क्या संयोग है देखते-देखते बीत गए ५१ दिन, उत्सव हुए २९ दिन, ५०१ रचनाओं के साथ ब्लॉग जगत के साढ़े चार सौ से ज्यादा रचनाकारों ने लिया हिस्सा, दस हजार से ज्यादा टिप्पणियाँ प्राप्त हुई और ब्लॉग जगत से रूबरू हुए कई वरिष्ठ साहित्यकार साथ में खूब मिला परिकल्पना से जुड़े पाठकों और शुभचिंतकों का प्यार और मनुहार ....


दबे पाँव भावनाओं के कदम उठते हैं , और भावनाओं की धरती , भावनाओं की दीवारें सिहर उठती हैं .... खुल जाती हैं खिड़कियाँ और हवा का एक महीन स्पर्श छूके कहता है - सुनो ना मुझे ...
कभी आँखें नम होती हैं , कभी होठ थरथराते हैं , कभी शून्य में ज़िन्दगी मिल जाती है, तो कभी मोक्ष !
आज कदम हैं गुंजन जी के , जो देती हैं दस्तकें ---

भीगी-सी इक तस्वीर.......

पहली बार जब तुम्हारी तस्वीर खिंची थी.........
मैंने अपनी डायरी के पन्ने में
तब पन्नों के साथ-साथ
रूह में भी उतर आई थी वो
पता नहीं क्यूँ ....?

रंग तो कभी भर ही नहीं पाई उसमें
क्या कच्चे...... क्या गीले........

बस देखती ही रही थी तुम्हें
इन रंग उड़ी उदास काली आँखों से
उस फीके से चाँद की रौशनी में
हाँ तुम्हारे माथे पर गिरते बालों को ज़रूर संवारा था
मैंने अपनी पेंसिल की नोक से
पर उसी पल चूम भी लिया था तुम्हारी पेशानी को
कि कहीं चुभ न गयी हो......वो कमबख्त नोक

भीगे होठों का गीलापन उभर आया था
तुम्हारे उस चार ऊँगल चौड़े माथे पर
जो आज तक उभरा हुआ है मेरी diary के पन्नों में भी

जो इत्तेफाकन कहीं मिल जाओ
तो दिखाउंगी तुम्हें
पर नहीं....अब तक तो वो भीगे-से पन्ने सील भी गए होंगे
बहुत वक़्त भी तो बीत गया न........

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मौजें.....
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दिल की मौजें
क्या किसी समंदर में उठती
मौजों से कम होती हैं

ये तो दर्द का वो दरिया होता है
जिसमें न डूबते बनता है,
न उबरते

सलाम ....सलाम ....सलाम .....
दिल की इन खुबसूरत,
बेहतरीन, बेहिसाब मौजों को
'गुंजन' का सलाम .....
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अब कहते हो ...... शायद
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शायद ....शायद......शायद
शायद तो होता है बहुत कुछ

सब अपने मन से ही
सोच लिया तुमने
कभी तो
जानने की कोशिश करते तुम
कि मेरी दुनिया
तुम से ही शुरू होती थी
और तुम ही पर ख़त्म भी
............................
कभी देखा तो होता
कभी जाना तो होता
मैं - मेरा वज़ूद
सब तुमसे ही था
..............................
मैं वो दुनिया देखना चाहती थी
जो तुम्हारी आँखों से नूर बनके बरसती थी
जो तुम्हारे आंगन में लगे तुलसी के चौरे पर
साँझ-सवेरे दिया बन जलती थी
जो तुम्हारे आस-पास बिखरे पानी में
कतरा-कतरा बन ठहरती थी
जो तुम्हारे होठों से लगी cigratte से
धुआं-धुआं बन उड़ जाती थी


जो तुमसे होकर मुझ तक पहुंचती थी

पर तुमने कभी वो सब दिखाया ही नहीं
अपना वो मानिंद हक़ जताया ही नहीं
और अब कहते हो कि शायद.......

गुंजन गोयल

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गुंजन गोयल की रचनाओं के बाद चलिए चलते हैं उत्सव के उनतीसवें दिन के प्रथम चरण में प्रकाशित रचनाओं
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कहीं जाइयेगा मत, क्योंकि आज का दिन विशेष है,क्यों ?
यह हम बताएँगे एक अल्प विराम के बाद......

9 comments:

  1. दिल की मौजें
    क्या किसी समंदर में उठती
    मौजों से कम होती हैं ..

    बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति ...आभार के साथ बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  2. all the three poems & other links are good ......thanx for sharing...
    :)

    http://aarambhan.blogspot.com/2011/08/blog-post_12.html

    जवाब देंहटाएं
  3. गुंजन जी की रचनाये दिल को छू गयीं सभी लाजवाब है ।

    जवाब देंहटाएं
  4. लाज़वाब हैं गुंजन जी की रचनाएं...
    सादर....

    जवाब देंहटाएं
  5. अच्छी अभिव्यक्ति ..सभी रचनाएँ अच्छी लगीं

    जवाब देंहटाएं
  6. परिकल्पना की जय हो ...ऐसा उत्सव न तो पहले कभी देखा और न सुना, बधाईयाँ !

    जवाब देंहटाएं
  7. अच्छा उत्सव....अच्छी अभिव्यक्ति ..बहुत-बहुत आभार एवं शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं

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