कुंती ने जब कर्ण का त्याग किया तब भय प्रबल था
पर कुंती की क्षमता को जब पांडू ने जान लिया - तब वक़्त था इस सत्य को कहने का 
जगजाहिर है कि भीष्म इस बात को जानते थे 
और जिस कुल में धृतराष्ट्र,पांडू,विदुर थे - वहाँ इसे मौन दर्द बनाने का प्रश्न नहीं था 
और यदि था तो कर्ण को शूल चुभोते वरदान की चाह - क्या माँ का धर्म था? 
क्या माँ की वेदना यहाँ स्वार्थी नहीं हुई  …………… 
यूँ दर्द की अनुभूति अलग-अलग होती है  … 
किसी के दर्द के आगे पैसा और मान-सम्मान महत्वपूर्ण होता है 
किसी के आगे बच्चे का भावी जीवन,उसका सम्मान !
समाज का तर्क भी हास्यास्पद है 
जिस समाज के आगे आप चीख लेते हैं 
पैसे के लिए बँटवारा कर लेते हैं 
भर्त्सना खुलेआम करते हैं 
वहाँ 'स्वत्व' के लिए कैसी दुविधा ???


कहते हैं सुशील कुमार जोशी  उल्लूक टाईम्स  के माध्यम से 

"बर्बादे गुलिस्तां करने को बस एक ही उल्लू काफी था, हर शाख पे उल्लू बैठा है 
अन्जामें गुलिस्तां क्या होगा"

परिचय - कुछ इस तरह - ना कविता लिखता हूँ ना कोई छंद लिखता हूँ अपने आसपास पड़े हुऎ कुछ टाट पै पैबंद लिखता हूँ ना कवि हूँ ना लेखक हूँ ना अखबार हूँ ना ही कोई समाचार हूँ जो हो घट रहा होता है मेरे आस पास हर समय उस खबर की बक बक यहाँ पर देने को तैयार हूँ ।

आइये घटित होती व्यवस्था का एक रूप देखें हम  ……. 

हर साल ही तो हम 
बुराई पर अच्छाई की 
विजय का पर्व मनाते हैं 
ऐक दिन के खेल के लिये 
तेरा ही नहीं तेरे पूरे 
खानदान के पुतले 
हम बनाते हैं 
साल दर साल 
मैंदानो और सड़को पर 
तेरा मजमा हम लगाते हैं
राम के हाथों आज के 
दिन मारे गये रावण
विजया दशमी के दिन 
हमें खुद पता नहीं होता है
कि हम क्या जलाते हैं 
कितनी बार जल चुका है 
अभी तक नहीं जल सका है 
जिंदा रखने के लिये ही 
उस चीज को हम 
एक बार फिर जलाते हैं 
आज के दिन को एक
यादगार दिन बनाते हैं 
राम के हाथों हुआ था
खत्म रावण या रावणत्व
इतनी समझ आने में 
तो युग बीत जाते हैं 
शिव के लिये रावण की
अगाध श्रद्धा और उसके 
लिखे शिव तांडव स्त्रोत्र की
बात किसी को कहाँ बताते हैं
किस्से कहाँनियों तक 
रहती हैं बातें जब तक 
सभी लुफ्त उठाने से
बाज नहीं आते हैं 
पुतले जलाने वाले ही 
पुतले जलाने के बाद
खुद पुतले हो जाते हैं 
रावण की सेना होती है 
उसी के हथियार होते हैं 
सेनापति की जगह पर 
राम की फोटो लगा कर 
अपना काम चलाते हैं 
बहुत कर लेते हैं जब
कत्लेआम उल्टे काम 
माहौल बदलने के लिये
एक दिन पुतले जलाते हैं 
रावण तेरी अच्छाईयां 
कहीं समझ ना आ जायें
किसी को कभी यहां पर 
आज भी राम को 
आगे कर हम खुद 
पीछे से तीर चलाते हैं !

नज़रिया अपना होता है,कुछ स्वनिर्मित तो कुछ सोचने पर बाध्य करता हुआ 
ऐसे ही एक नज़रिए की कसक ऋता शेखर मधु की लेखनी से =

 वह बहुत खुश थी...उसने राधा-कृष्ण की एक पेंटिंग बनाई थी...दौड़ी दौड़ी माँ के पास गई...माँ,इसे ड्रॉइंग रूम में लगा दूँ...माँ - बेटा इसे तेरी भाभी ने बड़े प्यार से सजाया है...तेरा पेंटिंग लगाना शायद उसे पसंद आए न आए...तू ऐसा कर, इसे सहेज कर रख...अपने घर में लगाना|

शादी के बाद...सासू माँ...इस पेंटिंग को ड्रॉइंग रूम में लगा दूँ?...बेटा...जो जैसा सजा है वैसे ही रहने दो...इसे अपने घर में लगाना|

ऋता शेखर 'मधु'पति के साथ नौकरी पर...इसे ड्रॉइंग रूम में लगा देती हूँ...
पति-नहीं, अपने बेड रूम में लगाओ या कहीं और...यह मेरा घर है...मेरी मर्जी से ही सजेगा|

पेंटिंग बक्से में बंद हो गया वापस...आज फिर वह उसी पेंटिंग को लिए खड़ी थी...बेटे के ड्रॉइंग रूम में...सोच रही थी...क्या यह घर मेरा है?

क्या हम सच में खुशियाँ खरीदते हैं या  .... प्रश्नों में अटकी सोनल रस्तोगी कि व्यथा 


अनावृत रहना कुछ का फैशन कुछ की मजबूरी और कुछ का व्यवसाय ... जिन कपड़ो को मौसम का सामना करने के लिए रचा गया था आज वो शालीनता ,मर्यादा ,धर्म ,रिवाज़ और अनुशासन ..ना जाने किन किन रूपों बाँट दिए गए है, कपडे सिर्फ कपडे नहीं रह गए है
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“आप आओ फिर तय कर लेंगे “ एक माल के सभ्य रेस्टरूम में फोन पर हो रही बातचीत का एक टुकडा निगाह बात करने वाली पर उठा देता है, हम त्यौहार पर बाज़ार आये है वो खुद बाज़ार है . आँख के कोने में एक नमी का टुकड़ा मुझे तुमसे नफरत नहीं करने दे रहा, सिर्फ किस्मत की बात है , तुम्हारी जगह शायद मैं भी हो सकती थी
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उँगलियों में उंगलियाँ फसाए हाँथ की गर्माहट महसूस करते वो दोनों, एक ही लैपटॉप पर फेसबुक पर कुछ देखते और खिलखिलाते,तस्वीरे अपलोड करते, हाँ हम प्यार में हैं का एलान करते, फेसबुक से वेडिंग अल्बम में कन्वेर्ट हो जाना, आजकल रुसवाई भी एलान के साथ आती है
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My Photoहाँथ फैलाते हुए मेट्रो की सीढियों पर रोजाना,रेड लाइट पर चेहरे पर चढ़ाई हुई पीड़ा लपेटे या मंदिर की सीढियों पर कटोरे खनखनाते, सब एक जमात है. नकलीपन ने असली जरूरतमंद के बीच का अंतर ख़त्म कर देता है और हम पत्थर हो जाते है और इंतज़ार करते है लाल बत्ती के हरी होने का ताकि हमारे भीतर का इंसान भी भाग सके .और सुकून की सांस ले सके
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दिवाली पर ढेर पटाखों में चिंगारी लगाते तय नहीं कर पाती ..मैं उनका घर रोशन कर रही हूँ जो इन्हें बनाते है या उनके घरों में मायूसी भर रही हूँ जो उन्हें चला नहीं सकते इस बीच के फासले को पाटने की शुरुवात करूँ ?

अनुभूतियों के गहरे सागर में गोता लगाइए - शान्ति के कुछ बीज मिलें तो बाँटिये 
परिकल्पना उन बीजों का त्वरित सिंचन करेगा :)
आमीन 
सोनल रस्तोगी 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर इसी समय परिकल्पना पर फिर एक नई प्रस्तुति के साथ.....तबतक शुभ विदा। 

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