विरोध,पलायन,जिजीविषा,और बदलते रास्तों ने
परिवार,समाज,देश की काया बदल डाली 
परिवर्तन के नाम पर 
सारी व्यवस्था बदल डाली 
दुआओं और संवेदनाहीन के मध्य की मनःस्थिति
कौन समझता है !
समझकर भी क्या?
अनुकूल और विपरीत पगडंडियाँ तो साथ ही चलती हैं !
पलड़ा कौन सा भारी है
कौन कहेगा ?
सच तो यही है 
महत्वाकांक्षाओं के पंख लिए
मैं ही धरती बनी
बनी आकाश
हुई क्षितिज
झरने का पानी
गंगा का उदगम
सितारों की टिमटिमाती कहानी
चाँद सा चेहरा
पर्वतों की अडिगता ...
सृष्टि का हर रूप लिया
हर सांचे में ढली
महत्वाकांक्षाओं की उड़ान में
कलम बनी
भावनाओं की स्याही से पूर्ण
सुकून का सबब बनी  ................... 

पर  .... कहाँ हूँ मैं,जो कही जाती थी परम्परा,पहली शिक्षा का स्रोत,आँगन की रुनझुन - समानता ने मुझे क्या से क्या बना दिया !!!
कभी एक प्रलाप, कभी एक परिवर्तन,कभी एक शून्यता का एहसास तो कभी सम्पूर्णता 

इन घुमावदार रास्तों में आज हम है वंदना गुप्ता की कलम के साथ 

और जन्म रहा है एक पुरुष 

मर चुकी है इक स्त्री मुझमें शायद 
और जन्म रहा है एक पुरुष 
मेरी सोच की अतिवादी शिला पर 
दस्तकों को द्वार नही मिल रहे 
फिर भी खटखटाहट का शोर 
अपनी कम्पायमान ध्वनि से प्रतिध्वनित हो रहा है

स्त्री होने के लिए जरूरी है 
सर झुकाने की अदा 
बिना नाजो नखरे के मशीनवत जीने  का हुनर 
पुरुष के रहमोकरम पर जीने , मुस्कुराने का हुनर 
और अब ये संभव नहीं दिख रहा 
होने लगी है  शून्य भावों से , संवेदनाओं से 
होने लगी है वक्त के मुताबिक प्रैक्टिकल
सिर्फ़ भावों की डोलियों में ही सवार नहीं होती अब दुल्हन
करने लगी है वो भी प्रतिकार सब्ज़बागों का 
गढने लगी है एक नया शाहकार 
लिखने लगी है एक इबारत पुरुष के बनाये शिलास्तम्भ पर
तो मिटने लगी है उसमें से एक स्त्री कहीं ना कहीं 
इसलिये नहीं होती अब उद्वेलित मौसमों के बदलने से 

पुरुषवादी प्रकृति की उधारी नहीं ली है
आत्मसात किया है खुद में 
आगे बढने और चुनौतियों को झेलने के लिये 
एक अपने हौसलों के पर्वत को स्थापित करने के लिये 
जिनमें अब नहीं होते उत्खनन
जिनके सपाट चौडे सीनों पर उग सकते हैं देवदार ,चीड और कैल भी 
बस स्थापत्य कला के नमूने भर हैं 
स्त्री की मौत पर उसकी अस्थियाँ रोंपी हैं पर्वत की नींव में 
ताकि उगायी जा सके श्रृंखला वनस्पतियों की 
जो औषधि बन कर सकें उपचार जडवादी सोच का 
यूँ ही नहीं हुयी है एक स्त्री की मौत 
कितने ही सरोकारों से जुडना है अभी 
कितनी ही फ़ेहरिस्तों को बदलना है अभी
टांगना है एक सितारा अपने नाम का भी आसमाँ में 
तभी तो स्त्री के अन्दर का शोर दफ़न हो रहा है 
उगल रही है उगलदानों मे काँधों पर उठाये बोझों को 
और जन्म रही है स्त्री में पुरुषवादी सोच 
ले रही है आकार एक और सिंधु घाटी की सभ्यता 

अब द्वार मिलें ना मिलें 
दस्तक हो ना हो 
ध्वनि है तो जरूर पहुँचेगी कानों तक  …


नहीं .......अब नहीं कोसना तुम्हें

नहीं .......अब नहीं कोसना तुम्हें
बहुत हो चुका 
आखिर कब तक 
एक ही बात बार - बार दोहराऊँ
जानती हूँ 
नहीं फर्क पड़ेगा तुम्हें
तो कहकर क्यों जुबान को तकलीफ दूं
वैसे भी तुम अकेले तो जिम्मेदार नहीं ना
कहीं ना कहीं इसमें
मेरी भी गलती है
हाँ .......स्वीकारती हूँ
मेरी भी गलती है
आँख मूँद विश्वास किया तुम पर
तो आखिर उसकी सजा तो भुगतनी होगी ना
कब तक सिर्फ तुम्हें ही 
कटघरे में खड़ा करती रहूँ
आज समझी हूँ ..........
सिर्फ कानून बनाने वाला ही नहीं होता दोषी
जब तक उसे मानने वाला उसका प्रतिकार ना करे
अब जब तुम्हारी हर बात को 
अक्षरक्ष: मानती रही
सिर झुकाए 
तो आज सिर्फ तुम पर 
दोष कैसे मढ़ सकती हूँ
मैं भी तो बराबर की दोषी हूँ ना
क्यों नहीं मैंने माना 
कि भावनाएं सिर्फ दिखावा होती हैं
असलियत में तो ज़िन्दगी की हकीकतें होती हैं
जैसे तुम्हारे लिए हकीकत और भावनाओं में
हमेशा हकीकत ने ही हर बार जंग जीती
भावनाएं तो हर मोड़ पर कुचली मसली गयीं
वैसा ही मुझे भी बनना चाहिए था
सीखना चाहिए था मुझे तुमसे
सच्चाइयों के धरातल पर भावनाओं की 
फसलें नहीं लहलहाती हैं
बस एक यही फर्क रहा तुम में और मुझमे
तुम्हारी और मेरी सोच में
और ना जाने कितने युग बीत गए
हमें यूँ ही लड़ते
अपने वजूदों को साबित करते
हाँ................ मैं हूँ स्त्री 
जान गयी हूँ हकीकत के धरातल को
अब नहीं कोसूंगी ओ पुरुष तुम्हें
नहीं हो सिर्फ तुम ही अकेले दोषी
बस सिर्फ इतना कहना है मुझे
अब अगर कभी तुम्हारी हकीकतें 
मेरी हकीकतों से टकराएं 
तो ना आ जाना तुम अपनी
भावनाओं की दुहाई देते
आज से कोरा कर लिया है मैंने भी कागज़ को
अब नहीं लिखा जायेगा कोई प्रेमग्रंथ 
अब तो होंगी सिर्फ 
भारी शिलाएं जिन पर 
लिखी जाएँगी इबारतें 
आज की नारी की
कैसे मुक्त किया खुद को पुरुषवादी सोच से 
कैसे दिया खुद को एक धरातल सम स्तर का
ओ पुरुष ! आज से देख तुझे कोसना मैंने बंद किया
बस याद रखना कहीं तू ना मेरा पथ अपना लेना!!!


एक तरफ दिव्या शुक्ला के एहसास 

नारी मन का अनगूंजता गीत - ये पन्ने ........सारे मेरे अपने


न जाने क्यों आज मन किया
कलाई से कुहनी तक पहन लूँ
हरे कांच की रेशमी चूडियाँ 
भर ऐड़ी कलकतिया महावर
पूरा पांव चटख लाल रंग वाला
लगा के बिस्तर की सफ़ेद चादर पर
छाप दूँ ढेरों पाँव के निशान
--जैसे पहले करती थी --और फिर
खूब बजनी पाजेब भी पहन लूँ
ढेर सारे घुंघरू वाली ----
और हाँ घुंघुरू वाले बिछुए भी
वो भी तीनो उँगलियों में डाल कर
लाल हरी बांधनी चुनरी पहन -
किसी ट्रक या ट्रैक्टर की ट्राली
पर लदे पुआल के ढेर पर खड़े हो कर
अपना आंचल हवा में उड़ाते हुए
जोर जोर से गाऊं --
तोड़ के बंधन बाँधी पायल
न जाने क्यूँ जब भी फिल्म के
गीत में नायिका को देखती
तो कल्पना में खुद को वहाँ पाती
पायल बिछिया कंगन चूड़ी
जब बजते तो मन के सात सुर बज उठते
यह बंधन नहीं मन के तार है जरा सुनो तो
तुम ने हाथ पकड़ भर लिया और चूडियाँ धीमे से खनक उठी
मानो कह रहीं हो छोडो न मेरा हाथ अब जाने दो
और जब गुस्सा आता है तो जोर से जता देती है
पर न जाने क्यूँ तुम्हें नहीं पसंद इनके बोल
जब भी मै छम छम पायल पहन के चलती
और छनक जाते घुंघरू या भरे हाथों की चूडियाँ
खनखनाती तो झुझला उठते तुम आखिर क्यूँ ?बोलो न
तुम्हारा तो चुभता हुआ बस एक ही वाक्य
तीर की तरह लगता सीधे दिल पर
लगता है बंजारों की बस्ती से आई है
तभी तो कितने गंवारू शौक है ---
उस पर जब यह भी बोल कर हंस भर देते तुम
सुनो ये लाल सडक क्यूँ बना रखी है सर पर
तो जलभुन जाती मन ही मन ---- फिर तो
मै दे मारती गुस्से में एक जोरदार डायलॉग
सुनो -एक चुटकी सिंदूर की कीमत
क्या तुम नहीं जानते बाबू
इतना श्रिंगार करने की आज़ादी
तो मिलती ही है न ----वरना माँ कब
करने देती ये सब ----उफ़ वो बचपन ही तो था
फिर एक दिन सब उतार के फेंक दिया
रोज ही सुनना पड़ता बंजारन हो क्या
ढेरों लाल हरी चूडियों की जगह बस
एक कड़ों ने ली पाज़ेब के घुंघरू मौन हो गये
आज वो बंद पिटारी सब दिख गया
और पायल उठाने पर जब घुंघरू बजे
तो मन के तार फिर झनझना गए
काश की तुम समझते
यह न तो गँवारपन न ही बंधन है
यह तो नारी मन का संगीत है
जो उसकी हर हलचल पर बजता है
पायल बिछुए चुडियों के मधुर स्वर  में
नारी मन का  अनगूंजता गीत है...। 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी जगह इसी समय...तबतक के लिए शुभ विदा । 


6 comments:

  1. बहोत सुन्दर लिंक्स ...इन्हे पढ़ अपनी एक कविता याद आ गयी.."घटनाक्रम "

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  2. रश्मि दी मुझे स्थान देने के लिये हार्दिक आभारी हूँ । दिव्या जी की रचना ने मन मोह लिया

    यह न तो गँवारपन न ही बंधन है
    यह तो नारी मन का संगीत है
    जो उसकी हर हलचल पर बजता है

    जवाब देंहटाएं
  3. और जन्म रही है स्त्री में पुरुषवादी सोच
    ले रही है आकार एक और सिंधु घाटी की सभ्यता


    यह न तो गँवारपन न ही बंधन है
    यह तो नारी मन का संगीत है
    जो उसकी हर हलचल पर बजता है

    बढ़िया संकलन रश्मि दी ....!!बधाई वंदना जी और दिव्य जी ....

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