चुप का कोई कारण हो ज़रूरी तो नहीं 
और यदि है तो तुम कारण समझते हो !
चुप का दिख जाना भी आसान नहीं होता 
और उसे समझना तो बिल्कुल ही नहीं 
पर यदि दिखे तो कारण भी आस-पास ही है 
अन्यथा चांदनी को भी मौन ग्रहण ही करते हैं हम !
शोर तो आडम्बर है 
मौन हवा की तरह है 
दिखती नहीं छू जाती है 
और व्यक्ति के स्वभाव अनुसार कुछ कह जाती है ..................................... आज ख़ामोशी की नदी में ख़ामोशी के पतवार के संग चलो उस किनारे तक चलें =

तुम  ही  हो माता ,पिता तुम  ही हो !
तुम ही हो बन्धु ,सखा तुम ही हो !
प्रार्थना के बीच अधमुंदी आँखों से सुनीता ने अपनी पीछे  की लाईन में देखा , कुसुम अब तक नहीं आयी थी . कद के आधार पर बनाई जाने  वाली पंक्तियों में सबसे पीछे लम्बी -सी कुसुम अलग ही दिखती थी . लम्बी कुसुम और छोटी सुनीता दोनों की दांत कटी  दोस्ती पूरे विद्यालय में  लम्बू- छोटू के नाम से जानी जाती थी . विद्यालय में प्रवेश करने के बाद से दोनों हर समय साथ दिखती .टीचर जी द्वारा दिए गए कक्षा कार्य से  लेकर स्पोर्ट्स और खाने तक उनका साथ हमेशा कायम होता .

क्या हो रहा है सुनीता, सीधे खड़ी रहो ...भटनागर मैंम  की कडकती आवाज़ के बीच सुनीता ने जल्दी से दोनों आँखें मीच प्रार्थना में सुर मिलाया , कहाँ रह गयी कुसुम !
आज का अनमोल विचार कुसुम को  ही पढना था . 
प्रार्थना के बाद जैसे ही आँखें खोली , डायस के पास कुसुम को देख कर राहत  की सांस ली उसने .
प्रार्थना के बाद क्लास में लौटते दोनों की खुसुर पुसुर शुरू थी , देर कैसे हो गयी ,आज टिफिन में क्या लाई हो !
केर का अचार , मूली का पराठा ! 
ला दिखा ,  कुसुम  ने लगभग छीनते हुए उसके हाथ से टिफिन ले लिया और खोलने लगी .
हद है , बहुत सारे हैं , मम्मी ने तेरे लिए भी एक्स्ट्रा रखे हैं , अभी ही शुरू मत हो जा .
लंच तक कौन रुकेगा , कुसुम ने टिफिन खोल लिया था . क्लासरूम में अपनी सीट पर पहुँचते एक बड़ा ग्रास उदरस्थ कर चुकी थी . दूसरा ग्रास तोडा ही था कि   रजिस्टर लिए क्लासटीचर   क्लास में पहुँच गयी . हडबडाहट में टिफिन कुल ही डेस्क की खुली दराज में सरका तो दिया मगर अचार की खुशबू को मैम की नाक से बचाना संभव नहीं हुआ . 

अचार की खुशबू कहाँ से आ रही है , तुम लोग घर से नाश्ता नहीं करके आते और यहाँ क्लास में घुसते ही , बंद करो यह सब ...
मैम के खुद के मुंह में पानी आ रहा है ,मगर कहे कैसे , बंद कर तो दिया , कुसुम को कोहनी मारती हुए सुनीता ने टिफिन बन कर रख दिया .

सुनीता और कुसुम , क्या खुसुर पुसुर करती रहती हो दोनों , चलो , कुसुम तुम वहां से उठो , और इधर बाईं बेंच पर बैठो ...
नहीं मैम , हमें यही बैठने दीजिये , हम अब बात नहीं करेंगे .
नहीं तुम उठो वहां से ! कितनी बार समझा दिया तुम्हे !
प्लीज़ मैम ...पक्का अब नहीं  करेंगें बातें, प्लीज़ -प्लीज़ !
ये मेरी आखिरी वार्निंग है , अब अगर कानाफूसी करती नजर आयी तो क्लास से बाहर निकाल दूँगी ...भटनागर मैम शब्दों को भरसक कोमल बनाते हुए बोली .

नहीं मैम ,  अब नहीं करेंगे , चल बैठ जा , कॉपी  निकाल फुर्ती  से , सुनीता ने कुसुम का हाथ पकड़कर सीट पर बैठा दिया . 
लंच टाइम में क्लास मॉनिटर सहित सभी लड़कियां बरस रही थी , क्या है तुम लोगों का , तुम्हारे कारण पूरी क्लास डिस्टर्ब होती है .
क्या किया मैंने , टिफिन खोल कर दो ग्रास खा लिए , थोडा बतिया लिया तो कौन सा अनुशासन भंग हो गया ...
तुम्हारी ढिठाई के कारण  पूरी क्लास का तमाशा बन जाता है  , मगर तुम्हे क्या फर्क पड़ता है .नाराजगी प्रकट करते हुए वीणा क्लासरूम से बाहर निकल गई  .  

उस दिन जाने सर जोड़े जाने किस बात पर खीखी में लगी थी दोनों , मैम का क्लासरूम  में आना उन्हें नहीं दिखा , न ही पूरी क्लास का उनके सम्मान में खड़ा होना . थोड़ी देर तक चुपचाप उन दोनों का भरपूर अवलोकन करने के बाद मैम की आवाज़ से ध्यान भंग हुआ।  दोनों  हडबड़ाती गुड मोर्निंग कहती उठ खड़ी  हुई  जरुर , मगर बंद होठों में खिलखिलाना रुक नहीं .
पढ़ाते  हुए कई बार ध्यान भंग होने पर शालिनी मैम ने उन्हें बेंच पर खड़ा होने की सजा सुना दी . दोनों साथ खड़े हुए भी अपनी खिलखिलाहट से बाज नहीं आयी , साथ ही हंसी के संक्रमण का असर पूरी क्लास पर होते देख , दोनों को क्लासरूम के बाहर खड़ा कर दिया गया था  .

सब लोग परेशान है हमारे कारण , चल, दोनों आज से अलग सीट पर बैठेंगे , बात भी नहीं करेंगे ! खीझती हुए कुसुम  ने कहा .
सॉरी , मैं ऐसा नहीं करूंगी .
अरे ,सचमुच बात करना बंद थोड़ी न कर देंगे , बस क्लास में नहीं बोलेंगे , सबको यही लगेगा कि  हमारा झगडा हो गया .
नहीं , मुझसे नहीं होगा , मैं पूरे एक पीरियड तुझसे बात नहीं करू , ऐसा नहीं हो सकता .
रोज क्लास का माहौल खराब होता है , सबसे डांट  पड़ती है , सिर्फ एक दिन के लिए यह नाटक कर देखते हैं .

दुसरे दिन सुबह पूरी क्लास हैरान थी . सुनीता और कुसुम अलग -अलग आयी क्लास में और एक दूसरे  से दूर दूसरी कतार में बैठी . बस एक दुसरे को मुस्कुराते देखती रही मगर बात नहीं की .
पूरी क्लास दम साधे  लंच का इन्तजार कर रही थी . यह सातवाँ आश्चर्य संपन्न कैसे हुआ . कुछ बच्चे सुनीता के पास , तो  कुछ कुसुम के पास घेरा बना कर खड़े हो गए .
क्या हुआ , आज दोनों बात नहीं कर रही . अपना टिफिन लेकर कुसुम के पास जाती सुनीता के पाँव वहीं  थम गए .
कुछ नहीं , बस अब बात नहीं करेंगे , रोज डांट पड़ती है हमें ...
अच्छा है , क्लास में शांति बनी रहेगी , देखती है कितनी देर तक ...वीणा  मटकते हुए वहां  से चली गयी . कुसुम सोचती रही सुनीता आएगी अपना टिफिन लेकर , उधर सुनीता उसके आने का  इतंजार करती रही . आखिर  लंच समय समाप्त हुआ , दोनों के टिफिन बिना खुले बैग में रख गए .
आखिरी पीरियड के बाद उसी तरह गोलों में घिरी दोनों अपनी -अपनी बस में चढ़ गयी . पेट में दौड़ते चूहों ने जोर मारा बस में टिफिन खोलकर खाती सुनीता और कुसुम की आँखें नम  थी . यह पहला अवसर था जब कैर का अचार अनखाया रह गया था .
दूसरा दिन , तीसरा दिन , और कई दिन इसी तरह गुजरते गए . 
सुनीता और कुसुम दोनों ही सोचती रही , उनका सचमुच झगडा थोड़ी ना हुआ है , मगर फिर से बात कौन पहले शुरू करे। दोनों एक दूसरे को देखती दूर से, मुस्कुराती मगर शब्द जुबान पर ही अटके रहते .  
सहपाठी सोचते ,पूछते , बाते करतें , क्या हुआ है इन  दोनों के बीच , किस बात पर झगडा हुआ . 
दोनों चुप रहती।  क्या कहती , झगडा तो हुआ ही नहीं था , रूठने का खेल हकीकत- सा हो गया था . फाइनल एक्जाम के लिए प्रिपरेशन लीव शुरू होने वाली थी . दोनों रोज़ सोचती आज  बात की  शुरुआत कर ही लेंगे , मगर स्कूल पहुँचते समझ नहीं आता की क्या बात करें , कैसे बात करें . एक गुमसुम सन्नाटा सा पसरा रहता उन दोनों के बीच . 
एक दिन सुनीता ने तय किया कि   आज  वह बात करे के ही रहेगी , बात ही क्यों , सीधे अपना बैग अपनी पहले वाली सीट पर ही रखेगी . प्रार्थना में उसकी नजरे ढूंढती रही कुसुम को , मगर वह कही नजर नहीं आयी और ना ही क्लास में . किससे पूछे वह कि  कुसुम क्यों नहीं आयी , हमेशा  उन दोनों से ही सब पूछते थे दोनों के बारे में . एक दिन , दो दिन , कई दिन बीत गए . आखिर  एक दिन सुनीता पहुँच ही गयी कुसुम के उन रिश्तेदार के घर जहाँ वह पेईंग गेस्ट बन कर  रह रही थी .कुसुम के चिकित्सक पिता की पोस्टिंग एक कस्बे  में थी, जहाँ शिक्षा की समुचित व्यव्यस्था नहीं हो पाने के कारण कुसुम को इस शहर में अपने रिश्तेदार के घर रहना पड़ा था .   मालूम हुआ  कि उसके पिता की तबियत अचानक बहुत ख़राब हो गयी , उसे जाना पड़ा था . उसके पिता का स्थानांतरण बड़े शहर में हो गया है .  वह सिर्फ परीक्षा देने ही आएगी .और इसके बाद  अपने परिवार के साथ उस शहर में ही रहेगी .

सुनीता लौट आयी थके क़दमों से . खेल -खेल में रूठने ने उसकी एक मित्र को उससे हमेशा के लिए दूर कर दिया था . दिन , महीने , साल बीतते गए , सुनीता और कुसुम का आमना -सामना कभी नहीं हुआ मगर अब सुनीता को भूल कर भी किसी से रूठने में डर लगता है , कही वह इस रिश्ते को हमेशा के लिए खो ना दे .

Yeh Mera Jahaan: अनजान शहर से गुजरते हुए(गिरिजा कुलश्रेष्ठ)


किसी अजनबी शहर से गुजरते हुए
My Photoमुझे अक्सर अहसास होता है
कि बहुत जरूरी  होती है,
सजगता, समझ ,
और जानकारी
उस शहर के--इतिहास--भूगोल की
पर्स में रखनी होती है
मीठी यादों की पर्याप्त पूँजी
डायरी में नोट किये गए
बहुत खास अपने से नाम
किसी अपने का पता फोन नं.
ताकि शहर की गलियों, चौराहों को
पार किया जा सके यकीन के साथ ।
अजनबी चेहरों की भागती सी भीड में
अनजान रास्तों के जटिल जाल में
अन्तहीन सी दूरियों को पार करते हुए भी
याद रखा जा सके अपना गन्तव्य
उसे तलाशने में
खर्च होने से बचाया जा सके
जिन्दगी का एक बडा हिस्सा

जब भी गुजरती हूँ मैं
किसी अनजान शहर से
महसूस होती है तुम्हारी कमी
पहले से कहीं ज्यादा
किसी अनजान भाषा में
बतियाते लोगों को देखना
भर देता है मुझे
निरक्षर होने के अहसास से
तभी तो याद करती हूँ
तलाशती हूँ तुम्हें ही हर चेहरे में ।
क्योंकि तुम्हारा साथ होता है,
सिर पर हाथ होता है
तब नही होता कुछ भी अनजाना
जटिल और थकाने वाला ।
अनजान शहर से गुजरना
सिखाता है बहुत से तमीज-तहजीब
कि हर किसी से नही मिला जाता
उस तरह
जिस तरह मिलते रहते थे हम
अपने गाँव में सबसे
बेझिझक , बेखौफ...।
कि नही खोला जाता सबके सामने अपना बैग
नही गिनी जाती कहीं भी अपनी जमाराशि ..।
और कि नही बताया जाता
अपना घर और गन्तव्य हर किसी को
और यह भी कि सबसे जरूरी होता है
पास रखना अपने आपको
बना लेना किसी को बहुत अपना
गुजरते हुए किसी अनजान शहर से

वीणा के सुरबिखरी यादें...(वीणा श्रीवास्तव)

समय ने आज
फिर दिखाया दर्पण मुझे
कितना बदल गया है
चेहरा मेरा
वो भाव
वो मासूमियत
वो अल्हड़पन
वो बचपन
कहीं छूट गया पीछे
मैं अभी भी भाग रही थी
उन्हीं संबंधों के पीछे
जिनके सिरे
बंधे हुए थे बचपन से
अकेलेपन के आंगन में
कितना रीता-सा हो गया है जीवन
परछांई बनकर चलने वाले रिश्ते
कहीं गुम हो गए
समय के अंधकार में
वक्त ने कर दिया उन्हें हमसे दूर
या हमारी जरूरतों ने
कर लिया किनारा उनसे
मस्तिष्क के पुस्तकालय में
तरतीब से सजी हैं यादें
लेकिन बिखरी पड़ी हैं वो तस्वीरें
जो बसी थीं आंखों 
मैं नहीं देखना चाहती दर्पण
कैसे ढूंढूंगी
अपने इर्द-गिर्द की तस्वीरें
मैं अकेली रह गई
अपने फोटो फ्रेम में
बचा है तो मेरा रीतापन
कहीं आवाज देता मौन
भीगी हुई यादें
सिसकती रूह

हम
दोनों के बीच 
My Photoपूरे चैबीस घंटे थे 
यदि मेरे बस में होता तो लिख देता 
अपने हिस्से को भी 
तुम्हारे नाम
और यह जद्दोजेहद  
यहीं खत्म हो जाती 
हमेशा के लिए कि
मेरे पास तुम्हारे लिए वक्त नही है

मेरे
अपने पास तो 
अपनी वज़हों के लिए 
खामोशियाँ ही बचती है
जिन्हें तुम अक्सर 
मेरी लाचारियों का नाम दे देती हो  
और यही समझती हो 
ऑफिस में 
और कुछ नही होता 
सिवाय लकीरों के पीटने के  
यह वक्त का साँप 
न जाने कब सरक आया है
तुम्हारे पास
और मैं लौटा हूँ 
तुम्हारे हिस्से का वक्त 
जाया करके
मौन मौन ही होता है 
समझ लो तो शब्द 
नहीं तो एक सन्नाटा !!!

अब मैं लेती हूँ एक मध्यांतर, किन्तु पहले आपको ले चलती हूँ वटवृक्ष पर जहां देवेंद्र पांडे कर रहे हैं ठीक है की व्याख्या ......यहाँ किलिक करें 

8 comments:

  1. सबसे पहले तो गिरिजा जी , वीणा जी और मुकेश जी की कवितायें बहुत अच्छी लगीं | बखूबी खामोशी को शब्दों की जुबान दी है |
    लेकिन मैं सबसे ज्यादा शुक्रिया करना चाहूँगा वाणी जी का | अगर आप ये कमेन्ट पढ़ें तो मेरा सादर प्रणाम स्वीकार करें | आपकी कहानी पढ़ते-पढ़ते मेरी आँखों के आगे मेरे बचपन की एक-एक तस्वीर सजीव होती जा रही थी | मेरा एक बचपन का दोस्त था आशीष , मुझे याद भी नहीं कि उस से पहले मेरा कोई दोस्त था भी कि नहीं | साथ में स्कूल , साथ खेलना , किस्मत से कुछ दिनों में हमारे घर भी पास-पास हो गए , हर शैतानी में साथ , हर प्रशंसा में साथ , अक्सर ही नंबर भी लगभग बराबर ही आते थे , यहाँ तक कि काफी लोग हमारे नाम भी नहीं जानते थे , किसी एक के नाम से दोनों का काम चल जाता था | फिर हम लोगों ने साथ में इंजीनियरिंग की तैयारी शुरू की | मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे उस से अलग किसी कॉलेज में जाना पड़ेगा लेकिन अंत में वही हुआ | आश्चर्य की बात तो ये है कि मेरे कॉलेज में लड़के उसे जानते भी नहीं हैं फिर भी गलती होने पर मेरा नाम आशीष ही पुकारते हैं |
    शुक्रिया इतनी अच्छी यादों के लिए |

    सादर

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  2. अपने पास तो
    अपनी वज़हों के लिए
    खामोशियाँ ही बचती है
    ............. अक्‍सर ऐसा ही होता है जब मौन मन के आँगन उतरता है
    सभी रचनाएं बेजोड़
    चयन एवं प्रस्‍तुति का आभार

    सादर

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  3. मौन मौन ही होता है
    *समझ लो तो शब्द
    नहीं तो एक सन्नाटा !!!
    समझने वाले से कोई पूछे ,आखिर कब तक ...........
    शुभकामनायें !!

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  4. वीणा श्रीवास्तव)
    समय ने आज
    फिर दिखाया दर्पण मुझे
    कितना बदल गया है
    चेहरा मेरा
    वो भाव
    वो मासूमियत
    वो अल्हड़पन
    वो बचपन
    कहीं छूट गया पीछे
    nice ..

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  5. अच्छे चयन...
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार....

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  6. बहुत आभार !
    आकाश , आपका बहुत शुक्रिया , अच्छा लगा कि कहानी से आपकी स्मृतियाँ सजीव हो उठी ! एक खूबसूरत याद को साझा करने का शुक्रिया !

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