जयशंकर प्रसाद आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है। वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक चाव से पढते हैं। इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की। 

उन्हें 'कामायनी' पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था। उन्होंने जीवन में कभी साहित्य को अर्जन का माध्यम नहीं बनाया, अपितु वे साधना समझकर ही साहित्य की रचना करते रहे। कुल मिलाकर ऐसी विविध प्रतिभा का साहित्यकार हिंदी में कम ही मिलेगा जिसने साहित्य के सभी अंगों को अपनी कृतियों से समृद्ध किया हो। प्रसाद ने काव्यरचना व्रजभाषा में आरंभ की और धीर-धीरे खड़ी बोली को अपनाते हुए इस भाँति अग्रसर हुए कि खड़ी बोली के मूर्धन्य कवियों में उनकी गणना की जाने लगी और वे युगवर्तक कवि के रूप में प्रतिष्ठित हुए।

उनकी काव्य रचनाएँ दो वर्गो में विभक्त है : काव्यपथ अनुसंधान की रचनाएँ और रससिद्ध रचनाएँ। आँसू, लहर तथा कामायनी दूसरे वर्ग की रचनाएँ हैं। इस समस्त रचनाओं की विशेषताओं का आकलन करने पर हिंदी काव्य को प्रसाद जी की निम्नांकित देन मानी जा सकती है।

उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। उनकी सर्वप्रथम छायावादी रचना 'खोलो द्वार' 1914 ई. में इंदु में प्रकाशित हुई। वे छायावाद के प्रतिष्ठापक ही नहीं अपितु छायावादी पद्धति पर सरस संगीतमय गीतों के लिखनेवाले श्रेष्ठ कवि भी हैं। उन्होंने हिंदी में 'करुणालय' द्वारा गीत नाट्य का भी आरंभ किया। उन्होंने भिन्न तुकांत काव्य लिखने के लिये मौलिक छंदचयन किया और अनेक छंद का संभवत: उन्होंने सबसे पहले प्रयोग किया। उन्होंने नाटकीय ढंग पर काव्य-कथा-शैली का मनोवैज्ञानिक पथ पर विकास किया। साथ ही कहानी कला की नई टेकनीक का संयोग काव्यकथा से कराया। प्रगीतों की ओर विशेष रूप से उन्होंने गद्य साहित्य को संपुष्ट किया और नीरस इतिवृत्तात्मक काव्यपद्धति को भावपद्धति के सिंहासन पर स्थापित किया।

काव्यक्षेत्र में प्रसाद की कीर्ति का मूलाधार 'कामायनी' है। खड़ी बोली का यह अद्वितीय महाकव्य मनु और श्रद्धा को आधार बनाकर रचित मानवता को विजयिनी बनाने का संदेश देता है। यह रूपक कथाकाव्य भी है जिसमें मन, श्रद्धा और इड़ा (बुद्धि) के योग से अखंड आनंद की उपलब्धि का रूपक प्रत्यभिज्ञा दर्शन के आधार पर संयोजित किया गया है। उनकी यह कृति छायावाद ओर खड़ी बोली की काव्यगरिमा का ज्वलंत उदाहरण है। सुमित्रानंदन पंत इसे 'हिंदी में ताजमहल के समान' मानते हैं। शिल्पविधि, भाषासौष्ठव एवं भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से इसकी तुलना खड़ी बोली के किसी भी काव्य से नहीं की जा सकती है।

कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढंग की कहानियों के आरंभयिता माने जाते हैं। सन्‌ 1912 ई. में 'इंदु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हुई। प्राय: तभी से गतिपूर्वक आधुनिक काहनियों की रचना हिंदी मे आरंभ हुई। प्रसाद जी ने कुल 72 कहानियाँ लिखी हैं। उनकी अधिकतर कहानियों में भावना की प्रधानता है किंतु उन्होंने यथार्थ की दृष्टि से भी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ लिखी हैं। उनकी वातावरणप्रधान कहानियाँ अत्यंत सफल हुई हैं। उन्होंने ऐतिहासिक, प्रागैतिहासिक एवं पौराणिक कथानकों पर मौलिक एवं कलात्मक कहानियाँ लिखी हैं। भावना-प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ लिखी हैं। भावना प्रधान प्रेमकथाएँ, समस्यामूलक कहानियाँ, रहस्यवादी, प्रतीकात्मक और आदर्शोन्मुख यथार्थवादी उत्तम कहानियाँ, भी उन्होंने लिखी हैं। ये कहानियाँ भावनाओं की मिठास तथा कवित्व से पूर्ण हैं।

प्रसाद ने आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो भावात्मक, कुल 13 नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक घूँट' को छोड़कर ये नाटक मूलत: इतिहास पर आधृत हैं। इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री ली गई है। वे हिंदी के सर्वश्रेष्ठ नाटककार हैं। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना इतिहास की भित्ति पर संस्थित है।

उनकी कुछ चर्चित रचनाएँ .....


बीती विभावरी जाग री !
          अम्बर पनघट में डुबो रही-
          तारा-घट ऊषा नागरी ।

खग-कुल कुल-कुल-सा बोल रहा,
किसलय का अंचल डोल रहा,
          लो यह लतिका भी भर ला‌ई-
          मधु मुकुल नवल रस गागरी ।

अधरों में राग अमंद पिए,
अलकों में मलयज बंद किए-
          तू अब तक सो‌ई है आली !
          आँखों में भरे विहाग री ।


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ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
                           जिस निर्जन में सागर लहरी,
                        अम्बर के कानों में गहरी,
                    निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
                   तज कोलाहल की अवनी रे ।
                 जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
              ढीली अपनी कोमल काया,
           नील नयन से ढुलकाती हो-
        ताराओं की पाँति घनी रे ।

                           जिस गम्भीर मधुर छाया में,
                        विश्व चित्र-पट चल माया में,
                     विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
                  दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।
               श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
            जहाँ सृजन करते मेला से,
         अमर जागरण उषा नयन से-
      बिखराती हो ज्योति घनी रे !

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कामायनी से -

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह 
एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।

नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन, 
एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन।

दूर दूर तक विस्तृत था हिम, स्तब्ध उसी के हृदय समान, 
नीरवता-सी शिला-चरण से, टकराता फिरता पवमान।

तरूण तपस्वी-सा वह बैठा, साधन करता सुर-श्मशान, 
नीचे प्रलय सिंधु लहरों का, होता था सकरूण अवसान।

उसी तपस्वी-से लंबे थे, देवदारू दो चार खड़े, 
हुए हिम-धवल, जैसे पत्थर, बनकर ठिठुरे रहे अड़े।

अवयव की दृढ मांस-पेशियाँ, ऊर्जस्वित था वीर्य्य अपार, 
स्फीत शिरायें, स्वस्थ रक्त का, होता था जिनमें संचार। 

चिंता-कातर वदन हो रहा, पौरूष जिसमें ओत-प्रोत, 
उधर उपेक्षामय यौवन का, बहता भीतर मधुमय स्रोत। 

बँधी महावट से नौका थी, सूखे में अब पड़ी रही, 
उतर चला था वह जल-प्लावन, और निकलने लगी मही। 

निकल रही थी मर्म वेदना, करूणा विकल कहानी सी, 
वहाँ अकेली प्रकृति सुन रही, हँसती-सी पहचानी-सी। 

"ओ चिंता की पहली रेखा, अरी विश्व-वन की व्याली, 
ज्वालामुखी स्फोट के भीषण, प्रथम कंप-सी मतवाली। 

हे अभाव की चपल बालिके, री ललाट की खलखेला 
हरी-भरी-सी दौड़-धूप, ओ जल-माया की चल-रेखा।

इस ग्रहकक्षा की हलचल- री तरल गरल की लघु-लहरी, 
जरा अमर-जीवन की, और न कुछ सुनने वाली, बहरी। 

अरी व्याधि की सूत्र-धारिणी- अरी आधि, मधुमय अभिशाप 
हृदय-गगन में धूमकेतु-सी, पुण्य-सृष्टि में सुंदर पाप। 

मनन करावेगी तू कितना? उस निश्चित जाति का जीव 
अमर मरेगा क्या? तू कितनी गहरी डाल रही है नींव। 

आह घिरेगी हृदय-लहलहे, खेतों पर करका-घन-सी, 
छिपी रहेगी अंतरतम में, सब के तू निगूढ धन-सी। 

बुद्धि, मनीषा, मति, आशा, चिंता तेरे हैं कितने नाम 
अरी पाप है तू, जा, चल जा, यहाँ नहीं कुछ तेरा काम। 

विस्मृति आ, अवसाद घेर ले, नीरवते बस चुप कर दे, 
चेतनता चल जा, जड़ता से, आज शून्य मेरा भर दे।" 

"चिंता करता हूँ मैं जितनी, उस अतीत की, उस सुख की, 
उतनी ही अनंत में बनती जात, रेखायें दुख की। 

आह सर्ग के अग्रदूत, तुम असफल हुए, विलीन हुए, 
भक्षक या रक्षक जो समझो, केवल अपने मीन हुए। 

अरी आँधियों ओ बिजली की, दिवा-रात्रि तेरा नतर्न, 
उसी वासना की उपासना, वह तेरा प्रत्यावत्तर्न। 

मणि-दीपों के अंधकारमय, अरे निराशा पूर्ण भविष्य 
देव-दंभ के महामेध में, सब कुछ ही बन गया हविष्य। 

अरे अमरता के चमकीले पुतलो, तेरे ये जयनाद 
काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि, बन कर मानो दीन विषाद। 

प्रकृति रही दुर्जेय, पराजित, हम सब थे भूले मद में, 
भोले थे, हाँ तिरते केवल सब, विलासिता के नद में। 

वे सब डूबे, डूबा उनका विभव, बन गया पारावार 
उमड़ रहा था देव-सुखों पर, दुख-जलधि का नाद अपार।" 

"वह उन्मुक्त विलास हुआ क्या, स्वप्न रहा या छलना थी 
देवसृष्टि की सुख-विभावरी, ताराओं की कलना थी। 

चलते थे सुरभित अंचल से, जीवन के मधुमय निश्वास, 
कोलाहल में मुखरित होता, देव जाति का सुख-विश्वास। 

सुख, केवल सुख का वह संग्रह, केंद्रीभूत हुआ इतना, 
छायापथ में नव तुषार का, सघन मिलन होता जितना। 

सब कुछ थे स्वायत्त,विश्व के-बल, वैभव, आनंद अपार, 
उद्वेलित लहरों-सा होता, उस समृद्धि का सुख संचार। 

कीर्ति, दीप्ती, शोभा थी नचती, अरूण-किरण-सी चारों ओर, 
सप्तसिंधु के तरल कणों में, द्रुम-दल में, आनन्द-विभोर। 

शक्ति रही हाँ शक्ति-प्रकृति थी, पद-तल में विनम्र विश्रांत, 
कँपती धरणी उन चरणों से होकर, प्रतिदिन ही आक्रांत। 

स्वयं देव थे हम सब, तो फिर क्यों न विश्रृंखल होती सृष्टि? 
अरे अचानक हुई इसी से, कड़ी आपदाओं की वृष्टि। 

गया, सभी कुछ गया,मधुर तम, सुर-बालाओं का श्रृंगार, 
ऊषा ज्योत्स्ना-सा यौवन-स्मित, मधुप-सदृश निश्चित विहार। 

भरी वासना-सरिता का वह, कैसा था मदमत्त प्रवाह, 
प्रलय-जलधि में संगम जिसका, देख हृदय था उठा कराह।" 

"चिर-किशोर-वय, नित्य विलासी, सुरभित जिससे रहा दिगंत, 
आज तिरोहित हुआ कहाँ वह, मधु से पूर्ण अनंत वसंत? 

कुसुमित कुंजों में वे पुलकित, प्रेमालिंगन हुए विलीन, 
मौन हुई हैं मूर्छित तानें, और न सुन पडती अब बीन। 

अब न कपोलों पर छाया-सी, पडती मुख की सुरभित भाप 
भुज-मूलों में शिथिल वसन की, व्यस्त न होती है अब माप। 

कंकण क्वणित, रणित नूपुर थे, हिलते थे छाती पर हार, 
मुखरित था कलरव, गीतों में, स्वर लय का होता अभिसार। 

सौरभ से दिगंत पूरित था, अंतरिक्ष आलोक-अधीर, 
सब में एक अचेतन गति थी, जिसमें पिछड़ा रहे समीर। 

वह अनंग-पीड़ा-अनुभव-सा, अंग-भंगियों का नत्तर्न, 
मधुकर के मरंद-उत्सव-सा, मदिर भाव से आवत्तर्न।

5 comments:

  1. पढवाने के लिये हार्दिक आभार

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  2. जय शंकर प्रसाद मेरे प्रिय कवि हैं | उनकी रचनाएँ पढ़वाने के लिए आभार |

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  3. जयशंकर प्रसाद जी के बारे में अच्छी जानकारियों के साथ-साथ उनकी सुन्दर रचनाओं को हमारे सामने प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।

    नया लेख :- पुण्यतिथि : पं . अमृतलाल नागर

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  4. प्रसाद जी पर एक उत्कृष्ट समीक्षात्मक प्रस्तुति .... आभार!

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  5. जयशंकर प्रसाद जी का परिचय... और उनकी इन रचनाओं की प्रस्‍तुति के लिये आभार आपका

    सादर

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