यादों का काफिला यानी संस्मरण ...... कितने रास्ते,कितने ब्रेकर .... जाने कितना कुछ होता है . रुई के फाहे सा उड़ता है काफिला,तो अचानक होती है सिहरन ...
अनु सिंह चौधरी और  नानी के नाम चिट्ठी

मेरी प्यारी नानी, 

My Photoकई दिनों से सोच रही हूं कि आपको लिखूं चिट्ठी। कुछ वैसी ही निर्दोष, जैसी बचपन में लिखा करती थी। जब लिखा करती थी कि सब कुशलमंगल है, वाकई वैसी होती थी ज़िन्दगी, या शायद उतना ही समझ आता था। हालांकि आपके कुशल हो जाने की कामना की तीव्रता अब भी कम नहीं हुई।

नानी, आपको वैसे ही याद करती हूं इन दिनों जैसे पैरों के तलवे में बेसबब निकल आया कोई ज़ख़्म याद आया करता है, एक अविराम टीस की तरह, जिसके होने से याद आता रहते हों वो तलवे जिनपर शरीर का बोझ होता है और जिनपर वक़्त-वक़्त पर मरहम लगाना ज़रूरी होता है। वरना तो अपनी हर प्रिय और सबसे आवश्यक चीज़ को ग्रान्टेड ले लेने की बुरी बीमारी होती है हम सबको। 

इन दिनों गर्मी की छुट्टियां है, इसलिए और याद किया करती हूं वो घर जहां पैदा हुई, जहां अपनी सबसे बड़ी बेटी की सबसे बड़ी बेटी को आपने अपनी सबसे छोटी संतान बना लिया। टुकड़ों-टुकड़ों में याद है कि आपके सीधे पल्ले के आंचल को खींचकर अपने सिर पर डालकर गोद में सो जाना बड़ा मुश्किल होता था। उसपर आपका आंचल तो सिर से खिसकता भी नहीं था नानी। फिर आपकी घिसी हुई हड्डियां चुभती थीं। पूरे शरीर पर कहीं मांस का कोई टुकड़ा नहीं। हड्डियों के ढांचे में भी आपकी झुर्रियों वाली हंसी कितनी ख़ूबसूरत लगती थी। मम्मी भी बिल्कुल आपके जैसी लगने लगी हैं अब। मैं भी तो मम्मी जैसी हो गई हूं। 

तो नानी, आप तो अपने पिता की जायदाद की इकलौती वारिस थीं ना? ये भी सुना है कि विरासत में मिले खेत सोना उगला करते थे। सोने-से मकई के दानों पर पूरी दोपहर खेलना तो मुझे याद है। आपके बगीचे के आम-सा कुछ नहीं खाया पूरी ज़िन्दगी। और नानी, वो बनारसी बेर। उफ्फ, भूला नहीं मुझको कि कैसे मुंह में डालते ही घुल जाया करता था। आपकी गौशाला से निकले दूध की गाढ़ी मलाई खाने की ऐसी लत पड़ी कि मदर डेयरी को कोस-कोसकर भी मलाई निकालकर बिल्ली की तरह चाट जाया करती हूं। जब मदर डेयरी की मलाई मुझे गोल-मटोल, चुस्त-दुरुस्त बनाए रखती है तो फिर आपकी गायों में क्या खोट था कि आप पर एक आउंस वज़न भी नहीं चढ़ा? 

कुछ अपने लिए रखतीं तब तो बचता, नानी। आपको बांटने की बीमारी थी। बाकी की कमियां सोम-बृहस्पति, एकादशी-पूर्णिमा के व्रत पूरी कर दिया करते थे। किसके लिए व्रत करती थीं इतना, ये मां बनीं हूं तो समझ में आया है। अपने बच्चों की सलामती के लिए एक नास्तिक भी पत्थरों को चूमने लग जाता है, आपका तो ख़ैर ऊपरवाला से सीधा कनेक्शन था। उसी कनेक्शन का नतीजा था कि किसी फरिश्ते-सा सब्र था आपमेँ। आपकी ख़ामोशी अब समझ में आती है कि प्रकृति में संतुलन बनाए रखने के लिए अक्खड़, ज़िद्दी, गुस्सैल और बेहद अनुशासित नाना का साथ निभाने के लिए एक सहृदया, गंभीर और ख़ामोश नानी का होना ज़रूरी था। 

मैं अक्सर सोचती हूं कि आर्थिक रूप से आज़ादी औरतों की आज़ादी का रास्ता प्रशस्त करती होगी, लेकिन आपकी मिसाल यहां एन्टीथीसिस का काम करती है। आपको मायके की जायदाद विरासत में मिली, आपके पास एक अदद-सी सरकारी नौकरी थी और क़ायदे से फ़ैसलों की कमान आपके हाथ में होनी थी। लेकिन मेरी पिछले तीस सालों की समझ कहती है कि आप अपनी आर्थिक आज़ादी को लेकर एक अजीब किस्म के गिल्ट से जूझती रहीं। गांव में इकलौती काम-काजी औरत होने का गिल्ट था, मायके में बस जाने का गिल्ट था, तीन बेटियां पैदा करने का गिल्ट था और अपने वजूद का गिल्ट था। 

अब समझ में आता है कि दरअसल ये स्त्रियों की डीएनए संरचना का दोष है। आपके गिल्ट को देखकर आपकी बेटी ने कामकाजी ना होना तय किया और ज़िन्दगी भर पति पर आश्रित बने रहने के गिल्ट में रहीं। आपकी बेटी के गिल्ट को देखकर मैंने आर्थिक रूप से आज़ाद होने की पुरज़ोर कोशिश की, और फिर भी गिल्ट में रही। मैं  शायद अपनी बेटी को भी विरासत में वही अपराधबोध सौंप रही हूं। ये कैसा बोझ है नानी? हम कैसे बदलें इसको? अगर मैं, आप अपने आस-पास के कई लोगों से बेहतर और जागरूक हैं तो इसको लेकर अपराधबोध कैसा? हम क्यों भीड़ को खुश करने के लिए भेड़चाल में भेड़ बने रहते हैं? हमें क्यों अपने वजूद पर गुमान करना नहीं सिखाया गया? 

नानी, मुझे याद है कि आप स्कूल की मास्साब और अपने घर के लिए बेटा और बहू दोनों बनने की कोशिश में कैसे पिसा करती थीं? याद है मुझे कि स्कूल में वीणा बजाती मां शारदे का आह्वान करते हुए भी आपका ध्यान उस ज़िम्मेदारियों पर होता था जो हर लिहाज़ से गैर-ज़रूरी थीं, लेकिन एक गृहस्थ परिवार की शान बचाए रखने के लिए जिनका उन्मूलन नामुमकिन था। कभी-कभी आपसे बेजां कोफ्त होती है कि आपने सबको खुश रखने के क्रम में अपने देह और अपनी आत्मा की धज्जियां उड़ाईं। एक राज़ की बात बताऊं नानी? आपके गांव से कई सौ किलोमीटर दूर बैठकर एक महानगर में रहते हुए भी, देश के सबसे अच्छे कॉलेज में पढ़ लेने के बाद भी मेरी किस्मत और फितरत पर आपकी परछाईयां दिखाई देती हैं। मैं पचास साल बाद भी भेड़चाल में ही हूं, एक भेड़ की तरह, इस ख़ौफ़ में कि मेरे अलग रंग की ख़बर भीड़ को मिली और मुझे आउटकास्ट क़रार दिया गया तो? आप भी डरती थीं, मैं भी डरती रहती हूं। 

नानी, मेरी ट्विन प्रेगनेन्सी के बारे में जानकर डॉक्टर ने फैमिली हिस्ट्री के बारे में पूछा। मैंने ना में जवाब दे दिया और मेरे साथ बैठीं मम्मी चुप रहीं। गाड़ी में उन्होंने धीरे से बताया, नानी को ट्रिप्लेट्स हुए थे, बच नहीं पाए। मैंने मम्मी को सवालिया निगाह से देखा, पांच बच्चों के अलावा? उन दो और बच्चों के अलावा, जो बच नहीं पाए? नानी बच्चा पैदा करने की मशीन थीं? एक स्कूल की प्रिंसिपल होने के बावजूद? पढ़ी-लिखी होने के बावजूद? मम्मी चुप रहीं। नानी से चुप्पी विरासत में मिली थी उन्हें, मुझे भी मिली है। क्या-क्या दिया है मुझे विरासत में मुझे नानी, आपने? 

आपकी तरह मुझे फ़ैसले लेने से डर लगता है नानी, ऊंची आवाज़ में अपनी बात कहने से डरती हूं। डरती हूं कि कुछ कह देने से बात बिगड़ी तो? ज़िद किसी की नाराज़गी का सबब बना तो? इसलिए नानी, ये जानते हुए भी कि आपकी आख़िरी ख़्वाहिश मेरे जुड़वां बच्चों को देख लेना था, मैं अपनी ससुराल से आपके पास जाने की अनुमति मांगने की ज़िद नहीं कर पाई। मैं नहीं आ पाई आपको देखने, और सुना है कि आप आखिरी सांसें लेते हुए भी मेरे बारे में पूछती रही थीं। मम्मी ने मुझे नहीं आने के लिए चार सालों में माफ़ कर दिया होगा मुझे, मैं ज़िद नहीं करने के लिए आजतक ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाई। 

एक रात सपने में आप आई थीं। मेरे पैर में कांटा चुभा था कोई और मैं ननिहाल में बिस्तर पर बैठी थी, कांटे को निकालने के कोशिश में। आपके हाथ में कोई जंगली पत्ता था। आपने कहा मुझसे, अकवन के दूध से कांटा निकल जाई बाबू, तहार दुख दूर करे खातिर रामजी के आगे हाथ जोड़ब। 

आपका रामजी से सीधा कनेक्शन है, हाथ जोड़िएगा नानी। लेकिन मेरे ज़ख़्मों का इलाज मत कीजिए। टीसते रहे ये घाव तो याद आती रहेंगी आप, और याद आता रहेगा मुझे कि मैं किसके जैसा नहीं बनना चाहती थी और क्या बनती रही फिर भी...

पोस्टस्क्रिप्ट: नानी को मैंने आख़िरी बार अपनी शादी में देखा था। शादी में उन्होंने वही सिल्क की साड़ी पहनी जो मैं अपने पैसे से खरीदकर लाई थी उनके लिए। पौ फटते ही पराती गाने बैठी नानी और दादी को देखकर लगता, बस इसी एक खुशी पर सब कुर्बान और शाम को नानी ढोलक के साथ राम-जानकी विवाह के गीत गातीं - जाईं बाबा जाईं अबध नगरिया/जहां बसे दसरथ राज/पान सुपारी बाबा तिलक दीहें/तुलसी के पात दहेज/कर जोरी बिनती करेब मोरे बाबा/मानी जायब श्रीराम हे। 

पान सुपारी और तुलसी के पात से ही श्रीराम मान गए। दशरथ भी, नानी। हमें ये क्यों नहीं मालूम कि जानकी की मां का नाम क्या था और उनकी नानी कौन थीं? या धरती-सा धैर्य सारी औरतों का स्वभाव है और इससे भी क्या फर्क पड़ता है कि मेरी भी नानी कौन थी?  

भूल-चूक, सवाल-जवाब की माफ़ी मांगते हुए, 
आपकी 
अनु 

मैंने कहा ना कि मैं फेमिनिस्ट नहीं हूं? मैं ऐसे परिवार में पली-बढ़ी जहां पित्तृ-सत्ता को पैदा होते ही स्वयंभू सर्वसर्वा मान लिया जाता है, जहां बेटों-भाईयों-पतियों की सेवा करना जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है, जहां रसोई का इकलौता काम घर के पुरुषों की जिव्हा को संतुष्ट करना होता है, जहां बहुएं अगली पीढ़ियां पैदा करने और घर-बार चलाने के लिए ही लाई जाती हैं। ये सब बिना किसी सवाल या रत्ती-भर बदलाव के पीढ़ी-दर-पीढ़ी होता आ रहा है। हमें भी सवाल पूछना नहीं सिखाया गया था। ना उंगली उठाने की इजा़ज़त थी। घर के दरवाज़े पर लगे रेशमी पर्दे के इस तरफ जो भी हो रहा हो, पर्दे के बाहर से दुनिया वाहवाहियां ही करती तो अच्छा था। 

शादी ऐसे परिवार में हुई जो मातृप्रधान था। महिलाओं पर घर और ज़मीन-जायदाद की प्रशासनिक ज़िम्मेदारियां निभाने का दारोमदार था। बहुएं चौके में नहीं जाती थीं, खाना महाराज बनाया करते। इस परिवार में पचास के दशक से ही बहुएं पटना वूमेन्स कॉलेज से पढ़कर आईं। कोई बहू प्रशिक्षित भरनाट्यम नर्तकी थी तो कोई अंग्रेज़ी साहित्य की प्रकांड विदुषी। कोई श्वेत-श्याम एलबम में नेहरू के साथ सनग्लासेस लगाकर खड़े होने की तस्वीरें बार-बार दिखाया करतीं तो किसी के भाई-बंधु नामी-गिरामी मंत्री होते। सुना तो ये भी है कि मेरी एक काकी सास अपने ज़माने में घुटने तक बूट्स डाले दोनाली बंदूक लिए जीप चलाती हुई जंगलों में शिकार के लिए जाया करती थीं। फॉरेस्ट गेस्ट हाउस में दो-चार को हलाल करने के बाद जाम भी उठातीं, जश्न भी मनातीं।

फिर तो ऐसे परिवारों में रहते हुए अपने वजूद के बारे में सोचने की कोई वजह ही नहीं थी। फेमिनिस्म को अपनी किताबों की अलमारी का हिस्सा भी बनाया जाए, इसकी तो बिल्कुल नहीं। फिर ये एड्रियन रिच को कैसे पढ़ लिया मैंने? मेरी सिरहाने एक फेमिनिस्ट कवयित्री कब और कैसे आकर बैठ गई? क्यों एड्रियन का लिखा पढ़ा तो बार-बार पढ़ती रही? 

एड्रिएन रिच के लाइफ इवेन्ट्स से तादात्म्य स्थापित करने जैसा कुछ भी महसूस नहीं किया कभी। लेकिन क्यों उसके लिखे हुए में वो नज़र आता था जिसे कहने-सुनने की हिम्मत मुझमें नहीं थी, ना होगी? क्यों फुल वूमेन्स लाइफ को लेकर मेरे मन में कई सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहे? क्यों उसके लिखे प्रेम गीत पढ़ती रही, बंद करती रही, फिर हिम्मत की एक बार और पढ़ने की? 

एड्रिएन क्रांतिकारी थीं और वियतनाम युद्ध विरोधियों को अपने घर में बुलाकर बहस-मुबाहिसे करतीं, ब्लैक पैंथर आतंकियों के लिए पैसे जुटाने का काम करतीं। उनके पति को लगने लगा कि उनकी बीवी सनक गई है और अपनी पत्नी से अलग होने के तुरंत बाद उन्होंने जंगल में जाकर खुद को गोली मार ली। इस व्यक्तिगत त्रासदी ने भी एड्रिएन को वो होने से नहीं रोका, जो वो बनना चाहती थी। 

शादी के तकरीबन बीस साल बाद एड्रिएन अपनी सेक्सुएलिटी को लेकर मुखर हुईं और बाद में उनकी कई कविताओं में लगातार उनकी सेक्सुअल आईडेंडिटी कविताओं का केन्द्रीय विषय भी रही। वो युद्ध के खिलाफ लिखती रही, अपने निज को बचाए रखने के लिए लड़ती रही। वो इन्टेलेक्ट की पराकाष्ठा थी, उसने ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर जिया और जीवन से जुड़े तमाम अंदरूनी और वाह्य कॉन्फलिक्ट्स, तमाम संघर्षों के बारे में बेबाकी से लिखा। एड्रियन रिच को पढ़ती हूं तो लगता है, ज़रूरी नहीं एक अच्छी औरत बने रहना, क्योंकि दुनिया में लाखों-करोड़ों औरतों ने अच्छाई का ये ख़ूबसूरत सतरंगी मखमली दुपट्टा ओढ़ रखा है बखूबी। कोई तो हो जो चिलमन हटाने की हिम्मत रखता हो, किसी की आवाज़ में तो हो सत्ताओं को हिलाने की ताक़त, कोई तो हो जिसे छुपकर आधी रात को पढ़ा जा सके और नींद में ही सही, उसकी हिम्मत की दाद दी जा सके। 

आद्या, तुम्हारे लिए मम्मा ने एड्रियन की एक कविता का अनुवाद किया है। तुम्हारे लिए इसलिए क्योंकि पीढ़ियां गुज़र जाती हैं, देश-परिवेश बदल जाते हैं लेकिन कई परिस्थितियां सार्वभौमिक होती हैं। हमारे-तुम्हारे वजूद और मुकम्मल पहचान की लड़ाई भी उनमें से एक है। ये कविता मेरी सबसे पसंदीदा कविता-संग्रह 'स्नैपशॉट्स ऑफ ए डॉटर-इन-लॉ' से ली गई है।

"To have in this uncertain world some stay 
which cannot be undermined, is 
of the utmost consequence." 
Thus wrote 
a woman, partly brave and partly good, 
who fought with what she partly understood. 
Few men about her would or could do more, 
hence she was labeled harpy, shrew and whore.

"इस अनिश्चित दुनिया में रहा जा सके कुछ ऐसे 
जिसे आंका ना जाए कमतर, वह 
प्रतिष्ठा की पराकाष्ठा है"
ऐसे लिखा 
एक औरत ने, जो थोड़ी साहसी थी और थोड़ी भली
जो लड़ती रही उससे जिसे थोड़ा-सा भी समझी।
थोड़े ही थे वो आदमी जो उसका बिगाड़ पाते कुछ, 
इसलिए उसे कह दिया गया क्रूर, कर्कशा और वेश्या।


मेट्रो स्टेशन से उतरकर पैदल डांस क्लास के लिए जा रही हूं। सामने से अमरूदों से भरी एक रेहड़ी चली आ रही है। हेड-ऑन कॉलिज़न होने ही वाला है, कि मैं किनारे हट जाती हूं। घबराहट में नज़रें रेहड़ीवाले की तरफ चली जाती हैं, इसलिए नहीं कि टकराने से बच गई। इसलिए क्योंकि ना चाहते हुए भी उसके चेहरे से कुछ ऐसा टपक रहा है जिसको ही 'उम्मीद' कहते होंगे शायद। सुबह-सुबह वो रेहड़ी लेकर निकला ही होगा और किसी ग्राहक की उम्मीद में मेरे सामने से गुज़रा होगा, मुझसे अमरूद खरीदने की उम्मीद की होगी।

सवाल ये नहीं कि मैंने उसकी वो उम्मीद पूरी की या नहीं। सवाल है कि 'उम्मीद' को ज़िन्दगी से काटकर कैसे फेंक दिया जाए?

तीन दिन पहले की बात है। मैं एक करीबी दोस्त के साथ बैठी हूं। कुछ कहा नहीं जा रहा उससे, या कह भी रही होऊंगी तो रूंधे हुए गले से निकलनेवाली मेरी बातों का ओर-छोर ना उसे मिल रहा होगा, ना मुझे मिल रहा है। मैं बार-बार एक ही बात दुहराए जा रही हूं - "मेरी उम्मीदों को ठेस पहुंची है"। फिर मन-ही-मन सोचती हूं, उम्मीदों को भी, और अपेक्षाओं को भी। फादर ऑस ने भी बात-बात में सबसे कहा है, "लोअर योर एक्सपेक्टेशन्स। अपनी अपेक्षाओं को कम कर लो, तकलीफ़ नही होगी - रिश्तों में नहीं, ज़िन्दगी में भी नहीं।"

लेकिन ये मुमकिन तो लगता नहीं। सोचती हूं, उम्मीद और अपेक्षा में कितना फर्क है? आशा और प्रत्याशा में? क्यों उम्मीद को सही मान लिया जाता है और अपेक्षा के साथ एक नकारात्मक ख्याल जोड़ दिया जाता है? अपेक्षा करना भी तो कहीं-ना-कहीं उम्मीद करने का ही एक हिस्सा होता है। क्या हम खुद से, अपनी ज़िन्दगी से अपेक्षाएं नहीं रखते? उस रेहड़ीवाले ने उम्मीद की कि कोई ग्राहक सुबह-सुबह उसके अमरूद खरीदेगा। उसने मुझसे अपेक्षा की होगी कि मैं रुककर कम-से-कम मोल-भाव तो करूंगी।

अपेक्षा उम्मीद का अगला रूप नहीं होता? अपेक्षा उम्मीद का एक्सटेंशन नहीं है? तो फिर रिश्तों में या वैसे ही अपेक्षाएं रखने से क्यों मना किया जाता है बार-बार? आखिर उम्मीद के दम पर ही तो सब कायम है। और मीटर तो लगा नहीं होता भावनाओं में कि आज उम्मीद हो गई, कल पूरा का पूरा पैमाना भर लिया तो अपेक्षा की है मैंने किसी से कुछ की। अन्ना को अपने अनशन से और अन्ना के अनशन से हमें कुछ अपेक्षा है, हर भारत-पाक वार्ता से कुछ अपेक्षा होती है, सुबह घर से निकलो तो अपेक्षा करते हैं दिन के अच्छी तरह गुज़र जाने की, बच्चों से अपेक्षाएं होती हैं, बच्चों को बड़ों से होती है। बड़ों को इज़्जत पाने की अपेक्षा होती है, छोटों को प्यार पाने की। क्लास में कुछ सीखने की अपेक्षा होती है, दफ्तर में हर महीने खटकर महीने के आखिर में एकमुश्त आमदनी घर ले जाने की अपेक्षा होती है। यहां तक कि रास्ते में चलते हुए भी हम अपेक्षा रखते हैं  - किसी एक मुकम्मल जगह पहुंचने की अपेक्षा लिए ही तो घर से निकलते हैं हम। अब ऊपर 'अपेक्षा' की जगह 'उम्मीद' लिखें तो वाक्यों के अर्थ में कितना फर्क पड़ जाएगा? मेरे लिए अपेक्षा करना उम्मीद रखने का ही एक रूप है।

फिर उम्मीदों की गठरी कैसे कंधों से उतार दूं? कैसे उम्मीद ना रखूं उन लोगों से जिन्हें प्यार करती हूं? जब रेहड़ीवाला मुझ अनजान ग्राहक से उम्मीद कर सकता है तो यहां तो उन रिश्तों में उम्मीद रखने-खोने की बात है जो ताज़िन्दगी साथ चला करते हैं।

"रुकते नहीं हैं मेरे कदम, चलना इनकी तो फितरत है
रौशनी हो या कि ना भी हो, चाहे जैसी अपनी किस्मत है
हमने हाथों की लकीरों को अपनी ताकत से बदला है
हमने अपने हालातों को अपनी हिम्मत से बदला है
जो चलते रहने की आदत है ये कहीं से तो आई होगी
हमने घने अंधेरे में भी तो एक शम्मा जलाई होगी

उम्मीद ही होगी कोई जो हमने राहें नई निकाली हैं
उम्मीद ही होगी कोई जिससे किस्मत भी बदल जो डाली है
उम्मीद का दामन पकड़कर हम रिश्ते भी संभाले जाते हैं
उम्मीद ही होगी कोई जिससे रोते-रोते मुस्काते हैं

उम्मीद तो होगी कोई
उम्मीद ही होगी कोई"

उम्मीद ही हो ... यादें हैं तो उम्मीदों के संग !!!

मध्यांतर पर जाने से पूर्व चलिये मैं आपको ले चलती हूँ वटवृक्ष पर जहां देवी नागरानी लेकर उपस्थित हैं एक 

3 comments:

  1. यादें हैं तो उम्मीदों के संग !!!
    बिल्‍कुल सच ...
    चयन एवं प्रस्‍तुति के लिये
    आभार
    आपका

    सादर

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  2. "लोअर योर एक्सपेक्टेशन्स। अपनी अपेक्षाओं को कम कर लो, तकलीफ़ नही होगी - रिश्तों में नहीं, ज़िन्दगी में भी नहीं।"

    सच में ऐसा हो सकता है ?? जिसने कभी ,अपनी अपेक्षाओं को समाप्त कर लिया हो ..................... !!

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  3. संस्मरण वाकई में एक बेहद खूबसूरत विधा है जो बरबस ही हमें कुछ भूला हुआ याद दिला देती है |
    तीनों लेखों का चयन बहुत अच्छा |

    सादर

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