गाँव ,शहर ,देश ,विदेश ... जहाँ भी मैं गया एक लोरी सुनाई दी ....
लोरी सी मीठी माँ मिली , एक स्पर्श- बच्चा खुश . जादू होती है माँ , दुआओं का सागर होती है माँ , ....
.आहट, करवट, ख़ामोशी , उद्विग्नता
माँ पहचान लेती है
सारथी बन जीवन के अर्थ देती है
गर्भनाल की भाषा बड़ी अनोखी होती है ...
अनोखी भाषा के अलग अलग सांचे हैं , पर मिलकर एक ही रंग हैं -
लौटना चाहता हूँ
Mothers Day 2010
माँ
याद आती है
छवि तुम्हारी
द्रुतगति से
काम में तल्लीन
कहीं नीला शांत रंग
कहीं उल्लसित गेरू से पुती
दीवारें कच्ची
माटी के आँगन पर उभरती
तुम्हारी उँगलियों की छाप थी
या कि रहस्यमयी नियति की
तस्वीर सच्ची
तुम नहीं थी
आज की नारी जैसी
जो बदलती है करवटें रात भर
और नहीं चाहती
परम्परा के बोझ तले
साँसें दबी घुटी सी
पर चाहती है गोद में बेटा
सिर्फ बेटा
और बेटे से आस पुरानी सी
मैं सुनता हूँ उसकी सिसकती साँसे
विविध रंगों के बीच
मुरझाए चेहरों की कहानी कहती
दीवार पर लटकी
किसी महंगी तस्वीर सी
और उधर मैं
फोन के एक सिरे पर
झेलता हूँ त्रासदी
तेरी गोद में
छुप जाने को बैचैन
नहीं कमा पाया मनचाहा
ना ही कर पाया हूँ मनचीती
लौटना चाहता हूँ
तेरे आँचल की छाँव में
डरता हूँ
अगले कदम की फिसलन से
प्रतिनायक बना खड़ा है
मेरा व्यक्तित्व
मेरी प्रतिच्छवि बनकर
क्या सचमुच
मैं यही होना चाहता था
My Photoजो आज हूँ
पर सच है
मैं लौटना चाहता हूँ !
मैं लौटना चाहता हूँ !!
लौटना चाहता हूँ !!!
वंदना 
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मां को गुजरे कई साल बीत चुके हैं, पर फ़िर भी लगता है कि वो आज भी आस पास है. जीवन के हर पल में रची बसी और गुंथी उनकी यादें खुश्बू बन महकती रहती है आज भी... उन्हीं स्मृतियों के नाम कुछ पंक्तियां...
मां के जन्मदिन पर...
आंखों से भले हो ओझल
आज मां तू
पर आज भी
लगता है कि
यहीं कहीं
बहुत करीब है तू
तेरी परछाई के
एक कण से भी
जो मिले कही पर
तो संवर जाए
मन का उदास कोना
पर ढूंढे से भी तो
नहीं मिलती है
तुम्हारी कोई परछाई
...
पर दिल में बसी
तेरी यादें
जब तब चली
आती है बाहर
समय के झीने से पर्दे
को चीरकर
और
अंधेरे सूने उदास
एवं खाली खाली से
इस जीवन में
फ़ैला जाती है
अपने प्रेम का
अदभुत उजास
जो
सूनी अंधेरी रातो में भी
बनकर ध्रुव तारा
ताकता है
एकटक अपलक
अपनी स्थिर
प्रदीप्त नेत्रों से
मेरा एक एक कदम
जैसे किया था
जीवन भर
उलझनों से बचाता
और रास्ता दिखाता
...
आज भी
सपना बन
रोज ही
सहलाता है
मेरी बेचैन नींदों को
मां तेरा मृ्दुल कोमल स्पर्श
हर हार के बाद उठना
हर चोट के बाद हंसना
मां क्या क्या नहीं सिखाता है
तेरा निश्छल प्यार...
खुद को भूल
दूसरे के लिए जीना
खुद को बेमोल बेच देना
खामोश दुआ सी
सबके आसपास
बने रहना
हर बात को
आड़ और ढाल
बन झेलना
पर
अपने प्रियों तक
किसी आंच या
तूफ़ान को
टिकने या
ठहरने नहीं देना
अपनी आंचल की ओट में
समूची दुनिया को
सहेज के रखना
बिसराए जाने पर भी
सिर्फ़ आशीष बरसाते रहना
जिंदगी के कटु
कोलाहल में भी
हर वक्त किसी मद्धम
कोमल राग सा बजना
...
तेरी यादों की खुश्बू
बसी रहे यूं ही
जीवन के अंत दिनों तक
हमारे इस घुटन भरे
असहज जीवन में
अब तो
बीतते है
मेरे हर दिन
तेरी परछाई बन
जीने की ख्वाहिश में
My Photoऔर मेरी हर रात
करती है इंतजार
तेरे मृ्दुल स्पर्श का
आज भी...
dorothy
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माँ कभी नहीं मरती
माँ उठती है - मुंह अंधेरे
इस घर की तब -
'सुबह' उठती है
माँ जब कभी थकती है
इस घर की
शाम ढलती है
पीस कर खुद को
हाथ की चक्की में
आटा बटोरती
हँस-हँस कर - माँ
हमने देखा है
जोर जोर से चलाती है मथानी
खुद को मथती है - माँ
और
माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
सवालों को सुलझा लेती है
माखन की तरह
उतार लेती है - घर भर के लिए
माँ - मरने के बाद भी
कभी नहीं मरती है
घर को जिसने बनाया एक मन्दिर
पूजा की थाली का घी
कभी वह
आरती के दिए की बाती बनकर जलती है
घर के आँगन में
हर सुबह
My Photoहरसिंगार के फूलों -सी झरती है
माँ कभी नहीं मरती है।
सुरेश यादव
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मां ... के बारे में
मां ... के बारे में
बतलाऊं मैं तुमको
अपनी कविता में
तो मां नजर आएगी हर शब्‍द में
सबने जाने कितना कुछ
लिखा है माँ पर ...
फिर भी अभी कुछ बाकी है
कुछ अधूरा है
मां ...कहने से आंखों में झलकता है
एक ममतामयी चेहरा
स्‍नेहिल आंखे
और धवल हंसी .....
मां ...एक सुकून है दिल का
एक ऐसा साया
जिसके होने से हम निश्चिंतता की चादर
तान कर सोते हैं
क्‍योंकि जानते हैं - मां जाग रही है
उसे हर पल की खबर होती है
बिना कुछ कहे वह
अन्‍तर्मन पढ़ लेती है
हमारी भूख हमारी प्‍यास का अहसास
हमसे ज्‍यादा मां को होता है
हमारी व्‍याकुलता ..छटपटाहट उसके सीने में
एक हलचल सी मचा देती है
सोते से जाग जाती है वह
जब भी आवाज दो तो वही शब्‍द
तुम्‍हारे पास ही तो हूं ...
मां .....धरती भी है अम्‍बर भी है
नदिया और समन्‍दर भी है
मां कोमल है तो कठोर भी है
मां की आंखों से डरना भी पड़ता है
कभी कभी उन आंखो से छिपना भी पड़ता है
भूल गये मां की मार ?
भला किसने नहीं खाई होगी
बताए जो जरा
वो हंसाती भी है वो रूलाती भी है
थाम के उंगली चलना सिखलाती है
गिरने से पहले बचाती भी है ....
मां घर की नींव बनकर
पूरे परिवार को मन के आंगन में समेटती है ...
बीज बोती है पल-पल खुशियों के
तभी मिलते हैं हमें संस्‍कार ऐसे
मां ....का नाम आता है लब पर तो
मन श्रद्धा के फूलों सा भावुक हो उठता है
अश्रु रूपी जल से उसे सिंचित करता है
मां ....ईश्‍वर की छाया है
ईश्वर का दूसरा नाम
मां का अभिनन्‍दन करता है ....
मां पर जाने क्‍या - क्‍या कह गया ये मन
फिर भी अधूरा है कुछ ....
.मां के बिना .... कुछ भी पूरा नहीं ... ।
सीमा सिंघल
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मां........
बहुत दिनों पहले एक कहानी पढ़ी थी ,जिस में बच्चों ने अपनी माँ का जन्मदिन मनाया था | उस कहानी में माँ पूरे दिन बच्चों की फरमाइशें पूरी करती रह जाती है और रात में बच्चे खुश हो कर सो जाते हैं कि उन्होंने अपनी माँ का जन्मदिन बहुत अच्छे से मनाया और माँ खुश हो गयी |जब ये पढ़ा था तब उन बच्चों पर तरस और कुछ अंशों में आक्रोश भी हुआ था कि माँ तो पूरे दिन और भी ज्यादा व्यस्त रही ,थक भी गयी | रात में सबके सो जाने पर भी काम ही करती रही...........
पर अब जब तकरीबन ८-१० दिनों से मदर्स-डे की धूम सुन रही हूँ और खुद भी माँ बन गयी हूँ तो उस माँ के सुकून को महसूस कर पा रही हूँ ,जो बच्चों के सुख में ही खुश हो लेती है |आज अपनी माँ के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि आज अगर वो सशरीर साथमें होती तो शायद अपनी बातें उनसे कह पाती और उनको कुछ समझ पाती ....अब उनके देहांत के बाद ऐसा शून्य छा गया है जो अपूरणीय है |
बेहद सरल और सीधी थीं हमारी माँ |नाराज़ होना तो उनको आता ही नहीं था |हम सारे भाई-बहन (उन्हें कजन्स नहीं कह सकती क्यों कि माँ ने ऐसा कहने ही नहीं दिया)चाहे जितनी शैतानी या कहूं ऊधम कर लें माँ के चेहरे से उनकी मुस्कान कभी ओझल नहीं हो पाती थी |हमारी बड़ी भाभी कभी गुस्सा दिखाती तो माँ हमेशा कहती कि अगर बच्चे शरारतें नहीं करेंगे तो उनका बचपन कैसा !हमारे ताऊजी और ताईजी का शरीरांत जब हुआ पापा पढ़ रहे थे | ताऊ जी के दोनो बच्चे-दीदी और भैया- हमारे पापा और माँ को चाचाजी और चाचीजी कहते थे | माँ ने हम सब से भी पापा को चाचाजी ही कहलवाया कि भैया और दीदी को पराया न लगे |मेरे जन्म के बाद दीदी ने ही मुझसे पापा को पापा कहलवाना शुरू किया |माँ के ऐतराज़ करने पर वो भी माँ-पापा कहने लगी | जब रिश्तों में स्वार्थ दिखता है तब माँ बेहद याद आती हैं ........
जब बहुओं को जलाने और सताने का सुनती हूँ ,तब माँ याद आती हैं जो अपनी बहुओं की लिए कवच सरीखी थी कोई भी भाभियों को कुछ नहीं कह सकता था |वो हमेशा कहती थीं दूसरे परिवार से आयी हैं इस परिवार की रीति-नीति सीखने में समय लगेगा ही और वो समय उनको देना चाहिए |जब एक सी गलती करने पर मुझको टोकतीं थीं और भाभियों को कुछ नहीं कहती थीं तब मुझे भी माँ गलत लगतीं थीं |मेरी भाभियों के भी आपत्ति करने पर कहतीं थी कि पता नहीं कैसा परिवेश मिले इसलिए इसको सतर्क रखना चाहिए |आज लगता है कि वो पूर्णत:ठीक थीं |पर जब और रिश्तेदार मुझसे काम करवाने को कहते और सतर्क करते कि ऐसा न करने पर बाद में उपहास का कारण बनूंगी ,तब माँ का विश्वास कि समय पर सब सम्हाल लूंगी दृढ़ रहा और मैं भाइयों की बराबरी करते सिर्फ पढ़ती रही |
कभी कोई उनको कुछ कहता तो वो उस टकराव को हँस कर टाल जातीं थीं |हमारे विरोध करने पर वो समझातीं कि कहने वाले की समझ इतनी ही है ,अगर उसे समझ होती तो वो ऐसा न कहता |इतनी सहिष्णुता और समझ वाले संस्कार देने वाली हमारी माँ ने घर परही पढ़ाई की थी |उनके संस्कारों का ही परिणाम है कि हम भाई-बहन अपने जीवन में संतुष्ट हैं |
My Photoआज सब कुछ होने पर सिर्फ ये अफ़सोस है कि अगर ये समझ पहले आ जाती तब शायद माँ को कुछ और समझ और समय दे पाती |हर रिश्ते को सम्हालना सिखाने वाली माँ का महत्व अब उनके न रहने पर ज्यादा समझ आता है |सबसे तो कहतीं हूँ माँ को अनदेखा न करना ,क्योंकि उनके न रहने पर ये अनदेखी अंतिम श्वांस तक टीस देगी ,पर खुद क्या करूँ ये खुद को ही नहीं समझा पाती हूं |इसी अपराध-बोध में कुछ भी लिखने की हिम्मत नहीं हो रही थी ,फिर लगा शायद फिर एक गलती हो जायेगी |जानतीं हूँ माँ तो माँ होती हैं जहाँ से भी वो देख रही होंगी वो मुझे क्षमा कर देंगी ....बस एक ही कामना है जब-जब जन्म लूँ ईश्वर मुझे मेरी यही माँ ही दे जिसने मेरे ऐसे लड़खड़ा कर चलने वाले कदमों को दृढ़ता दी और अपने आंचल की सुरक्षित छाँव तले संजोये रखा !!! -निवेदिता http://nivedita-myspace.blogspot.com/ =============================================================== माँ पर केन्द्रित इस अनुपम प्रस्तुति के बाद आइये चलते हैं ब्लॉगोत्सव की ओर जहां हिंदी ब्लॉगिंग के चहेते सितारे सतीश सक्सेना लेकर आये हैं अपने दो गीत, और भी बहुत कुछ है चलिए चलते हैं मंच की ओर :

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ये रही छब्बीसवें दिन के प्रथम चरण की प्रस्तुति, द्वितीय चरण में कुछ ख़ास है आज .....बने रहिये परिकल्पना पर ,हम उपस्थित होते हैं एक अल्प विराम के बाद ..... 

13 comments:

  1. सभी की माँ पर रचनाये उनके मनोभावो को बहुत ही सुन्दरता से उकेरती है जो सभी के दिल के भाव होते हैं………सुन्दर आयोजन चल रहा है।

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  2. माँ के प्रति लिखी गई हर कविता अपने आप में पूर्ण है
    वंदन जी.....डोरोथी ............सुरेश यादव जी ......सीमा सिंघल
    (सदा जी ).......और निवेदिता ..का लघु लेख अपने आप में प्रशंसनिए है
    माँ के प्रति प्यार ....झलकता है ...आभार
    बहुत खूब .....खूबसूरत लेखनी

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  3. माँ पर कितना भी लिखा हो .. फिर भी कम लगता है ... सबकी बहुत सशक्त रचनाएँ .. आभार

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  4. माँ के रूप अनेक....

    "परम्परा के बोझ तले
    साँसें दबी घुटी सी
    पर चाहती है गोद में बेटा
    सिर्फ बेटा
    और बेटे से आस पुरानी सी..."
    तीखा कटाक्ष...

    सभी रचनाएं भावनाओं से ओतप्रोत...
    सादर आभार एवं बधाई...

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  5. माँ के विषय में जो भी कहा जाये कम है.....

    दिल को छू जाने वाली पोस्ट ....
    धन्यवाद

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  6. बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...आभार

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  7. माँ के प्रति लिखी गई हर कविता अपने आप में पूर्ण है,सादर आभार एवं बधाई..

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  8. बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति है परिकल्पना की ,तारीफ़ जीतनी करूँ कम होगी !

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  9. बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति है,सुन्दर आयोजन चल रहा है!

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  10. 'मां 'पर लिखी इतनी कवितायें और एक से एक उम्दा .सच मुच पढ़ कर लगा गंगा स्नान आप को हार्दिक आभार और बधाई .

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  11. मां घर की नींव बनकर
    पूरे परिवार को मन के आंगन में समेटती है .

    माथे की झुर्रियों में उलझे हुए
    सवालों को सुलझा लेती है
    माखन की तरह
    उतार लेती है - घर भर के लिए

    खुद को भूल
    दूसरे के लिए जीना
    खुद को बेमोल बेच देना
    खामोश दुआ सी
    सबके आसपास
    बने रहना
    हर बात को
    आड़ और ढाल
    बन झेलना

    माँ को समर्पित हर रचना भारत में नारी के प्रति श्रद्धा को व्यक्त कर रही है बच्चे माँ के दर्द तक पहुँच गए हैं माँ तो ममता से आप्लावित हो कर बहने लगी है

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  12. बहुत सुंदर संवेदनशील भाव समेटे हैं!!

    !!यहाँ पर भी आयें!!

    "घृणा पाप से करो पापी से नहीं"

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