शाँत सागर में बेचैन लहरें...साहिल तक आतीं, हमारे पाँवों से लिपट लिपट जातीं..फिर लौट जातीं चुपचाप..छोड़ अपने वजूद की निशानी..रेत पर आडी-तिरछी लक़ीरें खींचकर..! हमारे दिल में भी उठते अक्सर..एहसासों और जज़्बातों के रेले...,कभी खामोश...कभी बाहर आने को मचलते...! उन खूबसूरत लम्हों के छोटे-छोटे हुजूम, सजते बूँद बूँद हमारे वजूद पर..मोतियों की तरह..! लेकर रंग स्याही का...बनाकर काग़ज़ को साथी...और क़लम को अपनी लाठी...जब छोड़ जाते अपनी अनमोल निशानी.., अनोखी चमक में नहा जाती.. धुँधलाती हुई हमारी हस्ती.. 

बूँद..बूँद...लम्हे....  सी क्षणिकाएँ अनीता की 



1. न तुमने कुछ कहा, न ही मैनें... 
My Photoमगर दोनों की खामोशी का रूप कितना जुदा था...
तुमने कभी कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं समझी .....
और मेरी आवाज़ गूँजती रही ...मेरी झुकी पलकों के भीतर...
काश! सुन ली होती तुमने...
तो अपने बीच इस तरह चीखती ना होती....
ये खामोशी...........!

2. अंजाने में ही सही....
तुमने ही खड़े किए बाँध... अना के....
वरना..... मेरी फ़ितरत तो पानी सी थी....!

3. तुमसे जुदा हुई.... तो कुछ मर गया था मुझमें...
जो मर गया था....
उसमें ज़िंदा तुम आज भी हो.....!

4. ए खुदा मेरे ! मैं करूँ तो क्या ?
ग़मज़दा हूँ मैं... ना-शुक़्र नहीं...
एक हाथ में काँच सी नेमतें तेरी...
दूजे में पत्थर दुनिया के.....
दुनिया को उसका अक़्स दिखा...
या मुझको ही कर दे पत्थर....!

5. काश ज़िंदगी ऐसी किताब होती......
कि जिल्द बदलने से सूरत-ए-हाल बदल जाते...
मायूस भरभराते पन्नों को कुछ सहारा मिलता....
धुंधले होते अश्आर भी चमक से जाते....
ज़िंदगी को... कुछ और जीने की वजह मिल जाती...!

6. हाथ उठाकर दुआओं में...
अक्सर  तेरी खुशी माँगी थी मैनें...
नहीं जानती थी....
मेरे हाथों की लक़ीरों से ही निकल जाएगा तू...!

7. आँखों में चमक,
दिल में अजब सा सुक़ून हो जैसे...
माज़ी के मुस्कुराते लम्हों ने...
फिर से पुकारा हो जैसे......!

देखा है कभी   एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष   इस शब्दकोष के साथ हमारे बीच हैं निखिल आनंद गिरि

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है,
जिसकी प्रेमिका मेज़ पर पड़ा ग्लोब घुमाती है
तो वो भूकंप के डर से
भागता है बाहर की ओर
पसीने से तरबतर,

बाहर खुले मैदान नहीं है...
बाहर लालची जेबें हैं लोगों की
जेब में ज़बान है और मुंह में पिस्तौलें...
बाहर कहीं आग नहीं है
मगर बहुत सारा धुंआ है..
गाड़ियों का बहुत सारा शोर है
जैसे पूरा शहर कोई मौत का कुंआ है...

मेरा परिचय एक ऐसे आदमी से है
जो शहर में अपनी पहचान बताने से डरता है
और गांव में अब कोई पहचानता नहीं है....
सिर्फ इसीलिए बचा हुआ है वह आदमी
कि नहीं हुए धमाके समय पर इस साल...
कि कुछ दिन और मिले प्यार करने को...
कुछ दिन और भूख सताएगी अभी...

उसने हाथ से ही उखाड़ लिया है
दाईं ओर का आखिरी दुखता दांत
सही समय पर दफ्तर पहुंचना मजबूरी है
और दानव डाक्टर की फीस से बचना भी ज़रूरी है....
दुखे तो दुखे थोड़ी देर आत्मा...
बहे तो बहे थोड़ी देर खून....
अपरिचित नहीं है ख़ून का रंग

अभी कल ही तो कूदा था एक स्टंटमैन
पंद्रह हज़ार करोड़ में बने एक मॉल से...
और उसकी लाश ही वापस आई थी ज़मीन पर...
पंद्रह हज़ार के गद्दे बिछे होते ज़मीन पर
तो एक स्टंटमैन बचाया जा सकता था...
मगर छोड़िए, इस बेतुकी बहस को
कविता में जगह देने से
शिल्प बिगड़ने का ख़तरा है...

तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
तो सुनिए, इस बुरे समय में...
एक डरे हुए आदमी के शब्दकोष में
लोकतंत्र किसी दूसरी ग्रह का शब्द है...
जिसका अर्थ किसी हिंदू हिटलर की मूंछ है....
और उसके दांतों से वही महफूज़ है...
जिसके शरीर पर जनेऊ है
और पीछे एक वफादार पूंछ है...

डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
सड़क पर जल उठी लाल बत्ती
एक भूखा, मासूम हाथ
काले शीशे के भीतर घुसा
भीतर बैठे कुत्ते ने काट खाया हाथ
कब कैसे पेश आना है
ख़ूब समझते हैं एलिट कुत्ते

एक डरे हुए आदमी के शब्दकोश में
गांव सिर्फ इसीलिए सुरक्षित है
कि वहां अब भी लाल बत्ती नहीं है
दरअसल उस डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
भिखारी की फटी हुई जेब है
ख़ाली हो रहे हैं दिन-हफ्ते
और भरे जाने का फरेब है...

एक डरे हुए आदमी की ज़िंदगी
उस आदिवासी औरत के पेट में
पल रहे बच्चे का पहला रुदन है...
जो गांव की सब ज़मीन बेचकर
पालकी में लादकर
उबड़-खाबड़ रास्तों से लाया गया
शहर के इमरजेंसी वार्ड में
जिसने एक बोझिल जन्म लेकर आंखे खोलीं
ख़ूब रोया और मर गया....
उस डरे हुए आदमी के दरवाज़े पर
हर घड़ी दस्तक देता बुरा समय है
जो दरवाज़ा खुलते ही पूछेगा
उसी भाषा, गांव और जाति का नाम
फिर छीन लेगा पोटली में बंधा चूरा-सत्तू
और गोलियों से छलनी कर देगा...

इस बुरे समय की सबसे अच्छी बात ये है कि
एक डरा हुआ आदमी अब भी
सुंदर कविता लिखना चाहता है...

जगा देना मुझे गर....  कहती हुई अनुलता राज नायर गर की वजह दे रही हैं =


मैं  अनुलता .. आपकी नज़र  सेगहरा रही है उदासी
थकन हद से ज्यादा
जी है उकताया सा
पलकें नींद से बोझिल....

अब बस सो जाना चाहती हूँ...
एक लंबी सी नींद.

तुम जगा देना मुझे
गर बीत जाय ये पतझर
और फूटें गुलाबी कोंपलें इन ठूँठों पर....

तुम  जगा देना मुझे
जब  समंदर खारा न रहे
और बुझा लूँ मैं प्यास,मोती खोजते खोजते....

तुम जगा देना मुझे
जिस रोज आसमां कुछ नीचा हो जाय
और चूम सकूँ मैं चाँद का चेहरा....

तुम जगा देना मुझे 
गर मैं छू सकूँ तारे, बस हाथ बढ़ा कर
और तोड़ कर सारे बिखरा दूँ आँगन में अपने..

जाने क्यूँ इन दिनों हरसिंगार भी झरता नहीं.....

जगा देना मुझे
इस युग के बीतते ही.....

कई बार .... नहीं नहीं अधिकतर - कविता सवाल लिए सामने शून्य में लिखी होती है और हम उसे कलम की निब पर पकड़ लेते हैं ... 
सवाल उठाती कविता
बचपन की तरह होती है
मासूम और निश्छल।
My Photo
वह बोलती-बतियाती है,
सबसे,
बेझिझक,
उसे पता नहीं होता
विभेद
राजा और रंक का..

पर उसके सवाल
कभी कभी
निरूत्तर कर देतें हैं
तथाकथित बौद्धिकों को भी...

भावों के परिचय के बाद मध्यांतर लेने से पहले चलते हैं वटवृक्ष की ओर जहां हिनांशु पाण्डेय उपस्थित हैं अपनी एक कविता लेकर ...यहाँ किलिक करें 

10 comments:


  1. जगा देना मुझे
    इस युग के बीतते ही....achchhi kavita ..

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
  3. तुमसे जुदा हुई.... तो कुछ मर गया था मुझमें...
    जो मर गया था....
    उसमें ज़िंदा तुम आज भी हो.....
    ...
    जगा देना मुझे
    इस युग के बीतते ही.....
    ...
    डरा हुआ आदमी सड़क पर देखता सब है
    कह पाता कुछ भी नहीं शोर में
    ...
    सवाल उठाती कविता
    बचपन की तरह होती है
    मासूम और निश्छल।
    वह बोलती-बतियाती है,
    सबसे,
    बेझिझक,
    उसे पता नहीं होता
    विभेद
    राजा और रंक का..
    ...
    सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक ...सभी रचनाकारों को बधाई सहित शुभकामनाएं
    सादर

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  4. एक से बढ़ कर एक लिंक , बेमिसाल प्रस्तुती ....
    शुभकामनाएं !!

    जवाब देंहटाएं
  5. अनु दीदी का तो मैं शुरू से ही बहुत बड़ा प्रशंसक रहा हूँ , शेष कविताएं भी बहुत सुन्दर हैं |
    अनीता जी की चौथी क्षणिका ने मुझे वो गजल याद दिला दी -
    या दुनिया के सब जख्मों पर मरहम रख दे ,
    ये मेरा दिल पत्थर कर दे , या अल्लाह |

    सादर

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  6. सभी रचनायें बहुत अच्छी !
    'एक डरे हुए आदमी का शब्दकोष' भीतर तक उतर गया ...
    मेरी क्षणिकाओं को स्थान देने का आभार !
    ~सादर !!!

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  7. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (28-12-2012) के चर्चा मंच-११०७ (आओ नूतन वर्ष मनायें) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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  8. शानदार संग्रह, शानदार रचनायें सभी रचनाकारों को बधाई---
    विशेष परिकल्पना को -------

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