मेरे लिए आज़ादी के मायने

हिमालय से आज भी यही स्वर गूंजते हैं - कहो माओं से दे बेटे, कहो बहनों से दे भाई ... अगर सभी पैसे-पैसे की भीड़ में गुम हो जाएँ तो आज़ादी किसकी और कैसे?

आजादी का मतलब हमारे संविधान में है... जो हम चाहते हैं, पर जो है नहीं . उस आजादी के हक़ के लिए
कानून हैं, जिस कानून के तहत हम अपनी आजादी को पा सकते हैं, पर वह कानून लिखित है, व्यवहार में
नहीं . आजादी के मायने ही बेमानी हो चले हैं .
आजादी का सीधा सादा अर्थ है ... हमें सही ढंग से जीने का अधिकार, निर्भय रहने का अधिकार ........पर इन अधिकारों का कोई
मूल्य नहीं . क्या इसी आजादी की कल्पना हमने की थी जहाँ अपनी डफली , अपना राग हो ? यहाँ मांग है अलग -अलग अस्तित्व की , खंडित
राज्यों की .... हम फिर वहीँ हैं जहाँ था दुश्मन बैठा घात लगाए . तब अंग्रेजों के मध्य थे भारतीय ( कुछ स्वेक्षा से, कुछ विवशता में) , आज
आतंक है ! यह आतंक किसका ? हमारी क्षुद्र मानसिकता का, सिर्फ अपनी उन्नति का ?
सोने का भारत , सपनों का भारत - सब शतरंज के प्यादे राजा बनने की होड़ में और ताज पहनानेवाले अनपढ़ , गंवार !
स्थिति ये है -------
साल में दो बार,सुनते हैं -
"वो भारत देश है मेरा...."
फिर कोई डाल नहीं ,सोने की चिड़िया नहीं...
पंख - विहीन हो जाता है भारत....
शतरंज की बिसात पर,चली जाती हैं चालें...
तिथियाँ भी मनाई जाती हैं साजिश की तरह...
क्या था भारत?
क्या है भारत?
क्या होगा भारत?
इस बात का इल्म नहीं !!!
धर्म-निरपेक्षता तो भाषण तक है,
हर कदम बस वाद है...
आदमी , आदमी की पहचान,ख़त्म हो गई है...
गोलियाँ ताकतवर हो गई हैं,
कौन, कहाँ, किस गली ढेर होगा?
कहाँ टायर जलेंगे,आंसू गैस छोड जायेंगे?
ज्ञात नहीं है...
कहाँ आतंक है, कौन है आतंकवादी?
कौन जाने !!!
शान है "डॉन" होना,
छापामारी की जीती-जागती तस्वीर होना,
फिर बजाना साल में दो बार उन्ही के हाथों-
"वो भारत देश है मेरा"
सामान्य जनता आज भी उन सब चीजो के लिए सुबह से लेकर शाम तक संघर्स करती है , जिनसे ज़िन्दगी को कोई मायने दिया जा सके ---
क्या यही थी भगत सिंह की ख्वाहिश ? क्या यही था 'बापू' का सपना ? क्या उन माओं की आह हमें नहीं लगेगी जिनके बेटे
भारत की आजादी के आगे सब भूल गए , पर हम उनकी कुर्बानियों को बेजा कर गए !
आज़ादी का अर्थ है - जाति , धर्म , उंच-नीच की परिधि से बाहर आना . पर इन मायनों को अर्थ कौन देगा? देश की सुरक्षा में जो खड़े हैं,
उनके लिए आज चमकते कपड़ों में सजे-धजे लोग पूछते हैं - ' पैसा क्या मिलता होगा ! एक बेटे को क्यूँ भेज दिया ? ..."
हिमालय से आज भी यही स्वर गूंजते हैं -
कहो माओं से दे बेटे, कहो बहनों से दे भाई ...
अगर सभी पैसे-पैसे की भीड़ में गुम हो जाएँ तो आज़ादी किसकी और कैसे?
तो मेरे ख्याल से आजादी के मायने हर कोई अपने दिल में ढूंढें , गौर करे और फैसला करे . माँ (भारत माँ ) को देखो , क्या उसकी शक्ल
वही रह गई, जिसके तेज के लिए अनाम शहीदों की भरमार लग गई, जलियांवाला कांड दहला गया, पर कदम नहीं रुके !
अब तो बातचीत का मुद्दा 'देश' रहा ही नहीं, आत्मप्रशस्ति(बन्दुक की नोक पर), आत्मविकास , गलत कानून से बाहर निकलना ही मायने
थे , मायने हैं ...........
आजादी के अर्थ पर जो अँधेरा छाया है, वहाँ तो बस यही ख्याल उठते हैं ---
इति यानि बीती........हास यानि कहानी...
बीती कहानी बंद करो!
नहीं जानना -
वंदे मातरम् की लहर के बारे में,
नहीं सुनना -
'साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल....'
नहीं सुनना-
'फूलों की सेज छोड़ के दौड़े जवाहरलाल....'
नहीं जानना-
ईस्ट इंडिया कंपनी कब आई!
कब अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया!
कहना है तो कहो-
आज कौन आतंक बनकर आया है!
और अब कौन गाँधी है?
कौन नेहरू?कौन भगत सिंह ?
वंदे मातरम् की गूंज
किनकी रगों में आज है?
अरे यहाँ तो अपने घर से
कोई किसी को देश की खातिर नहीं भेजता
( गिने-चुनों को छोड़कर )
जो भेजते हैं
उनसे कहते हैं,
'एक बेटा-क्यूँ भेज दिया?'
क्या सोच है!
........
ऐसे में किसकी राह देख रहे हैं देश के लिए?
देश?
जहाँ से विदेश जाने की होड़ है..........
एक सर शर्म से झुका है,
'हम अब तक विदेश नहीं जा पाए,'
दूसरी तरफ़ गर्वीला स्वर,
'विदेश में नौकरी लग गई है'
........
भारत - यानि अपनी माँ को
प्रायः सब भूल गए हैं
तो -
बीती कहानी बंद करो!!!!!!!!
रश्मि प्रभा

(वर्ष-२०१० की श्रेष्ठ कवियित्री )

http://lifeteacheseverything.blogspot.com/

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परिचर्चा अभी जारी है मेरे दोस्त, मिलते हैं कल सुबह ११ बजे पुन: परिकल्पना पर फिर एक अन्य चिट्ठाकार के विचारों के साथ तबतक शुभ विदा ....जय हिंद !

7 comments:

  1. ज्वलंत मुद्दों को उठा रही है पोस्ट ....

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  2. स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर आप एवं आपके परिवार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ!

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  3. ज्वलंत मुद्दों को उठाती खूबसूरत पोस्ट I

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  4. बहुत सुन्दर और सार्थक अभिव्यक्ति

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