वती प्रसाद, निर्मला कपिला, रवि रतलामी के बाद प्रमुखता के साथ शामिल किया जा रहा है, क्योंकि हम आज लेकर उपस्थित हैं श्रेष्ठ चिट्ठाकारों की श्रेष्ठ कहानियां . रश्मि जी की इस कहानी को पढ़ने के लिए........... यहाँ किलिक करें




उत्सव जारी है, मिलते हैं एक अल्पविराम के बाद

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