(ग़ज़ल )

शर्म की पोशाक को वह छोड़ करके आ गया
वेबसी की एक चादर ओढ़ करके आ गया ।

रक्त पीकर वह मनुज का कह रहा है शान से-
रहगुजर में दो दिलों को जोड़ करके आ गया ।


गा रहे हैं गीत फिर भी साज से हैं बेखबर-
राग दरवारी शहर में शोर करके आ गया।

लोग कहते हैं मुकम्मल आज वह इंसान जो-
आईना से पत्थरों को तोड़ करके आ गया ।

कह रहा प्रभात से खुद को चमन का रहनुमा-
बाग़ से कच्ची कली जो तोड़ करके आ गया ।

() रवीन्द्र प्रभात

8 comments:

  1. गा रहे हैं गीत फिर भी साज से हैं बेखबर-
    राग दरवारी शहर में शोर करके आ गया।

    लोग कहते हैं मुकम्मल आज वह इंसान जो-
    आईना से पत्थरों को तोड़ करके आ गया ।
    प्रभात जी हमेशा की तरह लाजवाब गज़ल। बधाई

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  2. बहुत सुन्दर और समसामयिक ग़ज़ल के लिए पुन: बधाईयाँ !

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  3. सचमुच हमेशा की तरह लाजवाब है यह ग़ज़ल भी ...!

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  4. सचमुच हमेशा की तरह लाजवाब है यह ग़ज़ल भी ...!

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  5. गा रहे हैं गीत फिर भी साज से हैं बेखबर-
    राग दरवारी शहर में शोर करके आ गया।
    bemisal

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