समाज टकटकी लगाये देख रहा अपने दायरे को 
भीड़ विमुख भाव से कह रही - 'ऐसे ही जीना है - जियो !'
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इस भीड़ के चेहरे अपने हैं 
पर रुकते ही नहीं सुनने को 
परेशानियां अपनी अपनी हैं 
मुसीबतें बंदूक लिए खडी है 
- कब तक खैर मनाये कोई !!!



रश्मि प्रभा 
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सुयश सुप्रभ  http://anuvaadkiduniya.blogspot.in/

My Photoमैं इस सवाल का जवाब ढूँढ़ रहा हूँ कि दिल्ली में गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ देने वाले अधिकतर कांग्रेसी नेताओं के चेहरे परतदार क्यों होते हैं। एक परत के नीचे दूसरी परत, दूसरी के नीचे तीसरी, तीसरी के नीचे चौथी, चौथी के नीचे पाँचवीं... पता नहीं ये परतें राजनीति से पैदा होती हैं या आराम से बैठकर खाने से। इन चमकते-दमकते चेहरों को देखकर ऐसा लगता है कि हमारा देश गंधर्वों से भरा पड़ा है। मुझे ऐसा लग रहा है कि आज के दिन खुश होना एक ऐसा नैतिक दायित्व है जिसे पूरा न करने पर आप सभी संविधानप्रेमियों के निशाने पर आ सकते हैं। मैं जिस तंत्र में अपने गण को ही नहीं देख पाता हूँ उसके लिए कूदने-चिल्लाने को मैं बेकार काम मानता हूँ। मैं सोचने-समझने के बाद पैदा होने वाले दुख को झूठी या आधारहीन खुशी से हमेशा बेहतर मानता आया हूँ। और यह किसने कहा कि हम गम इंसान को मार ही डालता है! 


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My Photo                     ये प्रश्न सिर्फ मेरे मन में ही उठा है या और भी लोगों के मन में उठा होगा ये तो मैं नहीं जानती लेकिन अपने समाज और युवाओं के बढते हुए आधुनिकता के दायरे में आकर वे उन बातों को बेकार की बात समझने लगे हैं ,जिन्हें ये दकियानूसी समाज सदियो से पालता  चला आ रहा है। 

                    आज के लडके और लड़कियाँ 'लिव इन रिलेशन ' को सहज मानने लगे हैं और सिर्फ वही क्यों ? अब तो हमारा क़ानून भी इसको स्वीकार करने में नहीं हिचक रहा है। उसके बाद जब तक एक दूसरे को झेल सके झेला और फिर उस रिश्ते को छोड़ने पर 'ब्रेक अप ' का नाम देकर आगे बढ़ लिए . दोनों के लिए फिर से नए विकल्प खुले होते हैं। कहीं कोई प्रश्न खड़ा नहीं होता है सब कुछ सामान्य होता है। फिर यही लोग घर वालों की मर्जी से शादी करके अपने नए घर बसा कर रहने लगते हैं। 

                   इस समाज में अगर एक लड़की बलात्कार का शिकार हो जाती है तो उस पीड़िता को  समाज में  हेय दृष्टि से देखा जाता है जब कि उसमें कहीं भी वह दोषी नहीं होती है . वास्तव में इस काम के लिए दोषी लोगों को तो समाज सहज ही क्षमा करके भूल भी जाता है और वे अपने घर के लिए या तो पहले से एक लड़की ला चुके होते हैं या फिर इसी समाज के लोग उनके लिए अपनी लड़की लेकर खड़े होते हैं। इसके पीछे कौन सी सोच है? इस बात को हम आज तक समझ नहीं पाए हैं। 

                    और उस पीडिता को कोई भी सामान्य रूप से विवाहिता बना कर अपने जीवन में लेने की बात सोच नहीं सकता है (वैसे अपवाद इसके भी मिल जाए हैं। ) आखिर इस हादसे में उस लड़की का गुनाह क्या होता है ? और क्यों उसको इसकी सजा मिलती है? वैसे तो अगर इस बात को गहरे से देखें तो सब कुछ सामने है कि  हमारे समाज में अब विवाह-तलाक-विवाह को हम स्वीकार करने लगे हैं . हमारी सोच इतनी तो प्रगतिशील हो चुकी है। हम विधवा विवाह को भी समाज में स्वीकार करने लगे हैं लेकिन फिर भी इस पीडिता में ऐसा कौन सा दोष आ जाता है कि  हम परित्यक्ता से विवाह की बात , विधवा से विवाह की बात तो स्वीकार कर रहे हैं  , उसमें भी वह लड़की किसी और के साथ वैवाहिक जीवन व्यतीत कर चुकी होती है भले ही उसकी परिणति दुखांत रही हो   हम उस लड़की को स्वीकार करते हुए देखे जा रहे हैं। लेकिन एक ऐसी लड़की जो न तो वैवाहिक जीवन जी चुकी होती है और न ही वह मर्जी से इस काम में शामिल होती है फिर भी वह इतनी बड़ी गुनाहगार होती है कि कोई भी सामान्य परिवार उसको बहू के रूप में स्वीकार करने का साहस करते  नहीं देखा सकता है। 

                एक बलात्कारी सामान्य जीवन जी सकता है और समाज में वही सम्मान भी पा  लेता है। लेकिन एक पीड़िता  उसके दंश को जीवन भर सहने के लिए मजबूर होती है। मैं अपने से और आप सभी से इस बारे में सोचने और विचार करने के लिए कह रही हूँ कि एक परित्यक्ता  या विधवा से विवाह करने में और एक पीड़िता से विवाह करने में क्या फर्क है? दामिनी के साथ हुए अमानवीय हादसे के बाद पूरे देश में युवा लोग उसके लिए न्याय की गुहार के लिए खड़े हैं और दूसरे लोग उसमें दोष निकाल  रहे हैं या फिर लड़कियों के लिए नए आचार संहिता को तैयार करने की बात कर रहे हैं। उस घटना के बाद देश में ऐसी घटनाएँ बंद नहीं हुई बल्कि और बढ़ गयी हैं या कहें बढ़ नहीं गयीं है बल्कि पुलिस की सक्रियता से सामने आने शुरू हो गये है। अब सवाल हमारा अपने से है और युवा पीढी से है कि  क्या वह ऐसी पीडिता से विवाह करने के लिए खुद को तैयार कर सकेंगे। वे न्याय के लिए लड़ रहे हैं लेकिन इस अन्याय का शिकार लड़कियाँ क्या जीवन भर अभिशप्त जीवन जीने के लिए मजबूर रहेंगी। समाज इस दिशा में भी सोचे - ये नहीं कि वे पीडिता हैं तो उन मासूम बच्चियों को कोई चार बच्चों का बाप सिर्फ इस लिए विवाह करने को तैयार हो जाता है क्योंकि  उसको एक जवान लड़की मिल जायेगी और उसके चार बच्चों को पालने  के लिए एक आया भी। एक तो वह वैसे भी अभिशप्त और दूसरे उसको जीवन एक नयी सजा के रूप में सामने आ जाता है। अब इस समाज को इसा दिशा में भी सोचना होगा कि  इन्हें एक सामान्य जीवन देने की दिशा में भी काम करना चाहिए . पीडिता को रहत देने वाले इस काम को भी करने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा। 

                   इस विषय में आप सबके विचार आमंत्रित हैं और सुझाव भी कि ऐसा क्यों नहीं सोचा गया है या क्यों नहीं सोचा जा सकता है ?

रेखा श्रीवास्तव 

1 comments:

  1. ्क्योंकि अभी सिर्फ़ कहने भर को हम आधुनिक हैं मगर अन्दर से वो ही जड सोच है तो ऐसे समाज से कैसे उम्मीद की जा सकती है इतने बडे बदलाव की, इतनी बडी क्रांति की

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