kathasrijan अशोक आंद्रे का ब्लॉग, ठिठकता है ह्रदय, एहसासों के सृजन का एक अद्वितीय 

पड़ाव,जिसे मील का पत्थर कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी  . तो आज का यह दिन कथासृजन के नाम - 

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अशोक आंद्रे

नंगे पाँव


नंगे पाँव चलते हुए निःशब्द 
एक शहर पहुंचा है कस्बे के पास 
जिसके साथ सब कुछ चला आया है 
जिसे झुठलाना असंभव हो गया है 
एक शोर है उसकी नसों में 
धुंआ है अप-संस्कृति का फैलाते हुए 
हुजूम है तिलिस्म आवाजों का 
जिसे पोस्टर बना चस्पां करने की व्यग्रता है 
उसकी हर साँसों में 
क्योंकि वह नंगे पाँव खामोश चलता है। 
रेंगती कतारें, उसके क़दमों के नीचे आने से पहले 
हाफने लगती हैं 
किन्तु-परन्तु उसकी भाषा में कोई जगह नहीं रखती है 
उसके जिस्म से निकलती हर तिलिस्म आवाजें 
हर जीव के अंतर्द्वंदों में दहशत के साथ 
कुछ आकर्षण भी पैदा करती हैं 
रेंगती चींटियो की तरह कसबे 
अपने पीछे फैले जंगल को देखने लगते हैं 
शहर है कि नंगे पाँव 
क़स्बे की अस्मिता को उसकी ही 
संस्कृति में ओंधे मूहं गिराकर 
घेरने की तमाम कोशिश करता है 
शहर फैल जाता है उसके चारों ओर 
विजय परचम लहराते हुए 
क्योंकि मीडिया उसके हथियार होते है 
तभी तो कस्बे को हथियार डालने के बाद 
शहर को गले लगाना पड़ता है 
तब, शहर एक बार फिर किसी 
नये कस्बे की खोज में 
निकल पड़ता है 
तब एक सवाल उभरता है उसके समक्ष 
शहर का यह रूप किस मोड़ पर आकर रुकेगा 
आखिर कस्बे के साथ 
गाँव और जंगल को भी तो 
विश्व के मानचित्र पर 
अपने अस्तित्व को कायम रखने का 
अधिकार तो होना ही चाहिए न, 
क्योंकि शहर है कि बढता ही जा रहा है।

मुक्ति 


वह बूढ़ा 
निहारता है रोज पृथ्वी को 
उसकी नम आँखें ढूँढती हैं कुछ 
पता नहीं किसको,
उसके अन्दर फैली अंधेरी गुफाओं में 
जहां,पृथ्वी के अन्दर से 
उठती हरियाली के बीच कुछ 
जो खेतों के ऊपर लहरा जाती है।
जहां उसका वजूद 
एक ताकत महसूस करता है 
उसे लगता है माँ का आँचल भी तो 
पृथ्वी के ऊपर लहराती हरियाली की तरह है।
कुछ कणों को उठा कर -
वह बूढा 
निहारता है अपने आसपास के माहौल को 
जहां तक उसकी निगाह जाती है 
दूर एक सूखे टीले को देखते ही 
घबरा जाता है 
उसे लगता है कि 
उसके चेहरे पर फैली झुरियां 
उस टीले पर अंकित हो गयी हैं 
डरावनी जरूर हैं पर आकर्षण भी पैदा करती हैं 
आखिर उसी टीले पर तो कई बार बैठा है।
सर्द हवाओं के चलते 
सवेरे की गुनगुनी धूप के कारण ही तो 
उसके खेत की हरियाली भी तो आकर्षण पैदा करती है 
शायद इसी के चलते                                                                                             
पृथ्वी का आकर्षण भी तो 
मनुष्य को खींचता है अपनी ओर 
कभी जीवन बनकर तो कभी-
मुक्ति  का द्वार बन कर।
इस रहस्य को समझते ही 
उसकी आँखों की चमक 
उसके चेहरे की झुर्रियों के बीच उभरने लगती है,
और वह 
कुछ समय के लिए 
पृथ्वी की छाती पर लेट कर 
आकाश को घूरने लगता है 
उसे लगता है कि 
शायद उसको मुक्ति  का द्वार मिल गया है।

अशोक आंद्रे जी के शब्द सत्य के मझदार से निकले हुए प्रतीत होते हैं, मृत्यु और जीवन से जूझता एक संघर्षमय सार 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर.....

4 comments:

  1. अपने अस्तित्व को कायम रखने का
    अधिकार तो होना ही चाहिए न,
    सहमत हूँ आपकी बात से ... आभार आदरणीय अशोक अांद्रे जी को रचनाओं को पढ़वाने का

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  2. परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही
    ये इतना ही कितना कितना होता है आपका :)

    जवाब देंहटाएं
  3. अपनी रचनाओं को आपके ब्लॉग पर देखना बेहद सुखद लगा,आभारी हूँ.

    जवाब देंहटाएं

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