(दामिनी - एक नाम नहीं , अपनी ही आत्मा है - कभी हम उसे जीते हैं,कभी उसे थाम लेते हैं  )

विलाप से क्या होगा ?
क्या हुआ है?
विलाप - कोई प्रथा नहीं है 
जिसे निभाकर चल देना है 
ना ही इन हादसों के लिए किसी रुदाली की ज़रूरत है !!!
पत्थर भी पिघलता है 
तुम तो .................. इंसान हो 
इंसानियत दिखाओगे ही 
घर सबका होता है 
आग लगाने से पहले सोचना 
सब दिन न होत एक सामान 
और जैसा करोगे वैसा ही अपने वंश को दे जाओगे .......

रश्मि प्रभा 



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दामिनी तुम जिंदा हो

दामिनी तुम जिंदा हो
हर औरत का हौंसला बनकर
न्याय की आवाज़ बनकर
वक्त की ज़रूरत बनकर
My Photoआस्था की पुकार बनकर
एकता की मिसाल बनकर
तुम लाखों दिलों में जिंदा हो
न्याय की उम्मीद बनकर
तुम जीवित हो दामिनी
हम सब के अंदर विश्वास बनकर

दामिनी
हमें तुम पर नाज़ है 
व्यर्थ नहीं जाएगा
तुम्हारा बलिदान
यह इंसाफ़ की आवाज़ बनकर
सड़कों से सत्ता की गलियारों तक
फुटपाथ से लेकर महलों तक
दब चुकी
या दबा दी गई
जुबाँ का राज़ खोलेगा
हर दामिनी के आँसुओं की कीमत 
दर्द का इलाज़
खून के एक एक बूँद का हिसाब
और अधिकारों का जवाब मागेगा

तुमने जो सहा दामिनी 
उसे पूरे  देश ने महसूस किया
अब ये हमारा दायित्व है
तुम्हें इंसाफ़ मिले
तुम जैसी हर दामिनी को इंसाफ़ मिले
और सबक मिले
ऐसे लोगों को
जो कभी
सत्ता के नशे में
कभी शराब के नशे में
तो कभी
ताकत के ज़ोर पर  
अपनी मर्दानगी का रौब दिखाते हैं
उन्हें सबक मिलकर रहेगा

दामिनी बादल छंटने को हैं
नई सुबह आने को है
वो आकर रहेगी
हमारा संकल्प पक्का है 
वह डगमगाएगा नहीं
झुकेगा नहीं
हारेगा नहीं

दामिनी
तुम हमारी हिम्मत बनकर
अन्याय को ललकारती रहोगी
हम सबके बीच
अपने होने का एहसास कराओगी
तुमने हम सबको
पूरे देश को जोड़ दिया है
एक कर दिया है
अब लोग
छोटा-बड़ा, गरीब-अमीर
ऊँच-नीच, जाति धर्म भूलकर
एक हो चुके हैं
तुमने बता दिया                      
हमारी ज़रूरतें एक हैं
हमारा दर्द एक है
हमारे विचार एक है
हमारी आवाज़ें एक है
हमारा जज़्बा एक है
आँसुओं का सबब एक है
हमें इंसाफ़ भी एक चाहिए 
सिर्फ ओ सिर्फ एक
सजा ए मौत..

नादिर खान 

.....तूने मुझे शर्मसार किया ...

'पुत्रवती भव'
रोम रोम हर्षित हुआ था -
जब घर के बड़ों ने -
My Photoमुझ नव-वधु को यह आशीष दिया था -
कोख में आते ही -
तेरी ही कल्पनाओं में सराबोर!
बड़ी बेसब्री से काटे थे वह नौ महीने ...
तू कैसा होगा रे-
तुझे सोच सोच भरमाती सुबह शाम!
बस आजा तू यही मनाती दिन रात ......
गोद में लेते ही तुझे-
रोम रोम पुलक उठा था -
लगा इश्वर ने मेरी झोली को आकंठ भर दिया था !!
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आज.....
तूने ...मेरी झोली भर दी !
शर्म से...
उन गालियों से-
जो हर गली हर मोड़ पर बिछ रही हैं ...
उस धिक्कार से -
जो हर आत्मा से निकल रही है ...
उस व्यथा से -
जो हर पीडिता के दिल से टपक रही है ...
उन बददुआओंसे -
जो मेरी कोख पर बरस रही हैं ....!

मैंने तो इस इंसान जना था -
फिर - यह वहशी !
कब ,क्यूँ , कैसे हो गया तू ...

आज मेरी झोली में 
नफरत है -
घृणा है -
गालियाँ हैं -
तिरस्कार है - जो लोगों से मिला -
ग्लानि है -
रोष है - 
तड़प है- 
पछतावा है-
जो तूने दिया !!!
जिसे माँगा था इतनी दुआओंसे -
वही बददुआ बन गया !

तूने सिर्फ मुझे नहीं -
' माँ' - शब्द को शर्मसार किया .....

सरस दरबारी 

लिखने से अच्छी है ख़ामोशी ,

केवल शब्दों 
और अक्षरों के सहारे
व्यक्त नही करना चाहता 
आक्रोश ,संवेदनाएं 
My Photo
चाहता हूँ 
वे सभी अक्षर और शब्द 
जो उबल रहे हैं 
मेरे और आपके भीतर 
क्रांति बनकर बाहर आयें 

वे सभी 
जो केवल झंडा लेकर कर रहे हैं 
बदलाव की मांग 
मैं देखना चाहता हूँ 
बदलाव उनकी भाषा की व्याकरण में 

औपचारिकता के नाम पर 
लिखने से अच्छी  है 
ख़ामोशी ,
खामोश मनुष्य के भीतर भी दबी रहती है 
एक बीज कविता ......

नित्यानंद गायेन 

यह आग फैलनी चाहिए – 
१)
 हे सृजनहार 

My Photoहे सृजनहार 
पूछती हूँ मैं
एक सवाल
क्यों लिख दी 
जन्म के साथ
मेरी हार ?

सौंदर्य के नाम पर
दी मुझे दुर्बलता
सौंदर्य का पुजारी
कैसी बर्बरता !
इंसां के नाम पर
बनाए दरिंदे
पुरूष बधिक
हम परिंदे
नोचे-खसोटें
तन, रूह भी लूटें
आ देख
कैसे, कितना हम टूटे !


२) इनकार है

सदियों से रिसी है
अंतस में ये पीड़
स्त्रीे संपत्ति
पुरूष पति
हारा कभी जुए में
हरा सभा में चीर
कभी अग्निपरीक्षा
कभी वनवास
कभी कर दिया सती
कभी घोटी भ्रूण में साँस

क्यों स्वीकारा
संपत्ति्, जींस होना
उपभोग तो वांछित था
कह दे
लानत है 
इस घृणित सोच पर
इनकार है
मुझे संपत्ति  होना

तलाश अपना आसमां
खोज अपना अस्तित्वत
अब पद्मि नी नहीं
लक्ष्मी बनना होगा
जौहर में स्वदाह नहीं
खड्ग  ले जीना होगा

३)
शस्त्र ही तेरा शृंगार

हर शब्द हुंकार है
हर शब्द ललकार
शक्ति् का निनाद है
बदलाव का शंखनाद

बहुत सहे आघात
करना है प्रतिघात
कुंकुम, महावर नहीं
शस्त्र ही तेरा शृंगार

दामिनी की तरह
हर स्त्री  को लड़ना है
नहीं मुँह ढाँप
अनाचार सहना है

केवल नारे, मोमबत्ती नहीं
अब लड़ कर दिखाना है 
काल हूँ तेरी
हर वहशी को बताना है

- सुशीला श्योराण  ‘शील’

5 comments:

  1. सभी रचनाएँ दिल को छू गयीं...!
    दामिनी हमेशा हमारे दिलों मे ज़िंदा रहेगी एक मिसाल बनकर-उसकी ज़िंदगी अनमोल है, वो अमर है! हमारे इरादों की शक्ति है , हमारे दिलों में धधकती आग है...
    ~सादर!!!

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  2. सभी रचनाएँ भावपूर्ण ..सार्थक प्रयास .शुक्रिया आप सभी का

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  3. कोई गम्भीर तो कोई मर्मस्पर्शी ....किंतु सभी एक प्रतिज्ञा के साथ समाज को प्रेरित करती हुयीं .... हमारे उत्तरदायित्वों और प्रतिबद्धता को पुनः रेखांकित करती हुयीं।
    दामिनी तो अपना उद्देश्य पूरा करके चली गयी, अब हमें अपने उद्देश्य को परिणाम तक पहुँचाना है। यह आग जलती रहनी चाहिये। सभी संवेदनशील हृदयों और उनकी लेखनी को मेरा विनम्र नमन!

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