भावनाओं का सैलाब मेरे सर के ऊपर से बह रहा .... किसी गोताखोर की तरह मैं शांत नीरव में अपना अस्तित्व बिखेरती भावनाओं के संग तैर रही हूँ .... अमिता नीरव के संग मिलिए ...

साफ़-शफ्फ़ाफ़
कोरे-करारे सफ़ों की
नोटबुक-सी है उम्र

हर पन्ने पर
जिंदगी करती चलती है
हिसाब
सुख-दुख, झूठ-सच
सही-गलत, मान-अपमान
नैतिक-अनैतिक, सफलता-असफलता
और ना जाने किस-किसी चीज का

लिखती जाती है
सफ़ों-पर-सफ़े
करती जाती है खत्म
उम्र को जैसे

और भरी हुई नोटबुक
अख़्तियार कर लेती है
एक दिन
शक्ल रद्दी की...

उस सुबह, जबकि थोड़ी फुर्सत थी और मन खुला हुआ, यूँ ही पूछ लिया – क्या तुम्हारे बचपन में संघर्ष थे। 
संघर्ष... नहीं... किस तरह के...? 
मतलब स्कूल पहुँचने के लिए लंबा चलना पड़ा हो या फिर रोडवेज की बस से स्कूल जाना पड़ा हो या लालटेन की रोशनी में पढ़ना पड़ा हो! – मैंने स्पष्ट किया। 
हाँ, जब बच्चे थे, तब रोडवेज की बसों से स्कूल जाया करते थे, बाद में जब बड़े हुए तो साइकल से जाने लगे। लेकिन इसमें संघर्ष कहाँ से आया? ये तो मजेदार था। 
तुम्हारा स्कूल कितना दूर था? यही कोई सात-आठ किमी... तो इतनी दूर साइकल चला कर जाते थे। - आखिर मैंने संघर्ष का सूत्र ढूँढ ही लिया। 
ऊँ...ह तो क्या? दोस्तों के साथ साइकल चलाते हुए मजे से स्कूल पहुँचते थे और लौटते हुए मस्ती करते, रास्ते में पड़ती नदी में नहाते, बेर, इमली, शहतूत, अमरूद तोड़ते खाते घर लौटते थे। वो तो पूरी मस्ती थी। 
तो फिर बचपन के संघर्ष कैसे हुआ करते हैं? – ये सवाल पूछ तो नहीं पाई, लेकिन बस अटक गया। 

ननिहाल में जबकि सारे बच्चे गर्मियों में इकट्ठा हुआ करते थे, पानी की बड़ी किल्लत हुआ करती थी। १०-१२ फुट गहरा गड्ढा खोदकर पाइप लाइन खोली जाती, एक व्यक्ति वहाँ से पानी भरता और उपर खड़े व्यक्ति को देता, वो टंकी के आधे रास्ते तक पहुँचाता वहाँ से दूसरा उसे थाम लेता, ओलंपिक की मशाल की तरह, फिर वो उस व्यक्ति के हाथ में थमाता जो जरा हाईटेड टंकी के पास एक स्टूल पर पानी डालने के लिए खड़ा हुआ करता था। हर सुबह जल्दी उठकर पानी भरने के इस यज्ञ में हरेक बच्चा अपनी समिधा देने के लिए तत्पर... इसके उलट माँ के घर पर पाइप यहाँ से वहाँ किया और पानी भर लिया जाता था, जब कुछ किया ही नहीं जाए तो फिर मजा किस चीज में आए...! 

पापा बताते रहे हैं, हमेशा से अपने स्कूल के दिनों के बारे में। लाइट नहीं हुआ करती थी, उन दिनों तो या तो कभी रात में स्ट्रीट लाइट के नीचे बैठकर पढ़ते थे या फिर मोमबत्ती या लालटेन की रोशनी में। स्कूल की फीस वैसे तो ज्यादा नहीं थी, लेकिन वो जमा करना भी भारी हुआ करता था सो फीस माफ कराने के लिए चक्कर लगाते थे। कहीं होजयरी की फेक्टरी में जाकर बुनाई कर पैसा कमाते थे। 

उन दिनों भी कबड्डी , खो-खो, टेबल-टेनिस खेलते थे, तैराकी करते थे और दोस्तों के साथ सारे मजे करते थे। उनके बचपन के किस्सों को याद करते हुए लगता है कि ये कैसे मान लिया था - कि असुविधा में इंसान खुश नहीं रह सकता है? वे जब बताते थे कि किस तरह वे आधी-आधी रात तक दोस्तों के साथ आवारागर्दी किया करते थे, भाँग खाने के उनके क्या अनुभव थे। कॉलेज के एन्यूएल फंक्शन से लेकर गर्मियों की रातें और दिन में सारा-सारा दिन नदी में तैरना...। बताते हुए कैसे उनकी आँखें चमकती हैं, लगता है जैसे वो कहते हुए अपना बचपन रिकलेक्ट कर रहे हैं। और हम कैसी हसरत से उनके बचपन को विजुवलाइज करते रहते हैं। 

.... और हमारा बचपन.... पानी-बिजली की इफरात, कपड़ों की कोई कमी नहीं। फीस की चिंता क्या होती है, पता नहीं। पढ़ने के लिए किताबें तो ठीक, ट्यूशन टीचर तक की व्यवस्था थी (चाहे लक्ष्य किसी की मदद करना रहा हो)। स्कूल सारे पाँच सौ कदमों से लेकर आठ सौ कदम के फासले पर हुआ करते थे। च्च... कोई संघर्ष, कोई अभाव, कोई असुविधा नहीं। कॉलेज तक यही स्थिति बनी रही। हाँ यूनिवर्सिटी जरूर घर से ९-१० किमी दूर थी। शुरुआत में टेम्पो से ही आया-जाया करते थे... याद आता है लौटते हुए अक्सर दोस्तों के साथ ठिलवई करते हुए आधे से ज्यादा रास्ता पैदल ही तय किया जाता था, जब तक कि ज्यादातर दोस्तों के घर आ जाया करते थे, तो क्या वो संघर्ष था!

बाद के सालों में जब कभी बारिश की रातों में बिजली गुल हुआ करती थी, तब जरूरत न होने पर भी मोमबत्ती या फिर लालटेन की रोशनी में पढ़ा करती थी, आज सोचती हूँ क्यों? शायद ये सोचकर कि हम भी अपने बचपन में संघर्ष के कुछ दिन `इंसर्ट` करके देखें। सच में बड़ा अच्छा लगता था, लगता था कि पापा के स्ट्रीट लाइट की रोशनी में पढ़ने के ‘संघर्ष’ में कुछ हिस्सा हमने भी बँटा लिया...। हालाँकि ऐसा कुल जमा ४-६ बार ही हुआ होगा। 


अरे हाँ याद आया। एक बार सिंहस्थ के दौरान शहर में पानी की किल्लत हुई… घर में लगे नगरनिगम के नलों से पानी आना बंद हो गया। मोहल्लों के बोरिंगों से कनेक्शन लेकर पानी की सप्लाई की जाती, उसका भी समय तय और परिवार का हरेक सदस्य अपनी-अपनी क्षमता से बर्तन लेकर लाइन में हाजिर... हँसी-ठिठौली करते, कभी-कभी झगड़ते हुए भी पानी लेकर आना, लगता कि कुछ महत्त किया जा रहा है, किया गया। तो फिर बात वही.... क्या असुविधा संघर्ष है! और क्या सुविधा में ही सुख है...!

यूँ वो एक शांत-सी सुबह थी, चाहे इसकी रात उतनी शांत नहीं थी। गहरी नींद के बीच सोच की कोई सुई चुभी थी या फिर नींद दो-फाड़ हुई और घट्टी चलना शुरू हो गई थी, कुछ पता नहीं था। बस यूँ ही कोई अशांति थी, जो नींद को लगातार ठेल रही थी। फिर भी... रात हमेशा ही नींद की सहेली हुआ करती है, इसलिए ना जाने कैसे उसने चुपके से दबे पाँव नींद को भीतर दाखिल करवा दिया नींद आ गई थी।

गहरी उथल-पुथल, अस्तव्यस्तता औऱ अशांति के बीच शांति की चाह क्यों नहीं होगी...? ये कोई अनयूजवल ख़्वाहिश तो नहीं है... अब तक तो यही जाना था कि कुछ भी पाना लड़ कर ही संभव है, संघर्ष करने के बाद ही उपलब्धि हुआ करती है। शांति पाने के लिए संघर्ष किया, हर चीज को पाने के लिए जिस तरह करते रहे... उस दौर में सारी छटपटाहट शांति के लिए ही तो होगी। एकमात्र लक्ष्य शांति, किसी भी तरह, किसी भी कीमत पर, कैसे भी... शांति... तो क्या शांति के लिए भी संघर्ष करना होता है...! सालों से शांति के लिए संघर्ष चल रहा है, चलता रहेगा... आंतरिक और बाहरी दोनों ही दुनियाओं में ... इसके परिणाम में होती है... गहरी और गहरी होती अशांति, फिर भी क्या शांति को पा सके...? नहीं... संघर्ष चलता रहा, लेकिन शांति को हाथ न आना था, नहीं आई...। अब सोचो तो कितना बेतुका है... अशांति में शांति के लिए जद्दोजहद... शांति के लिए संघर्ष... संघर्ष से पायी जाने वाली शांति की ख़्वाहिश... कितना बेतुका, कितना अतार्किक, कितना सतही... क्या वाकई संघर्ष से शांति तक पहुँचा जा सकता है...! कितनी बेतुकी बात है... शांति के लिए संघर्ष.... संघर्ष से पायी गई शांति की ख्वाहिश...! करते रहे हैं, अब तक… उतनी बेतुकी कभी लगी ही नहीं। ये अलग बात है कि संघर्ष करते हुए भी कभी शांति नहीं पा सके हैं। ऐसी मनस्थिति में, बुद्धि को नहीं आत्मा को थपकियों की जरूरत थी, इसलिए... उद्वेलन नहीं, बहने की जरूरत है....। 

वो ऊब भरे दिन का अंतिम सिरा ही रहा होगा, जब टीवी पर कुछ भी ऐसा नहीं आ रहा था जो अच्छा लगे, जिसमें रूचि जागे... अंतिम विकल्प के तौर पर डिस्कवरी लगा दिया था। कोई कार्यक्रम चल रहा था, शुरू हो चुका था। बड़ा एक्साइटिंग लग रहा था। ब्रेक में पता चला कार्यक्रम का नाम था आय शुड नॉट बी अलाइव...। उस दिन डायना अपने पति टॉम के साथ एडवेंचर टूर पर गई थीं। रेगिस्तान के बीचोंबीच पहले गाड़ी खराब हो जाती है, फिर गाड़ी से पानी औऱ खाना निकालने के दौरान गाड़ी में आग लग जाती है। फिर शुरू होती है रास्ता भटकने और बाहर निकलने की कोशिश... उसमें क्या-क्या मुश्किलें आईं औऱ उससे कैसे निबटा गया... वो सब। कार्यक्रम की सबसे अच्छी बात ये है कि ये उन्हीं की जुबानी होता है, जो उन परिस्थितियों से बाहर आ चुके होते हैं... एक बड़ी राहत... ।

केन, जॉर्डन, जिम, रॉजर, शैली, डैनियल, सारा, मिशेल.... हरेक.... जो कि एडवेंचर स्पोर्ट्स के शौकीन हैं उन्हें सबसे पहली हिदायत ये मिलती हैं कि यदि कहीं भटक गए तो जहाँ हैं, वहीं रूक जाएँ...। 

आध्यात्मिक गुरु दीपक चोपड़ा भी यही कहते हैं कि जिस चीज की ख्वाहिश हो, उसे छोड़ दो... उसके पीछे मत पड़ो। कुल मिलाकर बात ये है कि भटकाव, अशांति, दुख में ठहर जाना... कुछ न कर पाने की स्थिति में डूब जाना... सबसे सहज उपाय है। इसी तरह की मनस्थिति में यूँ ही कहीं से ओशो का कहा हाथ लग गया था। मौजूं था, क्योंकि उन्होंने शांति की ही बात की थी... “यदि शांति चाहिए तो उसके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़ा जाए... उससे तो अशांति ही उपजेगी ना...।“ लगा बात तो बिल्कुल सही है... शांति पाने के लिए जद्दोजहद... क्या ऐसा करके पाई जा सकती है, शांति...? उन्होंने कहा है कि यदि मैं अशांति के लिए तैयार हूँ तो फिर मुझे कौन अशांत कर सकता है? दुख के लिए तैयार हूँ तो फिर कौन दुखी कर सकता है? जब तक हम सुखी होना चाहेंगे तो दुख ही भाग्य होगा।

मतलब जो भी है, उसमें डूब जाएँ..., छोड़ दें खुद को... बिना प्रतिरोध-विरोध और प्रयासों के... साधने की जरूरत है खुद को, लेकिन ये अनुभव सिद्ध है कि ये दलदल है, जितने हाथ-पैर मारे जाएँगें, उतने ही धँसते चले जाएँगे, तो प्रतिकूलताओं में खुद को छोड़ देना, प्रतिकूलताओं को स्वीकार कर लेना, उसके भागीदार हो जाना अपेक्षाकृत अच्छा विकल्प है, संघर्ष करने की तुलना में। 

हो सकता है दुनियादारी के नियम अलग हों, शायद होते ही हैं... भौतिक दुनिया में तो संघर्ष करके ही उपलब्धि मिलती है, जितना कड़ा संघर्ष, जितना ज्यादा परिश्रम उतना ही अच्छा फल..., लेकिन आंतरिक दुनिया के नियम अलग है, यहाँ तो धँसना पड़ता है, डूबना पड़ता है, स्वीकारना पड़ता है ग्राह्य-त्याज्य... सबको, तभी वो मिल पाएगा जो इच्छित है। मुश्किल है, लेकिन स्थापित है... क्या करें!


फूलते काँस देखकर धक से रह गए... अभी तक बारिश का फेयरवेल तो हुआ नहीं, तो फिर प्रकृति ऐसे कैसे शरद का संकेत दे सकती है? लेकिन भूल गए कि प्रकृति को किसी नियम, अनुशासन, तर्क और अनुभवों में बाँधा नहीं जा सकता है, या तो ऐसा है कि उसका अपना अनुशासन है, जिस तक हमारी पहुँच नहीं है या फिर यूँ कहा जा सकता है कि वो हर नियम और अनुशासन से मुक्त है, स्वतंत्र औऱ स्वछंद है... यही सोचते हुए दफ्तर पहुँचे, पार्किंग से बिल्डिंग तक पहुँचते हुए ही महसूस हो गया कि चाहे भादौ चल रहा है, लेकिन क्वांर की आँच पहुँचने लगी है, हिरण तक को काला कर देने वाली धूप का सिलसिला शुरू होने वाला है और ये महज उसकी आहट है। 

पहुँचते ही रिसेप्शन से सूचना मिली कि बुक स्टॉल से आपके लिए फोन था, आपने जो मँगवाया है, वो आ गया है। 

ठीक है...

राजेश कई बार कह चुके हैं कि तुम्हें जो भी मैग्जिन पढ़नी है, वो तुम सब्सक्राइब क्यों नहीं कर लेती, बेकार में ऑफ रूट जाकर खरीदती हो... समय बर्बाद होता है। लेकिन पता नहीं क्या ऐसा है जो मुझे उस पर अमल करने से रोकता है। लौटते हुए बुक स्टॉल पर कई तरह की पत्रिकाएँ खरीदी... फिर नजर चली गई ओशो टाइम्स पर... ये भी दे दें। हर बार तो नहीं खरीदती हूँ, लेकिन कुछ चार-पाँच महीनों के बाद फिर इसे पढ़ने का मन हुआ। 

इन पिछले महीनों में अखबारों के अतिरिक्त तथ्य, तर्क, न्यूज और व्यूव्ज, फिक्शन और रिसर्च, कहानी, कविता, ब्लॉग, अनूदित और ओरिजनल हर विधा को पढ़ने का क्रम चल रहा है, फिर भी लगता है कि कुछ ऐसा है जो छूटा हुआ है। लगातार विचार, तथ्य, तर्क और सूचनाएँ जमा करते-करते ऊब होने लगी थी, कुछ टेस्ट चेंज होना चाहिए... शायद यही वजह हो कि एक बार फिर ओशो टाइम्स... ऐसा हर बार थोड़े अनियत अंतराल से होता आ रहा है। आज जब इसके कारण ढूँढने बैठी तो स्मृतियों के साथ ही ‘भूत’ हुए एहसासों को भी खंगाला और पाया कि यायावरी अच्छी तो लगती है, लेकिन घर आखिरकार घर होता है। देश-विदेश घुमो, पहाड़, समुद्र, जंगल, खंडहर, इमारत, सड़कें, मॉल देखो लेकिन आखिरकार घर लौटने का जो अहसास है, वो इन सबसे अलग है, बहुत उत्साहित करने वाला, ऊष्मा और अपनेपन से भरा...। 

दुनिया भर की खूबसूरती एक तरफ और अपना घर एक तरफ...। यूँ ही तो नहीं कहा गया है कि अपना घर कैसा भी हो स्वर्ग होता है... सुरक्षित... ऊष्मा से भरपूर, सुविधाजनक और अपनेपन से लबरेज़... मतलब...! मतलब कि अध्यात्म को पढ़ना ठीक वैसा ही है, जैसे खूब सारी यायावरी के बाद अपने घर लौटना... अपने पहचाने परिवेश, अपनी दुनिया, अपने व्यक्तिगत सुख, शांति, सुविधा, सुरक्षा, गर्माहट और अपनेपन के दायरे में आ जाना... जानने के लिए घुमना जरूरी है तो मनन के लिए घर लौटना भी तो जरूरी है। अपने अंदर के महीन तंतुओं, रेशों... को देखना, समझना, सहलाना... पहचानना भी तो जरूरी है। वो सब जो प्रकृतितः इंसानों को हासिल है, लेकिन जिसे दुनिया की दौड़-भाग ने छीन लिया है, उस तक पहुँचना सुकून देता है, ठीक वैसे ही, जैसे लंबे सफ़र से घर लौटकर मिलता है... नहीं!

अब चलिये आपको मिलवाती हूँ परिकल्पना उत्सव के दसवें दिन के मुख्य अतिथि डॉ अनीता कपूर से , जो अमेरिका से कुछ यादें सँजोकर लौटी हैं अभी-अभी .....उनसे बात करने जा रही हैं डॉ प्रीत अरोड़ा ....यहाँ किलिक करें 

कहीं जाईएगा मत, एक मध्यांतर के बाद मैं पुन: उपस्थित होती हूँ परिकल्पना पर । 

8 comments:

  1. जीवन के अनुभवों और अध्यात्म से जुडी एक उम्दा पोस्ट

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  2. अमिता जी की लेखनी कमाल की है , चाहे असुविधा में सुख हो या ओशो और अध्यात्म सभी विषयों को बखूबी निभाया है |

    सादर

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  3. लिखती जाती है
    सफ़ों-पर-सफ़े
    करती जाती है खत्म
    उम्र को जैसे

    और भरी हुई नोटबुक
    अख़्तियार कर लेती है
    एक दिन
    शक्ल रद्दी की...
    आपका चयन एवं अमिता जी की लेखनी दोनो ही कमाल ....
    आभार इस उत्‍कृष्‍ट पोस्‍ट का

    सादर

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  4. आजकल तो एक से एक उम्‍दा चीज़ एक ही जगह पढ़ने को मि‍ल रही हैं, धन्‍यवाद.

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  5. सभी का शुक्रिया... :-) मुझे लगा था ये आत्मालाप है... किसी के लिए क्या उपयोगी होगा... ? सबने इसे सराहा, इसके लिए तहेदिल से धन्यवाद... :-)

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  6. अतमालाप भी बेहतरीन अभिव्यक्ति होता है .... बहुत सुंदर ... संघर्ष पढ़ कर आनंद आया

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