आसमान पर ज़िंदगी की तहरीर...! यूँ ही नहीं लिखी जाती - कुछ अफ़साने होते हैं,कुछ घुटते एहसास,कुछ तलाशती आँखों के खामोश मंज़र, कुछ  ……जाने कितना कुछ,
जिसे कई बार तुम कह न सको 
लिख न सको 
फिर भी - कोई कहता है,कहता जाता है  …… घड़ी की टिक टिक की तरह निरंतर  


ज़िंदगी लिख रही हूँ...

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लकड़ी के कोयले से 
आसमान पर 
ज़िंदगी लिख रही हूँ 
My Photoउन सबकी 
जिनके पास शब्द तो हैं 
पर लिखने की आज़ादी नहीं,
तुम्हें तो पता ही है  
क्या-क्या लिखूँगी - 
वो सब 
जो अनकहा है 
और वो भी 
जो हमारी तकदीर में लिख दिया गया था 
जन्म से पूर्व 
या शायद 
यह पता होने पर कि
दुनिया हमारे लिए होती ही नहीं है, 
बुरी नज़रों से बचाने के लिए
बालों में छुपाकर 
कान के नीचे 
काजल का टीका 
और दो हाथ आसमान से दुआ माँगती रही
जाने क्या, 
पहली घंटी के साथ 
क्रमश बढ़ता रुदन 
सबसे दूर इतनी भीड़ में 
बड़ा डर लगा था 
पर बिना पढ़ाई ज़िंदगी मुकम्मल कहाँ होती है,
वक़्त की दोहरी चाल
वक़्त की रंजिश   
वक़्त ने हटात् 
जैसे जिस्म के लहू को सफ़ेद कर दिया
सब कुछ गडमगड 
सपने-उम्मीद-भविष्य
फड़फड़ाते हुए 
पर-कटे-पंछी-से धाराशायी, 
अवाक्
स्तब्ध 
आह...!
कहीं कोई किरण ?
शायद
नहीं...
दस्तूर तो यही है न !
जिस्म जब अपने ही लहू से रंग गया 
आत्मा जैसे मूक हो गई 
निर्लज्जता अब सवाल नहीं 
जवाब बन गई  
यही तो है हमारा अस्तित्व
भाग सको तो भाग जाओ 
कहाँ ?
ये भी खुद का निर्णय नहीं,
लिखी हुई तकदीर पर 
मूक सहमति
आखिरी निर्णय 
आसमान की तरफ दुआ के हाथ नहीं 
चिता के कोयले से 
आसमान पर ज़िंदगी की तहरीर...!

- जेन्नी शबनम


कर्मनाशा: निरर्थकता के सौर मंडल में


आज छुट्टी है। आज सर्दी कुछ कम है।आज बारिश का दिन भी है।आज  कई तरह के वाजिब बहाने मौजूद हो सकते हैं घर से बाहर न निकलने के। यह भी उम्मीद है  लिखत - पढ़त वाले पेंडिंग कुछ काम आज के दिन निपटा दिए जायें और साथ  यह  विकल्प भी खुला है कि आज  कुछ न किया जाय; कुछ भी नहीं। हो सकता है कि अकेले देर तक टिपटिप करती  बारिश को देखा -सुना जाय शायद इसी बहाने अपने भीतर की बारिश को महसूस किए जा सकने का अवसर मिल सके। इस बात का एक दूसरा सिरा यह भी हो सकता है कि इस बात पर विचार किया जाय कि बाहर की बारिश से अपने भीतर की बारिश को देखने- सुनने की वांछित  यात्रा एक तरह से जीवन - जगत के बहुविध  झंझावातों से बचाव व विचलन का शरण्य तो नहीं है ? आज लगभग डेढ़ बरस पहले लिखी अपनी  एक कविता साझा करने का मन है जो अपने  कस्बे के  एक प्रमुख चिकित्सक से वार्तालाप - गपशप के बाद कुछ  यूं ही बनी थी। आइए,  पढ़ते - देखते हैं यह कविता ....

जब हम कुछ भी नहीं कर रहे होते हैं
तब भी कर रहे होते हैं एक अनिवार्य काम।

My Photoबिस्तर पर
जब लेटे होते हैं निश्चेष्ट श्लथ  सुप्त शान्त
तब भी
चौबीस घंटे में पूरी कर आते हैं
पच्चीस लाख किलोमीटर की यात्रा।
पृथ्वी करती रहती है अपना काम
करती रहती है सूर्य की प्रदक्षिणा
और उसी के साथ पीछे छूटते जाते हैं
दूरी दर्शने वाले पच्चीस लाख मील के पत्थर।

यह लगभग नई जानकारी थी मेरे लिए
जो डा० भटनागर ने यूँ ही दी थी आपसी वार्तालाप में
उन्हें पता है पृथ्वी और उस पर सवार
जीवधारियों के जीवन का रहस्य
तभी तो डाक्साब के चेहरे पर खिली रहती है
सब कुछ जान लेने के बाद खिली रहने वाली मुस्कान।

आशय शायद यह कि
कुछ न करना भी कुछ करना है
एक यात्रा है जो चलती रहती है अविराम
अब मैं खुश हूँ
दायित्व बोझ से हो गया हूँ लगभग निर्भार
कि कुछ न करते हुए भी
किए जा रहा हूँ कुछ काम
लोभ लिप्सा व लालच के लालित्य में
उभ - चुभ करती इस पृथ्वी पर
निश्चेष्ट श्लथ  सुप्त शान्त
बस आ- जा रही है साँस।

फिर भी संशय है
अपनी हर हरकत पर
अपने हर काम पर
हर निर्णय पर
निरर्थकता के सौर मंडल में
हस्तक्षेप विहीन परिपथ पर
बस किए जा रहा हूँ प्रदक्षिणा - परिक्रमा  चुपचाप।

एक बार नब्ज़ तो देख लो डाक्साब !
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(सिद्धेश्वर सिंह)

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना हीं, मिलती हूँ कल फिर इसी जगह, इसी समय.....तबतक के लिए शुभ विदा । 

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