हिंदी काव्य-गद्य का विशाल ऑनलाइन कोष बनानेवाले ललित कुमार का योगदान अत्यंत सराहनीय है -  इतनी बड़ी सुविधा कठिनाइयों को आसान करते हुए ललित जी ने दिया, जिसके लिए मैं उन्हें उनके ही बौद्धिक आलेख के साथ उन्हें सम्मानित करती हूँ ..................... यह आलेख एक ज्वलंत प्रश्न है - इसके मध्य कितने आग्नेय वचन हैं - आप अपने विचार यहाँ रखें ताकि कोई दरवाज़ा खुल सके . बिना दरवाज़ा खोले परिवर्तन की बयार बंद उमस भरे दिमाग में नहीं ला सकते 

आपके विचारों का स्वागत है = 

क्या स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता संभव नहीं है?
ललित कुमार 

मैं आजकल एक महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट को साकार करने में जुटा हूँ –इसलिए लग रहा था कि अब दशमलव पर काफ़ी समय बाद ही लिख पाऊंगा। लेकिन फ़िलवक्त जो आक्रोश और दुख मैं महसूस कर रहा हूँ उसने मुझे लिखने पर मजबूर कर ही दिया। कल फ़ेसबुक पर मैंने बस यूं ही एक पोस्ट लिखी जो इस तरह थी:

क्या एक स्त्री और पुरुष केवल-और-केवल बहुत अच्छे मित्र नहीं हो सकते?

क्या स्त्री और पुरुष की मित्रता को हमेशा “भाई-बहन” या “प्रेमी-प्रेमिका” जैसी परिभाषाओं में बांधना ज़रूरी होता है?


स्त्री-पुरुष मित्रता
इन प्रश्नों के उत्तर में मुझे कई ऐसी प्रतिक्रियाएँ मिली जिन्हें पढ़कर मन विषाद में डूब गया। बहुत से फ़ेसबुक मित्रों का मनना है कि स्त्री और पुरुष के विपरीत-लिंगी होने के कारण उनके बीच में जो प्राकृतिक आकर्षण होता है –उसके चलते उनके बीच में मात्र मित्रता का संबंध हो ही नहीं सकता। स्त्री और पुरुष का हर जोड़ा या तो “भाई-बहन” होता है या फिर “प्रेमी-प्रेमिका” का… जैसे दो पुरुष दोस्त हो सकते हैं और दो स्त्रियाँ दोस्त हो सकती हैं –वैसे एक स्त्री और एक पुरुष कभी दोस्त नहीं हो सकते।

ऐसी प्रतिक्रियाएँ देने वाले मर्यादाओं की दुहाई देते, कहते हैं कि स्त्री और पुरुष के बीच मर्यादा कायम करने के लिए ही सामाजिक रिश्ते (जैसे कि भाई-बहन और पति-पत्नी) बनाए गए हैं। यदि स्त्री-पुरुष इनमें से किसी एक रिश्ते में नहीं बंधते तो उनकी मित्रता कब प्रेम और प्रेम कब वासना में बदल जाए –यह कहा नहीं जा सकता!

यह सब पढ़कर मुझे लगा जैसे कि हम पाषाण युग में जी रहे हों! अचानक मुझे यह बोध भी हुआ कि पिछले कुछ महीनों में बलात्कार के खिलाफ़ जो हो-हल्ला मचा था –उसका कोई नतीजा नहीं निकलने वाला। आप चाहे हर बलात्कारी को फ़ांसी पर लटका दें लेकिन बलात्कार फिर भी नहीं रुकेंगे। ना ही इस किस्म के सुझाव आने बंद होंगे कि स्त्रियों को ऐसे कपड़े पहनने चाहिए और वैसे कपड़े नहीं पहनने चाहिए। बलात्कारी को नहीं बल्कि हमें इस संकीर्ण मानसिकता को फांसी देनी होगी कि स्त्री-पुरुष मित्र नहीं हो सकते।

जो प्रश्न मैंने किया वह बहुत छोटा-सा प्रश्न है लेकिन इससे मुझे अपने समाज को बेहतर ढंग से समझने में मदद मिली है। हमारे पुरुष समाज का एक हिस्से का नैतिक बल दरअसल इतना कमज़ोर है कि वह स्त्री देह से डरता है। किसी अनजान स्त्री (जो ना माँ-बहन हो और ना पत्नी-प्रेमिका) के छू जाने भर से उन्हें लगता है कि वे फिसल सकते हैं। इसीलिए वे स्त्री के सम्मुख एक इंसान के तौर पर आने से डरते हैं और संबंधों और रीति-रिवाजों की आड़ में रहना पसंद करते हैं।

जो प्रश्न मैंने पूछा उस पर प्रतिक्रिया करने वालों को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक हिस्सा यह मानता है कि प्राकृतिक आकर्षण अपनी जगह है लेकिन हमारी सामान्य नैतिकता में भी इतनी ताकत है कि हम प्राकृतिक आकर्षण को पराजित करते हुए सभी मर्यादाओं का पालन कर सकते हैं। दूसरा हिस्सा यह कहता है कि नैतिकता में इतनी ताकत नहीं होती कि प्राकृतिक आकर्षण को पराजित कर सके इसलिए स्त्री-पुरुष के बीच विभिन्न प्रकार के रिश्तों की दीवारें खड़ी की जानी चाहिए।

जिस समाज को अपने नैतिक बल पर इतना भी विश्वास ना हो कि एक पुरुष किसी स्त्री को मित्रवत भी बात कर सकता है –तो ऐसे समाज का बस राम ही रखवाला है। इसी नैतिक बल की कमी के कारण हमारे समाज में यदा-कदा ऐसे सुझाव सामने आते ही रहते हैं कि स्त्रियों को “बदन दिखाने वाले” कपड़े नहीं पहनने चाहिए। बात वही नैतिक बल की कमी की है। बदन दिख गया तो…

पिछले दिनों हुए प्रदर्शनों के दौरान एक बोर्ड पर लिखा देखा था “नज़र तेरी बुरी और बुर्का मैं पहनूँ?” … यह जिसने भी लिखा उसने शत-प्रतिशत सही लिखा। जहाँ नैतिक बल कमज़ोर हो वहाँ तो बुर्कें में भी बलात्कार होते हैं और जहाँ नज़र साफ़ हो वहाँ… जी हाँ, वहीं, उसी ज़मी पर स्त्री-पुरुष मित्र भी हो सकते हैं।

एक और रोचक बात यह है कि नकारात्मक प्रतिक्रिया देने वाले सभी व्यक्ति पुरुष है! स्त्रियों ने तो यही कहा है कि हाँ स्त्री और पुरुष केवल मित्र भी हो सकते हैं। इस एक बात से ही हमारे समाज की वर्तमान मानसिकता और स्थिति के बारे बहुत कुछ मालूम पड़ता है।

इस पर विडम्बना यह कि हम अपनी धरती को योगियों की धरती कहते हैं! विवेकानन्द का नाम लेते नहीं थकते। गौतम बुद्ध, शिव, कृष्ण, राम जैसे योगियों को अपना आराध्य मानते हैं और फिर कहते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच मित्रता संभव ही नहीं है!

आपने वो कहानी तो सुनी ही होगी कि एक ब्रह्मचारी साधु और उनका चेला कहीं जा रहे थे –रास्ते में एक नदी पड़ी जिसके किनारे एक स्त्री खड़ी थी। स्त्री ने निवेदन किया कि साधु नदी पार करने में उसकी मदद करें। साधु ने उस स्त्री को अपनी बाहों में उठाया और उसे नदी पार करा दी। धन्यवाद देकर स्त्री अपनी राह चली गई और साधु-चेला अपनी राह चल दिए। थोड़ी दूर जाकर चेले ने पूछा कि महाराज आपने ने स्त्री को छूने से भी मना किया है और आपने स्वयं उस स्त्री को गोद में उठा लिया!… इस पर साधु ने कहा कि “तुममें और मुझमें यही फ़र्क है। मैं तो उस स्त्री को नदी पार करा कर वहीं छोड़ आया लेकिन तुमने उस स्त्री को अब तक अपने साथ (यानी मन में) रखा हुआ है।”… यह सुनकर चेले को ब्रह्मचर्य के असली आशय का ज्ञान हुआ।

मैं विपरीत-लिंग के प्रति होने वाले प्राकृतिक आकर्षण की ताकत को नकार नहीं रहा। प्रकृति के सभी बल बेहद शक्तिशाली होते हैं। इसलिए यह सच है कि स्त्री-पुरुष के बीच शारीरिक खिंचाव का अहसास तो होता ही है; लेकिन यह कहना कि हम मनुष्य इस आकर्षण को धत्ता नहीं बता सकते बिल्कुल ग़लत है। नैतिक बल और प्राकृतिक आकर्षण की इस खींच-तान में कई बार प्राकृतिक आकर्षण भी जीत जाता है लेकिन यह कहना कि प्राकृतिक आकर्षण ही हमेशा जीतता है –सरासर ग़लत है।

अब मुझे विश्वास हो चला है कि जंतर-मंतर पर धरना देने और मोमबत्ती मार्च निकालने से कुछ नहीं बदलने वाला… जब हमारी सोच ही पाषाण-युगीन है तो मोमबत्ती क्या स्वयं सूर्य भी हमारी बुराईयों को नहीं जला सकता।

19 comments:

  1. स्त्री पुरुष मित्रता
    स्वस्थ मित्रता - लोग रहने नहीं देते
    गुनाहगार सी शक्ल बना देते हैं बोल बोलकर
    अजीबोगरीब बातों से मित्रता बाधित होती है
    विपरीत संरचना आड़े आती है !
    बातों को दरकिनार कर यदि आप बढ़ भी गए
    तो फुसफुसाहटें तीव्र हो जाती हैं
    लांछन तो लग ही जाता स्त्री के चरित्र पर
    स्त्री ने चरित्र को दागदार ना होने दिया
    तो दोस्त बना पुरुष - क्या क्या कहानियाँ बनाएगा
    आप सोच भी नहीं सकते
    हर शब्द के दो मायने
    म्यान से निकले तलवार की धार से होते हैं
    और दुनिया - शब्द के दूसरे मायने को ही लेती है !

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  2. कुछ लोग कितने भी आधुनिक बनने का नाटक करें लेकिन उनकी सोच अभी भी मध्ययुगीन हैं. इनके विचारों को बदलना आसान नहीं है. लेकिन यह एक सत्य है कि स्त्री पुरुष में सम्बन्ध केवल भाई बहन या प्रेमी प्रेमिका का ही नहीं होता, वे बिना किसी शारीरिक आकर्षण के एक दूसरे के अच्छे मित्र भी हो सकते हैं. यह केवल एक दिवा स्वप्न नहीं बल्कि वास्तविकता है. जो व्यक्ति शारीरिक आकर्षण से ऊपर नहीं उठ सकता वह स्त्री पुरुष की मित्रता का अर्थ कभी नहीं समझ सकता. आवश्यकता है मानसिकता और सोच बदलने की.

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  3. स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता बिलकुल संभव है!...लेकिन मित्रता एक ऐसी चीज है,जो किसी वाजबी कारण या किसी गैर वाजबी कारण को ले कर समाप्त भी हो सकती है!...दो स्त्रियों की आपसी मित्रता या दो पुरुषों की आपसी मित्रता टूटती हुई हमारे समाज में आसानी से देखी जा सकती है..लेकिन इससे समाज को कोई लेना देना होता नहीं है!
    ...पर एक स्त्री और एक पुरुष की मित्रता जब टूटती है तब यातो स्त्री अपने पुरुष मित्र पर बुरा होने का लांछन लगाती है...यातो पुरुष अपनी स्त्री मित्र पर बुरी होने का लांछन लगाता है...तब समाज जरुर दखल अंदाजी करता है और परिणाम तया आखिर में कैरेक्टर को ले कर बुराई स्त्री के ही सिर पर मढ दी जाती है!...ऐसे में स्त्री पुरुष के बीच मित्रता के क्या मायने रह जाते है?

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  4. आधुनिक लिबास से आधुनिक विचार नहीं हो जाते ... और समाज ? उसे तो दूसरों पर ऊँगली उठाने का शौक है

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  5. ललित जी ने बहुत ही सुन्दर उदाहरणों से अपनी बात समझाई....वाकई यह मानसिकता है जिससे हमें लड़ना है ....किसी एक वर्ग विशेष से नहीं ...और जब तक यह मानसिकता जड़ से नहीं उखड़ेगी...यह समस्या इस समाज में बनी रहेगी .....और समाज का कमज़ोर वर्ग इन मानसिकताओं की भेंट चड़ता रहेगा ......

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  6. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (16-3-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  7. ये लोग स्त्री पुरुष को दो अस्तित्व स्वीकार करेंगे तब तो ...जहाँ तक मन फिसलने की बात है , यदि अपने पर भरोसा नहीं हो तो कभी भी ,कही भी फिसल सकता है . रिश्तों की आड़ में क्या नहीं होता देखा गया ही इसी समाज में ! दो इंसानों के बीच मित्रता सबसे खूबसूरत रिश्ता है , जैसा द्रौपदी और कृष्ण के मध्य था !

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  8. पुरुष और स्त्री में केवल मित्रता हो सकती है यह असंभव नहीं है.प्राकृतिक आकर्षण को वशीभूत करके मित्र बन सकते है, परन्तु यह समाज उन्हें मित्र रहने देते ?नहीं.उन पर अवांछित लांछन लगाकर उन्हें मजबूर कर देते है कि वे अपनी दोस्ती को कोई नया नाम दे , प्रेमी -प्रेमिका या भाई बहन,इसके लिए वे दोषी नहीं ,दोषी है समाज -समाज के ठेकेदार .

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  10. ये सिर्फ हमारे ही समाज में है कि किसी स्त्री पुरुष को साथ देखा नहीं कि कयास लगना शुरू. स्त्री और पुरुष जरूर मित्र हो सकते हैं और बेहतरीन मित्र हो सकते हैं.बात सिर्फ मानसिकता की है.
    सच कहा ललित जी ने बात यह है कि अपनी नैतिकता पर हमें भरोसा नहीं.अपने मन को नियंत्रित करना हम भूल गए हैं.
    अपने बड़ों से हम अपनी इन्द्रियों को वश में करने की बात सुनते आये हैं, जो आज लोगों में नदारद है. और अपनी इसी कमजोरी को छुपाने के लिए वही लोग स्त्रियों के पहनावे या रहन सहन का बहाना बनाते हैं.

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  11. पुरुष और स्त्री में मित्रता हो सकती है
    JAB TAK STRIYON AUR PURUSHON KE MDHY SAMMANJANAK MITRATA NAHI HOGI TAB TAK IS SAMAAJ KA VIKASH NAHI HO SAKTA

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  12. stri purush mitrta sochne kee aavshyakta hi nahi vah to hai .jahan soch me koi vasna nahi ,dwesh nahi vahan stri purush ek doosre ke nirantar sahyogi hain.

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  13. जिन बातों के लिए स्वीकार्यता नहीं बन पाती उनके लिए नकारात्मकता आ ही जाती है .....

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  14. is naitik bal ka sabak bachpan se hi sikhaya jaana jaroori hai varna hamara samaj kabhi 16 vi sadi ko paar nahi kar payega ...

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  15. आज, जब कि मूल्यों में परिवर्तन बड़ी तीव्रता से हो रहे हैं, हमें स्त्री-पुरुष सम्बन्धों पर गम्भीरता से चिंतन करना होगा। इस परिप्रेक्ष्य में चिंतनीय बिन्दु हैं-
    1- जब ये वर्जनायें बनी होंगी तब सामाजिक स्थितियाँ कैसी थीं। हिज़ाब पूरी दुनिया के सभी समाजों में क्यों नहीं लागू किया गया?
    2- भारतीय समाज में कृष्ण-द्रौपदी जैसे उदाहरणों की इतनी कमी क्यों है?
    3- विपरीत लिंगियों की मित्रता की वर्जना के पीछे मूल कारण क्या है -दैहिक आकर्षण की प्राकृतिक संभावनाओं को नियंत्रित करने वाली नैतिक शक्ति का अभाव या आकर्षण की प्रबलता की संभावनाधिक्यता? दैहिक संबंधों के प्रति हमारे दृष्टिकोण में क्या कोई पक्षपात नहीं है? यहाँ जरा ठहर कर एक विचार यह भी करना होगा कि सदा से ही समान लिंगियों के मध्य भी दैहिक संबन्धों की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। तब मित्रता और दैहिक संबन्धों के कारण बने रिश्तों को पृथक करना होगा।
    4- पश्चिमी देशों में सभी रिश्तों की अवधारणायें, उनकी प्रगाढ़ता, और उनकी सामाजिक मान्यताओं के विपरीत भारत में सब कुछ भिन्न है। हमें यह तय करना होगा कि हम मित्रता को किन सन्दर्भों में लेना चाहते हैं भारतीय या पश्चिमी?
    5- हमें उन ख़तरों के बारे में भी सोचना होगा जो मित्रता टूटने की स्थिति में पारस्परिक चारित्रिक दोषारोपणों से निर्मित होते हैं।
    6- मैं समझता हूँ कि ऐसा कोई सर्वमान्य नियम नहीं बनाया जा सकता कि विपरीत लिंगियों की मित्रता नहीं होनी चाहिये या कि ऐसी मित्रता को बढ़ावा दिया जाना चाहिये। मित्रता मनुष्य का वह स्वाभिक गुण है जिसमें स्वार्थों से उठकर मित्र के कल्याण के लिये स्व के त्याग के लिये व्यक्ति प्रसन्नतापूर्वक तैयार रहता है। फिर वह पुरुष हो या स्त्री।
    7- यद्यपि काम एक स्वाभाविक फ़िज़ियोलॉजिकल घटना है किंतु इसे लेकर हमारी अति संवेदनशीलता ने इसे बहुत जटिल कर दिया है। विपरीत लिंगियों को एक साथ देखते ही हमारे मन में सबसे पहले काम का सन्देह होने लगना भारतीय समाज की बहुत बड़ी नैतिक दुर्बलता है। क्या हम काम से परे कुछ और नहीं सोच सकते? हमें स्त्री-पुरुष की दैहिक सीमाओं से हटकर भी सोचने की प्रवृत्ति विकसित करनी चाहिये। यदि हम ऐसा कर सके तो स्त्री-पुरुष मित्रता की सारी वर्जनायें समाप्त हो जायेंगी।

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  16. प्रत्येक मानवीय संबध की अपनी मर्यादा होती है । जब कोई संबध
    मर्यादा लांघता है तो उसकी परिभाषा एवं अर्थ स्वत: ही परिवर्तित हो जाते हैं,
    कोई व्यक्ति 'बंधु' तभी तक है जब तक वह बंधुत्व के बंधन से बंधा हो
    अन्यथा लोग उसका निबन्ध बना देते हैं.....

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  17. नैतिक बल और प्राकृतिक आकर्षण की इस खींच-तान में कई बार प्राकृतिक आकर्षण भी जीत जाता है लेकिन यह कहना कि प्राकृतिक आकर्षण ही हमेशा जीतता है –सरासर ग़लत है।bilkul sahi bat .......depend karta hai paristhitiyon par ......par mitrata to sambhav hai .....

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  18. ललित जी ने गूढ़ बातों को अत्यंत सरलता के साथ समझा दिया..मैं उनके तर्कों से सहमत हूँ..जरूरत हमें अपनी सोच बदलने की ही है.........
    वह स्त्री देह से डरता है। किसी अनजान स्त्री (जो ना माँ-बहन हो और ना पत्नी-प्रेमिका) के छू जाने भर से उन्हें लगता है कि वे फिसल सकते हैं। इसीलिए वे स्त्री के सम्मुख एक इंसान के तौर पर आने से डरते हैं और संबंधों और रीति-रिवाजों की आड़ में रहना पसंद करते हैं।.....इन पंक्तियों में मुझे एक नया चिंतन मिला ..हार्दिक बढ़ायी के साथ

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  19. isa prashna ko uthane vale log hamare beech men rahane vale hi log hain aur unake isa daave se unaki manasikta aur soch ujagar hoti hai. mitrata ek aisa bhav hai jo ling se judi nahin hoti hai . main khud apane bare men janati hoon ki bahut adhik to nahin lekin mere purush mitra hai jinake sath ham apani baton ko sheyar karte hain. jinake dukh aur sukh men unake haal lete rahate hain. vahan main kisi sambodhan ko nahin rakhati . han ek mitra mere hain jinhen main bandhu kahati hoon shesh sabhi ke naam se hi bat karti hoon. usa men koi svarth bhi nahin hai aur na hi kisi ko aapatti. phir prabuddh log kaise isa bat ko sankeernta ke sath prastut karte hain.
    ye prashn hamari soch par hi prashna chihna lagata hai.

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