लहरें कभी हाहाकार करती हैं , कभी शांत आलोड़ित होती हैं .... पर जब वो शांत होती हैं तो भी एक हाहाकार मौन होता है . उनको समझने के लिए उन लहरों से एक रिश्ता जोड़ना होता है , ... कुछ ऐसा ही रिश्ता मैंने मृदुला जी से जोड़ा और शब्द शब्द में लिपटे ख्यालों की मौन सरसराहट ले आया हूँ ----
मरुभूमि कितना.........

'मरुभूमि
कितना सूना लगता है.......'
अनायास ही
निकल गया था
मुंह से ,
जब 'आबू-धाबी' के
ऊपर से
'सूडान' जाने के लिए,
जहाज़ उड़ा था
और
नीचे 'सहारा डेज़र्ट'
उदास खड़ा था.
न कहीं पानी,
न कहीं हरियाली,
एकदम सन्नाटा
एकदम ख़ाली.
बात हो गयी थी
आई-गई,
बीस-बाईस साल में
मैं भी
भूल गई
पर
आज सुबह,
बाल झाड़ते हुए,
अवाक्
रह गई थी.........
'कितनी समानता है
मेरी आँखों में',
ख़ामोशी
रूककर
कह गई थी .
========================
मेरे प्रवासी मित्र......

मेरे प्रवासी मित्र ,
तुम लौट क्यों नहीं आते ?
तुमने जो बीज बोए थे .....
आम -कटहल के ,
फल दे रहे हैं सालों से .
चढ़ाई थी जो बेलें
मुंडेरों पर ,
कबकी फैल चुकी हैं ,
पूरी छत पर.
शेष होने को है ....
तुम्हारे भरे हुए ,
चिरागों का तेल , रंग
दीवारों पर ,
तस्वीरों की,
धुंधलाने सी लगी है.
तुम्हारे आने के
बदलते हुए,
दिन ,महीने और साल ,
मेरी उंगलिओं की पोरों पर
फिसलते हुए ,
तंग आ चुके हैं.
कोने -कोने में सहेजा हुआ
विश्वास ,
दम तोड़ने लगा है
कमज़ोर पड़ने लगी है,
पतंग की डोर पर
तुम्हारा चढाया माँझा.
तुम्हारी चिठ्ठियों के
तारीखों की
बढती हुई चुप्पी ,
कैलेंडर के हर पन्ने पर,
हो रही है
छिन्न-भिन्न .
तुम्हारे आस्तित्व पर चढ़ा
स्वांत: सुखाय,
गूंजने लगा है
हज़ारों मील दूर से ........
फिर इस साल .
तुम्हारे समृध्दी की
तहों में ,
खोने लगा है ,
पिता का चेहरा
और
तुम्हारा यथार्थ
डूबने लगा है ,
तुम्हारी माँ के
गीले स्वप्नों में .......
मेरे प्रवासी मित्र ,
तुम लौट क्यों नहीं आते ?
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तब मैं व्यस्त रहता था..........

तब मैं व्यस्त रहता था..........
यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ
और फिर वहाँ से वहाँ,
कुछ सुनता था,
कुछ नहीं सुनता था,
कुछ कहता था,
कुछ नहीं कहता था
पर तुम जो कहती थी,
कुछ प्यार-व्यार जैसा,
वो फिर से कहो न ।
मैं जगा-जगा सोता था,
मेरी पलकों पर
तुम, करवटें बदलती थी,
मैं जहाँ कहीं होता था,
तुम्हारी सांस,
मेरी
सांसों में, चलती थी ।
तुम आसमान में
सपनों के, बीज बोती थी,
अलकों पर
तारों की जमातें ढ़ूंढ़ती थी,
घूमता था मैं,
तुम्हारी कल्पनाओं के, कोलाहल में,
स्पर्श तुम्हारी हथेलियों का,
मेरे मन में कहीं,
रहता था ।
तुम शब्दों के जाल
बुन-बुनकर, बिछाती थी,
मैं जाने-अनजाने,
निकल जाता था,
तुम्हारे कोमल, मध्यम और
पंचम स्वरों का
उतार-चढ़ाव,
मैं कभी समझता था,
कभी नहीं समझता था,
तब मैं व्यस्त रहता था,
यहाँ से वहाँ, वहाँ से वहाँ
और फिर वहाँ से वहाँ,
कुछ सुनता था,
कुछ नहीं सुनता था,
कुछ कहता था,
कुछ नहीं कहता था,
पर तुम जो कहती थी,
कुछ प्यार-व्यार जैसा,
वो फिर से कहो न ।

मृदुला प्रधान
http://blogmridulaspoem.blogspot.com/
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शब्द शब्द में लिपटे ख्यालों की मौन सरसराहट के साथ आइये ब्लॉगोत्सव को संपन्न करते हैं, किन्तु जारी रहेगा परिकल्पना ब्लॉगोत्सव पर रचनाओं का प्रकाशन एक न्यू मीडिया  पोर्टल  की तरह ......आगे भी रचनाओं का प्रकाशन तो होगा पर उसकी गणना ब्लॉगोत्सव सम्मान के अंतर्गत नहीं की जायेगी, तो लीजिये प्रस्तुत है 
 ब्लॉगोत्सव की आखिरी कड़ी :
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इसी के साथ ब्लॉगोत्सव (द्वितीय) को संपन्न किया जा रहा है, अगले कुछ दिनों में ब्लॉगोत्सव से संवंधित घोषणाएँ होंगी परिकल्पना पर, मुझे इजाजत दीजिये और बने रहिये परिकल्पना के साथ.......

10 comments:

  1. वाह-वाह क्या बात है, बहुत बढ़िया...जिस परिकल्पना को लेकर सफ़र की शुरुआत करते हैं रवीन्द्र जी उसे मुकाम तक पहुंचाकर ही दम लेते हैं, उनके जज्बे को पूरा ब्लौगजगत सलाम करता है मगर रश्मि जी आपने भी बहुत मेहनत की है इस उत्सव को एक नया आयाम देने हेतु , आप दोनों का रचनात्मक सफ़र यूँ ही बना रहे, यही मेरी शुभकामनाएं है !

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  2. बहुत खूबसूरत रचनाएँ हैं ... सुन्दर प्रस्तुति

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  3. बहुत खूबसूरत ! आपको बहुत बहुत साधुवाद इतनी सुन्दर प्रस्तुति के लिये !

    जवाब देंहटाएं
  4. बढ़िया कवितायेँ.....साझा करने के लिए धन्यवाद...:)

    जवाब देंहटाएं
  5. bhn ji in rachnaaon ki prshnsaa ke liyen mere paas shbd hi nahin hai or tlaashne pr mil bhi nahi rahe hai fir bhi badhaai ..akhtar khan akela kota rajsthan

    जवाब देंहटाएं
  6. तुम्हारे समृध्दी की
    तहों में ,
    खोने लगा है ,
    पिता का चेहरा
    और
    तुम्हारा यथार्थ
    डूबने लगा है ,
    तुम्हारी माँ के
    गीले स्वप्नों में .......

    व्यस्त रहता था .....
    लाजवाब रचनाये

    जवाब देंहटाएं
  7. सशक्त बिंबों से सधी हुई सुंदर कविता

    जवाब देंहटाएं
  8. तुम्हारे समृध्दी की
    तहों में ,
    खोने लगा है ,
    पिता का चेहरा
    और
    तुम्हारा यथार्थ
    डूबने लगा है ,
    तुम्हारी माँ के
    गीले स्वप्नों में ..।

    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ।

    जवाब देंहटाएं

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