कलम के तराजू पर कृष्ण की तरह पड़ी हैं रचनाएँ ..... तुलसी का पत्ता रख उत्सव की बुनियाद मजबूत कर रही हूँ .... सरस्वती अपनी वीणा के स्वर लिए हर व्यक्तित्व को निखार रहीं ....

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ज़रूरतबुद्ध(रमाकांत सिंह)

अंकुरित बीज 

न जाने कब 

बन गया वृक्ष 

और एक दिन अचानक

एक राजपुरूष

करने लगा चिंतन

व्यर्थ ही बैठकर

छांव में उसकी

जग की अर्थहीनता पर


न जाने कब 

बन गया वृक्ष 

और एक दिन अचानक

एक राजपुरूष

करने लगा चिंतन

व्यर्थ ही बैठकर

छांव में उसकी

जग की अर्थहीनता पर


लोगों ने उसे बुद्ध बना दिया

और वृक्ष बन गया

बोधि वृक्ष

नतमस्तक हो गया

सम्राट अशोक भी उसके कथन पर

संसार अभिभूत हो उठा

उसके मरम पर


कालक्रम निरंतर रहा

पर समय के साथ-साथ

सूखती गई कुछ डालें

पखेरू आज भी

बैठते हैं शाखाओं पर

पत्तियों ने डालियों से

तोड़ लिया नाता

बनते गए कोटर सूखी डालों में

शनैः-शनैः


भक्तों ने बांध दी 

पत्थरों से

दुबराती जड़ें 

वृक्ष निहारता रहा शून्य में

अपनी नियति


एक दिन मैं भी 

बैठ गया उसकी छांव में

बनने बुद्ध

किन्तु आज तलक

समझ नहीं पाया

बोधि वृक्ष का अपराध.

ये जो है ज़िंदगी...: न्यूक्लीयर विष(अंकिता चौहान)

खबर है 
सागर मंथन की कल फिर से 
एक छोटे से गाँव में बसने वाले
साधारण जन
क्या मथ पाएंगे अमृत
या सागर उगलेगा
न्यूक्लीयर विष 
और तहस नहस कर देगा
लोगों के लिए
लोगों के द्वारा
लोगों का 
कहा जाने वाला लोकतंत्र!!!
Veena Srivastava
पुस्तकें.............वीना....http://veenakesur.blogspot.in/

ज्ञान का भंडार हैं
ये पुस्तकें
बंद है
हमारा भविष्य इनमें
नन्हें हाथों की शक्ति
आने वाले कल की 
तस्वीर है इनमें
इन्हें खोले और
गहराई में उतरे बिना
हम नहीं कर सकते
अपने कल का निर्माण
कल के
सवालों के उत्तर
मिलेंगे
यहां-वहां बिखरी
सजी किताबों में
लेकिन हमारे पास
समय कहां है
हम तो उलझे हैं
शार्ट कट में
किताबों के  लेन-देन से
पनपने वाले रिश्ते
सिमट गये हैं इंटरनेट में 
अब कोई नहीं मिलता
किताबों के बहाने
प्यार नहीं पनपता
पुस्तकालयों में
यादें नहीं सहेजी जातीं
सूखे फूलों में
नहीं रखी जाती
चिट्ठियां
अपनों के लिए
नहीं बनते फसाने
प्यार के
नहीं सजते सुर
संगीत के
क्योंकि
हम होते जा रहे हैं दूर
पढऩे की आदत से

गुस्ताख़: टाइम मशीन (मंजीत ठाकुर)


चाहता हूं,
वक़्त की मशीन में थोड़ा पीछे चलूं.
कुछ लकीरें खींचू, कुछ मिटाऊं
कुछ तस्वीरें बनाऊं

कुछ साल पीछे चलूं.
बचपन नहीं,
झेल लिया है बहुत कसैलापन पहले ही
नौजवानी भी नहीं,
जब चिंता में घुला करता था रात-दिन

उन दिनों में
ले चले वापस मुझे
टाइम मशीन

पैरों के नीचे चरपराहट हो,
कुछ सूखे पत्तों की
और नंगी टहनियों पर टूसे आ रहे हों,
कुछ कोमल पंखुडियों-से

आहिस्ते से
वह आकर पकड़ ले मेरा हाथ
और चूम ले शाइस्तगी से
मेरी गरदन पर का तिल।
जिसे छूकर कहा था उसने कभी,
पता है तुम्हारी गरदन पर
एक तिल बड़ा खूबसूरत है।

टाइम मशीन,
ले चले मुझे
कुछ वक्त पीछे
शायद मिटा सकूं कुछ
उन धब्बों को
और उन सतरों को,
जहां मैंने जितना लिखा है
उससे कहीं अधिक काटा है।
मेरे जीवन में,
जितना ज्वार है, जितना भाटा है

चाहता हूं
कुछ लाईनों की ही सही, 
कर दूं फेरबदल। 
ऐ वक़्त,
थोड़ी तो मोहलत दे मुझे।
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क्यूँ

फैला है सन्नाटा

पर छंटती नही भीड़ है...


क्यूँ

रिश्ते है जुड़े हुए,

पर एहसास का निशां नही...


क्यूँ

साथ है तुम्हारा,

पर पास तुम अब भी नही...


क्यूँ

उजाला है चारों तरफ,

पर दिखता सिर्फ अँधेरा है...


क्यूँ

राहें बनी है गुमराह,

खबर नही मंजिल की भी...


क्यूँ

जान नही पाया,

अपने ही खुद को...


क्यूँ

मिला है सबकुछ,

पर बाकी है एक कसक...


क्यूँ

हो गया मै सबका,

पर कोई हमारा ना हो सका...


एक मध्यांतर लूँ उससे पहले मैं ले चलती हूँ आपको वटवृक्ष पर जहां उपस्थित हैं प्रणय टंडन, कह रहे हैं 
कुछ भी तो नहीं बदला....यहाँ किलिक करें  

4 comments:

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