आज उत्सव का सातवाँ दिन है : 
मैं रश्मि प्रभा, आज फिर आपके समक्ष उपस्थित हूँ 
अनुभवों की झुर्रियों में मीठे-तीखे -खट्टे अनुभवों के साथ 
मेरी तो केवल प्रस्तुति है, अनुभव आपका है । 

कार्यक्रम की शुरुआत करूँ उससे पहले आइए प्रख्यात साहित्यकार कामतनाथ जी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये दो मिनट का मौन रखा जाये .....चलिये चलते हैं संवेदना स्थल पर 

जब हाथ-पांव लाचार हो जाते हैं,कम सुनाई,कम दिखाई देने लगता है - नींदें कम हो जाती हैं तो समझो उम्र का वह पड़ाव आ गया - जिसे बुढ़ापा कहते हैं . बचपन,यौवन की तरह इस उम्र की भी अपनी विशेषताएं हैं .....

. अनुभवों की झुर्रियों में मीठी खट्टी तीखी कई कहानियाँ होती हैं - जिनसे बच्चों को परियां मिलती हैं,युवाओं को समतल रास्ते .... पर कोई भी बात हमेशा पूरी की पूरी खरी नहीं होती . कहीं अनुभव मात खाता है,कहीं अनुभव आजिज करने लगता है - तात्पर्य यह कि कहीं छोटे नहीं स्वीकारते तो कहीं बड़े उनकी परेशानियों,खुशियों से परे सिर्फ अपना दर्द बताते हैं . कहीं बच्चे साथ नहीं रहना चाहते,कहीं बड़े साथ नहीं चाहते ! बंधू - एक ही रिश्ते में अलग अलग लोचे होते हैं . मैंने वृद्धाश्रम को लेकर बहुत कुछ पढ़ा,चिंतन किया तो लगा - वृद्धाश्रम कोई बुरी,अटपटी जगह नहीं . एक उम्र के लोग एक जगह कम से कम एक दूसरे को अपनी बातें सुना सकते हैं,एक नयी  मित्रता का आरम्भ कर सकते ... 

रही बात उपेक्षित करने की .... तो घर के अन्दर उपेक्षित माहौल से हर पल गुजरने से बेहतर है वृद्धाश्रम का एक कोना . कहीं बड़े गलत होते हैं, कहीं बच्चे - बड़े बड़े हैं' ऐसा कहकर हम बच्चों को कुंठित करते जाते हैं,उनके विचारों को दबा देते हैं तो हम ही ज़िम्मेदार होते हैं अचानक हुए शाब्दिक भूकंप का . उपदेश देने,सुनने से बेहतर है मौन .... मौन की अभिव्यक्तियाँ बहुत कुछ कह जाती हैं,सिखा जाती हैं !!!


My Photo‘काल बेल’ की आवाज से ही नींद खुली। घड़ी देखी, अभी साढ़े छः ही बजे थे। दरवाजा खोला तो विश्वास नहीं हुआ। काका साहब सामने खड़े थे!

उन्हें कोई वाहन चलाना नहीं आता। सायकिल भी नहीं। याने, लगभग सत्तर वर्षीय काका साहब, त्रिपोलिया गेट से कोई तीन किलोमीटर पैदल चलकर, सवेरे साढ़े छः बजे मेरे यहाँ पहुँचे! मैं घबरा गया। ईश्वर करे, सब राजी-खुशी हो। मैंने प्रणाम किया। वे कुछ नहीं बोले। आशीष भी नहीं दिए। चुपचाप आकर सोफे पर बैठ गए। मेरी घबराहट बढ़ गई। मैं कुछ पूछूँ उससे पहले ही वे बोले - ‘घबरा मत। चिन्तावाली कोई बात नहीं। एक जरूरी सलाह लेने आया हूँ। तू जल्दी फारिग हो ले। जरा तसल्ली से बात करनी है।’

चिन्ता वाली कोई बात भले न हो किन्तु कोई खास बात तो है। वर्ना काका साहब इतने सवेरे क्यों आते? मेरी घबराहट जस की तस बनी रही। फुर्ती से फारिग हो, उनके पास बैठ कर सवालिया निगाहें उनके चेहरे पर गड़ा दीं। पल भर के लिए उन्होंने मेरी ओर देखा फिर शून्य की ओर ताकते हुए बोले - ‘सोचता हूँ, वृद्धाश्रम में भर्ती हो जाऊँ। तू क्या कहता है?’

मानो कोई विशाल वट वृक्ष अपनी जड़ों से उखड़ गया हो, पहले पल यही लगा मुझे उनकी बात सुनकर। मेरे हाथ-पाँव ठण्डे हो गए। मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ा।

अकबकाहट से उबरने में कुछ पल लगे मुझे। पूछा - ‘केशव और कान्ति (उनके इकलौते बेटा-बहू) से कुछ कहा सुनी हो गई क्या? उन्हें पता है कि आप यहाँ आए हैं?’ पूर्वानुसार ही मुद्राविहीन मुद्रा में बोले - ‘नहीं! नहीं! वे तो बेचारे चैबीसों घण्टे मेरी चिन्ता करते रहते हैं। उन्हें बताकर ही तेरे यहाँ आया हूँ।’ अब मेरी घबराहट तनिक कम हुई। संयत होकर पूछा - ‘तो फिर यह वृद्धाश्रम वाली बात कहाँ से आ गई?’ अब वे मेरी ओर पलटे। बोले -‘मैं घर में जरूरत से ज्यादा टोका-टोकी करने लगा हूँ। जहाँ नहीं बोलना चाहिए वहाँ भी बोलता हूँ। मैं अनुभव कर रहा हूँ कि केशव और कान्ति ही नहीं, अदिति और आदित्य (पोती-पोता) भी मेरी अकारण टोका-टोकी से परेशान रहते हैं। इसीलिए सोचता हूँ कि वृद्धाश्रम में भर्ती हो जाऊँ। कम से कम बच्चों को तो आराम मिले।’

उनके सवाल में ही मेरा सवाल निकल आया। बोला -‘जब आप समस्या का कारण और उसका निदान भी जानते हैं तो उसे दूर कर दीजिए। टोका-टोकी बन्द कर दीजिए। वृद्धाश्रम जाने की क्या जरूरत है?’ ‘यही तो नहीं होता मुझसे। रोज सवेरे उठकर प्रण लेता हूँ कि अपने काम से काम रखूँगा और बच्चों को बिलकुल नहीं टोकूँगा। किन्तु अगले ही पल प्रण-भंग हो जाता है और मेरे कारण घर में परेशानी शुरु हो जाती है।’

काका साहब ने मुझे उलझा दिया। बीहड़ में मानो पगडण्डी की तलाश कर रहा होऊँ, कुछ इस तरह से पूछा - ‘केशव को बताई आपने वृद्धाश्रमवाली यह बात? कैसा लगा यह सुनकर उसे?’ वे असहज हो गए। बोले -‘उससे पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। डर गया कि सुनकर वह कहीं कुछ कर न बैठे। इकलौते लड़के का बाप वृद्धाश्रम में रहे यह तो उसके लिए डूब मरनेवाली बात होगी।’ मुझे अब भी कुछ सूझ नहीं पड़ रहा था। बात को खींचने के लिए बोला - ‘इस विचार को तो आप खुद ही उचित नहीं मानते। मानते होते तो मुझसे पूछने के लिए इतने सवेरे तकलीफ क्यों उठाते?’ वे चुप रहे। उनकी चुप्पी ने मेरा आत्म विश्वास बढ़ाया। मैं ठीक दिशा में जा रहा था।

अंगुली से आगे बढ़कर पहुँचा पकड़ते हुए मैंने कहा - ‘वृद्धाश्रम में टोका-टोकी नहीं करेंगे?’ उनके चेहरे पर उलझन उभर आई। भरे कण्ठ से बोले -‘वहाँ कौन है सुननेवाला? वहाँ तो सुननी ही सुननी है। झख मारकर चुप रहना पड़ेगा।’ रुँआसा तो मैं भी हो गया किन्तु अब मुझे रास्ता नजर आने लगा। तनिक रूखे स्वरों में कहा - ‘यह तो कोई बात नहीं हुई। परायों, अनजानों के साथ तो आप समझौते करने को, सहयोग करने को तैयार हैं और अपनेवालों के साथ नहीं? परायों को सहयोग और अपनेवालों पर अत्याचार। खुद आपको अजीब नहीं लगता यह सब?’ अब वे फर्श की ओर देखने लगे। नजरें झुकाए बोले -‘जानता था कि तू यही कहेगा। किन्तु मैं क्या करूँ? जानता हूँ कि अपनेवाले हैं, सो, जो भी कहूँगा, सुन लेंगे। मुझसे रहा नहीं जाता और अपनेवालों पर अत्याचार कर देता हूँ।’

बड़ी विचित्र स्थिति थी। ऐसे में क्या सलाह दी जाए? मैंने तनिक साहस कर कहा - ‘काका साहब! वृद्धाश्रम जाने के बजाय आप अपने मन में ही वृद्धाश्रम क्यों नहीं बसा लेते? आप तो ज्ञानी भी हैं और अनुभवी भी। थोड़ी मुश्किल तो होगी किन्तु आप चाहेंगे तो सब कुछ हो जाएगा। वृद्धाश्रम जाने के बजाय वृद्धाश्रम को ही घर ले आइए। जब भी टोकने की इच्छा मन में उठे तब याद रखने की और याद करने की कोशिश कीजिए कि आप वृद्धाश्रम में हैं। इस वृद्धाश्रम में आपको शिकायत का कोई मौका शायद ही मिलेगा और बेटे-बहू और पोती-पोते का सुख तो मिलेगा ही।’

ऐसा लगा, उन्हें मेरी बात जँच गई। कुछ इस तरह बोले मानो अपने आप को तौल रहे हों -‘तेरी बात गले उतरती तो है। कोशिश करने में कोई हर्ज भी तो नहीं। वैसे भी घर में बड़ा तो मैं ही हूँ। हर कोई मुझसे ही समझदारी की उम्मीद करेगा। यदि कामयाब हुआ तो स्थितियाँ बेहतर ही होंगी। यदि नहीं हो पाया तो बदतर तो क्या होंगी? तुझसे मिलने का यह फायदा तो हुआ।’ सुन कर मुझे रोना आ गया। लगा, मैं केशव की जगह हूँ और मेरे पिता वृद्धाश्रम जाने के अपने निर्णय की निरस्ती की सूचना मुझे दे रहे हैं। मेरी दशा देखकर वे मुस्कुराए। मेरी टप्पल (माथे) पर चपत लगा कर बोले -‘तू तो गया काम से। चाय के लिए बहू को मैं ही बोल देता हूँ।’ उन्होंने मेरी उत्तमार्द्ध को आवाज लगाई -‘बेटाजी! मुझे और तुम्हारे इस निखट्टू पति को चाय पिला देना।’

मैं रसोई घर में पतीली और कप प्लेट की आवाज सुनने की आशा/अपेक्षा कर रहा था। वे आवाजें आईं तो जरूर किन्तु उनसे पहले मेरी उत्तमार्द्ध की सिसकियों ने रसोई घर पर कब्जा कर रखा था।

दर्जनों बूढी आँखें 
थक गयी हैं 
My Photoपथ निहारते हुए 
कि शायद 
उस बड़े फाटक से 
बजरी पर चलता हुआ 
कोई अन्दर आए 
और हाथ पकड़ 
चुपचाप खड़ा हो जाये 
कान विह्वल हैं 
सुनने को किसी 
अपने की पदचाप 
चाहत है बस इतनी सी 
कि आ कर कोई कहे 
हमें आपकी ज़रुरत है 
और हम हैं आपके साथ 
पर अब 
उम्मीदें भी पथरा गयी हैं 
अंतस कि आह भी 
सर्द हो गयी है 
निराशा ने कर लिया है 
मन में बसेरा 
अब नहीं छंटेगा 
अमावस का अँधेरा 
ये मंज़र है उस जगह का 
जहाँ बहुत से बूढ़े लोग 
पथरायी सी नज़र से 
आस लगाये जीते हैं 
जिसे हम जैसे लोग 
बड़े सलीके से 
वृद्धाश्रम कहते हैं........

हर बढ़ते कदम
उम्र की उस चौखट तक
My Photoपहुँचा देते हैं
जहाँ से लौट नही सकते
बस रह जाती हैं यादें,
और अनुभवों की एक भारी सी गठरी
बहुत कुछ कहने का मन करता है
पर सुनने वाला कोई नहीं
नितांत अकेला खालीपन लिये
सफर बोझिल सा लगता है
पर जीने की चाह नहीं मिटती
निढ़ाल शरीर, लड़खड़ाते कदम
आँखों में अपनों की चाहत लिए
आशीष लुटाते,
हमारे बुजुर्ग..
जिन्हें बेकार और बोझ समझ
किसी कोने में रख,भुला दिया जाता है
क्या सच हैं..?
 बुढ़ापा ! एक बोझ है..
परिवार के लिए..
एक अवरोधक
इस प्रगतिशील समाज के लिए ..
सोचो !..सोचो जरा..
मनन करो
कुछ विचारो
क्यों कि..
 कल हमें भी
उसी चौखट से गुजरना है

हमारे बुजुर्ग और हम, समाज को आईना दिखाते शब्द(सजीव सारथी)





आज की कड़ी का विषय है "हमारे बुजुर्ग और हम". एक बेहद ही संवेदनशील विषय है और हमारे कवि मित्रों की संवेदनाएँ बेहद मार्मिक रूप से उभर 
कर आई हैं, पूरे परिवार के साथ सुनिए इस पोडकास्ट को, आवाजें है शेफाली गुप्ता और अभिषेक ओझा की. स्क्रिप्ट है विश्व दीपक की, संचालन 
रश्मि प्रभा और वंदना गुप्ता का, प्रस्तुति है अनुराग शर्मा और सजीव सारथी का. तो दोस्तों सुनिए सुनाईये और छा जाईये...


(नीचे दिए गए प्लेयेर से सुनें) =



 या फिर यहाँ से डाउनलोड करें 

बुजुर्ग हमारे परिवार के प्राण है प्रतिष्ठाता है
बुजुर्ग हमारे माता पिता है अधिष्ठाता है 
बुजुर्ग संस्कारो की विरासत है नैतिकता की पहचान है
बुजुर्गो के बिना परिवार को कहा मिल पाया सम्मान है
बुजुर्ग अनुभव की खुली हुई किताब है
बौद्धिकता के धरातल पर स्मृतिया बेहिसाब है
My Photoबुजुर्ग हमारे सरंक्षक है अभिभावक है
स्नेह पाते है बच्चे खेलते कूदते शावक है
बुजुर्ग परिवार के गौरव ,कुल के अभिमान है
उनकी उपस्थिति मात्र ही देती है गरिमा बढ़ा देती मान है 
बुजुर्ग वक्त की ईबारत है
दीर्घायु मे बसता बुढा भारत है 
उनके बालो की सफेदी सूक्ष्म अनुभूतियो का द्योतक  है
झुरिर्यो भरे चेहेरे से ताकता समय का समालोचक है
बुजुर्ग परिवार के ताज है
बीता हुआ  कल है वर्तमान है आज है
बुजुर्गो  की वेदना को समझना अनिवार्य है
बुजुर्ग वह सीढी है जिन पर चढ़े बड़े और बने हम आर्य  है
कहते है शास्त्र मत करो घर के बडो बुढो की उपेक्षा
हर आदमी को मिलती है जीवन मे एक बार बुढापे की कक्षा
इसलिये बुजुर्गो की भूमिका समाज और देश के हित मे है
बुजुर्ग सदा हमारे साथ रहे उनके साथ से हम जीत मे है
बुढापा जीवन का वेद है उपनिषद है,धर्म है पुराण है
तरूणाई की ताकत और जीवन के अनुभव से होता कल्याण है 
  बुजर्ग इन्सान अपनी भूमिका स्वयम जानता है
समस्या के जनक और  समाधान को वह खूब अच्छी तरह जानता है
बुजुर्ग व्यक्ति समाज और परिवार के लिये वरदान है
बुजुर्गो को दे उचित आदर  इसका हमे रहे ज्ञान है
इसलिए बुजुर्ग माता पिता को कभी मत सताओ 
उनकी आँखों में तैरते है कई सपने उन्हें सजाओ

अब समय हो गया है  कि एक अल्प विराम लिया जाये, किन्तु वटवृक्ष पर हरिहर झा जी की प्रस्तुति के बाद, क्योंकि हरिहर झा जी लेकर उपस्थित है एक कविता : भूतपूर्व पत्नी की शादी का निमन्त्रण 

9 comments:

  1. एक बेहद संवेदनशील विषय और उस पर सबके विचार पढ एक सोच को बढावा मिला और हल भी यही है सार्थक लेखन …………बहुत सुन्दर

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  2. जड़ों से जुड़े रहना ....ज़मीन से जुड़े रहना ...बहुत सार्थक संदेश देती रचनाएँ ....
    उत्कृष्ट चयन ....रश्मि दी ...

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  3. विष्णु जी की कहानी बहुत सार्थक रही ... आभार इस प्रस्तुति के लिए

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  4. बेहद सार्थक विषय और उस पर चुनी हुई कुछ चुनिन्दा रचनाएं | बहुत सुन्दर |

    सादर

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  5. सार्थकता लिये सशक्‍त लेखन ... एवं प्रस्‍तुति

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  6. वृध्दाश्रम एक विकल्प हो सकता है, रोज रोज की किट किट से तो अच्छा यही है । यह विकल्प हम खुद ही चुनें तो अच्छा है । अपने हमउम्र लोगों के साथ वक्त बितायें कविताएं लिखें सुनायें किताबें साझा करें । कंप्यूटर सिखायें सीखें । इतना बुरा भी नही होता बुढापा । जिस वक्त के लिये हम तरसते हैं वह कितना सारा होता है अब हमारे पास ।

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  7. वृध्दाश्रम एक विकल्प हो सकता है, रोज रोज की किट किट से तो अच्छा यही है । यह विकल्प हम खुद ही चुनें तो अच्छा है । अपने हमउम्र लोगों के साथ वक्त बितायें कविताएं लिखें सुनायें किताबें साझा करें । कंप्यूटर सिखायें सीखें । इतना बुरा भी नही होता बुढापा । जिस वक्त के लिये हम तरसते हैं वह कितना सारा होता है अब हमारे पास ।

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