मछली मछली कित्ता पानी
एड़ी तक  … 
मछली मछली कित्ता पानी 
कमर तक  … 
मछली मछली  …डुबक  ……। 

बचपन हो या युवावस्था या फिर ढलती उम्र 
जीवन का पानी कभी एड़ी तक 
कभी कमर तक और कभी डुबक 
सब ख़त्म !
पर मछली,मछली का खेल,जीवन के रास्ते शाश्वत हैं  … 

Praveen's way.....: बोल मेरी मछली कितना पानी ??


Praveen Shukla               वो भी क्या दिन थे जब बचपन में हम खेला करते थे, हम 5-6 साथी एक घेरा बनाते और एक साथी को बीच में मछली बना कर खड़ा करते और पूछते कि  "भरा समंदर गोपी चंदर बोल मेरी मछली कितना पानी"  तब मछली बना साथी बीच में से बताता कि इतना पानी....

                     आज मै सोचता हूँ आखिर इस खेल की उपज किसने और क्यों की ? आप ही सोचिये जरा...ये खेल खिला हमारे बुजुर्ग हमको बचपन से ही आने वाले कल (आज) से आगाह नहीं कर रहे थे क्या ? जब खेल में पानी की लगातार होती कमी से बीच में मछली बना साथी मरने का अभिनय करता था तो उस समय तो हमको, हमारे बाल मन को बहुत दुखता था, इतना तो समझ में आता था कि काश ये बच जाती और बचती तभी जब कि हमारे बनाये भरे समंदर में पानी रहता.. जल संरक्षण की भावना को हमारे बाल्यकाल से ही हमारे अंदर तक बिठा कर हमारे बड़ो ने तो अपना काम किया ही लेकिन अब हम क्या कर रहे है ???
                    
                    अब हम ज्यादा समझदार हो गए है,बड़ी डिग्रियां मिल गयी जो हमारे पढ़े लिखे होने के गर्व का कारण हैं, हम अपने सभी कार्य एक तय नियम से करने में विश्वाश करने लगे हर काम समय से....  कब उठना,,  कब खाना,,  कब काम पर जाना,,  कब आना,, आदि, और हमारी याददाश्त तो देखिये हमको सब याद भी रहता है बस भूल गए तो वो खेल जो कि सीधा हमारी जीवन रेखा से जुड़ा है,  वो खेल जिसको कि अब हम ज्यादा बेहतर तरीके से अपनी आने वाली पीढ़ी को खिला सकते है उनको बता सकते है कि हम जो गलतियाँ कर रहे है वो भी करेंगे तो मछली तो मछली उनका अस्तित्व भी अनिश्चिता के घेरे में आ जायेगा |

                    


                     जल की उपयोगिता जानने के लिए अगर पृथ्वी के प्रारंभ से देखे तो सभी धर्मो  ने इसको सबसे ज्यादा महत्व देते हुए इसका विभिन्न संदर्भो में उल्लेख किया है | आदम और हौव्वा को जब जन्नत से दोजख के लिए निकाला गया तो पानी के लिए तरसती हौव्वा  को अल्ला ने कहा की वो जितना रोएगी उतने आंसू  ही उसकी प्यास बुझाएंगे , जब वो सात दिनों तक रोई तब जाकर एक प्याला पानी बना | कर्बला की लड़ाई में बार बार पानी की जरुरत का उल्लेख है | हिन्दू धर्म के अनुसार सृष्टी के पालनकर्ता भगवान विष्णु जल के विशाल क्षीरसागर में निवास करते हैं , और तो और जब जब दुष्टो के पाप कर्मो से पृथ्वी घबराई तब तब उसने समुन्दर की शरण ली | इस तरह के अनेकोनेक उदाहरण हमारे पौराणिक इतिहास का हिस्सा हैं | अब समझने की बात ये है कि ये सिर्फ किस्से कहानियो के लिए बनाई गयी कथाएँ नहीं है बल्कि हमारे पूर्वजो द्वारा जल कि उपयोगिता को समझने और समझाने कि बात हैं      
      
              अब रही बात हमारी तो हम उनकी सब बातो को समझते न समझते उसको दरकिनार करते जा रहे है खुद तो जल बचाने कि कोशिश नहीं कर रहे और जो प्राकुतिक रूप से जल के स्त्रोत है उनपर भी अपनी काली नज़र डाल चुके है | जो नदियाँ, तालाब, झील ईश्वर द्वारा प्रद्दत थे उनको पहले तो मैला कर दिया कभी व्यापार के नाम पर, कभी धर्म और आस्था के नाम पर | कभी फैक्ट्रियो का कचरा बहाया गया तो कभी किनारे पर यज्ञ किये गए | भगवान के नाम पर भगवान के सबसे पहले इशारे को ही किनारे कर दिया | जो भी नदी, तालाब कभी  सूखा दुबारा कभी हमने उसको भरने की नहीं सोची और तो और उस जमीन के पट्टे करा लिए और पहले खेती की फिर किसी बिल्डर को बेच मकान दुकान बनवा कर खुश हो लिए | बस इतना भूल गए कि हम आने वाली पीढ़ी को क्या दे रहे है |

                         अब तो यही लगता है कि जब भी ये जल अपना हिसाब मांगेगा तो हम निरुत्तर ही होंगे | हौव्वा ने  तो सात दिन रोने के बाद एक प्याला आंसू पीने के लिए एकत्र भी कर लिए थे हम तो पूरी जिन्दगी में न कर पाएंगे क्यूकि हमारी आत्मा के साथ हमारे आंसू भी मर चुके हैं !!!

प्रवीण शुक्ल 

बचपन में हम एक खेल खेला करते थे। ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ पानी का स्तर जैसे-जैसे कम होते जाता, मछली जल के लिए तड़फने लगती और अंत में मर जाती है। कल जो संसद के भीतर सत्तापक्ष और तमाम विपक्ष ने जो खेल खेला इससे कम से कम हमें तो यही प्रतीत होता है कि इस देश को इन चुने हुए सांसदों ने मिलकर देश को तमाशा बना दिया है। बढ़ती मंहगाई और चारों तरफ व्याप्त भ्रष्टाचार पर किस तरह काबू पाया जाए इसकी किसी को चिंता नहीं दिखी धारा 184 के तहत इस बहस को लेकर न तो सत्ता पक्ष, ना ही विपक्ष गंभीर दिखाई दिया। मत विभाजन मात्र आम जनता को धोखा देने का एक नाटक बन कर रह गया संसद में। सवाल उठता है कि यदि पक्ष और विपक्ष का यही हाल हमें संसद में देखने को मिला तो संसद को बनाने और इसे चलाने के सवाल पर सीधा सा प्रश्न चिन्ह क्यों न खड़ा किया जा सकता है कि फिर हमें इसे बनाने और इसे चलाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने की जरूरत ही क्या है? देश के चुने हुए सांसदों के बयानों से अब आम जनता को बड़ी निराशा होने लगी है। संसद के अंदर और संसद के बाहर जैसे शब्दों का प्रयोग कर सत्ता और विपक्ष ने यह प्रमाणित कर दिया कि अब संसद के अंदर जाने वाले लोग देश के हित में सोच ही नहीं सकते उनका उद्देश्य न सिर्फ जनता को गुमराह करना है बल्की संसद का प्रयोग भी खुद के राजनैतिक स्वाथों की पूर्ति के लिए करना है। सबके सब इस बात पर चिंता व्यक्त करते दिखे कि अन्ना हजारे संसद के बहार खड़ा होकर संसद को चुनौती दे रहे हैं जो लोकतंत्र के लिए खतरा बन चुका है।

दरअसल में ये सभी मिलकर ‘‘मछली.मछली कितना पानी’’ का खेल, खेल रहें हैं। इस खेल का परिणाम इनको पहले से ही मालूम है कि क्या होने वाला है। जनता चारों तरफ से खुद को ठगी सी महसूस करने लगी। एक तरफ लोकतांत्रिक ढांचे के द्वारा चुने हुए तानाशाहों की जमात तो दूसरी तरफ आम जनता आमने-सामने हो चुकी है। कल की बहस हमने देख ली और आज समाचार पत्रों में पढ़ भी लिया होगा। कल का दिन मंहगाई के बली चढ़ गया। भाजपा के नेताओं को बोलते-बोलते भूख लग गई सो देश की जनता अपने टी.वी.सेट को ताकती रह गई। नेतागण खाने चले गये। पुनः संसद की कार्यवाही शुरू हुई तो 90प्रतिशत सांसद पक्ष-प्रतिपक्ष नेता, उपनेता सबके सब संसद से नदारत दिखे। आज लोकपाल बिल पर भी कुल इसी प्रकार की बहस की उम्मिद हम इन भूखरों से करते है जो न सिर्फ संसद क अंदर मुफ्त का माल गटगते हैं देश को भी भीतर ही भीतर खोखला करते जा रहें हैं।

ऐसे में प्रश्न यह भी उठता है कि क्या जिस चुनावी ढांचे के अंर्तगत हम इन बेईमानों को चुनकर संसद में भेजते है क्यों न हम इस व्यवस्था को ही मूलरूपेन बदल डालें? इसके लिए जनता को बगावत करनी होगी और यह तभी संभव हो सकेगा जब कोई छोटी सी ही सही एक इमानदार राजनैतिक दल को इस आंदोलन से जुड़कर न सिर्फ सत्ता परिवर्तन की बात करनी होगी। देश की वर्तमान संसदीय प्रणाली को भी बदलने के लिए कारगार कदम उठाने के वादे जनता से करे तभी इन बेइमानों को पूर्ण रूप से बदला जा सकेगा।

बोल मेरी मछली कितना पानी

लहर लहर के साथ बहे तू
जाल से मोह न छूते तेरा
कूल किनारे छलते जाये
बना बना कर जाल का घेरा

खेल खेल में थाह बता दे चुप रहना तो है नादानी
बोल मेरी मछली कितना पानी

आगे पीछे जल ही जल है
थाह न नापो बढ़ते जाओ
लहरों पर भी बस तुम अपनी
यश की गाथा गढ़ते जाओ
गले गले तक जब आ जाये तब मत पूछो कितना पानी
बोल मेरी मछली कितना पानी

यह तो जल है सीपी घोंघे
शंख सभी का आश्रयदाता
पर सीधे जल में भी बिच्छू
सीधी राह नहीं चल पाता
गहरे पैठो तब समझोगे जल की महिमामयी कहानी
बोल मेरी मछली कितना पानी

अभिषेक 

परिकल्पना ब्लॉगोत्सव में आज बस इतना ही, मिलती हूँ कल फिर परिकल्पना पर इसी समय....तबतक के लिए शुभ विदा। 

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