स्वागत है आप सभी का ब्लॉगोत्सव-२०१४ के  प्रथम दिवस की प्रथम प्रस्तुति पर 

आँखों की छत के नीचे 
मेरे सपने
अपनी ख्वाहिशों की खिड़कियाँ खोलते हैं 
सपनों की हवा सपनो को छू जाती है  
… हकीकत कहती है,
"काश !मैं भी सपना होती 
तेरी आँखों में रहती 
- मैं तो आज कुछ हूँ 
कल कुछ और 
… वो भी सपनों की इनायत पर" 
   
रश्मि प्रभा
           

क्या सच, क्या झूठ - समय जब जिसे जो सिद्ध कर दे ! दावा नहीं कर सकते, क्योंकि प्रत्यक्ष तो विरोधी होता ही है, अपरोक्ष आत्मिक विरोध भी होता है  … कुछ हाँ, कुछ ना,कुछ भ्रम  …  - विभिन्न दिशाओं से कवि लिखता है -

सत्य समय सापेक्ष है

सत्य का स्थान
लेता है असत्य
सत्य का अंत ही

होता है असत्य 
और फिर

असत्य का अंत ही
बनता है नया सत्य ।

सत्य को कर परास्त
असत्य ही
हो जाता है स्थापित
एक नए सत्य के रूप में
आज जो असत्य है
वही है कल का सत्य
और जो आज सत्य है
वही होगा कल का असत्य ।

स्थापित असत्य को
धकेल-पछाड़ कर ही
नया सत्य
होता है स्थापित
जो चलता है
कुछ समय के लिए
फिर हो जाता है असत्य
किसी नए सत्य के लिए ।

किस के अधीन है सत्य
धनबल-भुजबल
वाचालों की चाल
या फिर
सत्ता के खूंटे बंधा
सामर्थ्य सापेक्ष भी
कौन जाने
सत्य मगर है
समय सापेक्ष ही !

देह का होता है वैधव्य

उसे पता था
उसे प्रेम है
जिसका नहीं था
किसी को भी पता
शादी वाले दिन
आज भी नहीं है
जब छोड़ गया संसार
फेरों वाला
उसकी आंखों में

आज भी हैं आंसू
उसी बेबसी के
जो थे फेरों वाले दिन
दुनिया ने
नाहक फोड़ दीं
आगे बढ़ कर चूडियां
सूनी कर दीं कलाइयां
मन नहीं हुआ सूना !

उसे
आज भी सुहाता है
लाल जौडा
हरे कांच की चूडियां
बहुत भाता है
पल-पल संवरना
दुनिया सोचती है
केवल उसका वैधव्य
वह तो हर पल
उसे ही सोचती है
जो उसे नहीं मिला !

सफेद कफडों में ढकी
उस देह के भीतर
आज भी बैठी है
एक सधवा
जो चाहती है
सावन की बारिश में
खिलखिला कर नहाना
वह कहना चाहती है
मन का नहीं
देह का होता है वैधव्य 

* मुझे लड़ना है *

अंधेरो से
लड़ना चाहता हूं
मगर दिखता नहीँ
कोई साफ साफ अक्स
इस कलमस मेँ
सब के सब
धुआंए है
स्याह धुएं मेँ ।

चौतरफ़ा यह धुआं
आया कहां से
नहीँ बताया
धुआंए चेहरोँ ने
और धुआंने को आतुर
दूसरे लोगोँ ने !

कुछ लोग
कुछ लोगोँ का
जला रहे हैँ दिल
सुलगा रहे हैँ ज़मीर
कुछ लोग
बस केवल
हवा दे रहे हैँ
या फिर झोँक रहे हैँ
अपना ईमान !

कुछ लोग
मुठ्ठियां भीँच रहे हैँ
दूर खड़े
दूर ही खड़े
कुछ और लोग
दांत पीस रहे हैँ
मुठ्ठियां भीँचने वालोँ पर !

कुछ लोगोँ ने
खोल दी हैँ मुठ्ठियां
और सुस्त चाल चलते
कर रहे हैँ
उनका या समय का
मौन अनुकरण !

मुझे तो अभी
लड़ना है
पहले खुद से
अंधेरोँ से
और फिर उनसे
जिनका आभामंडल है
यह स्याह अंधेरा !






ओम पुरोहित "कागद"
जलम- ५ जुलाई १९५७, केसरीसिंहपुर (श्रीगंगानगर)
भणाई- एम.ए. (इतिहास), बी.एड. अर राजस्थानी विशारद
ब्लॉगोत्सव मे आज जो पेंटिंग और रेखांकन प्रस्तुत किए गए हैं, वह कुँवर रविन्द्र के हैं। के. रविन्द्र उर्फ़ कुँवर रविन्द्र सिंह हमारे समय के उन सम्‍वेदनशील कलाकारों में हैं, जो आत्म प्रचार से कोसों दूर खड़े होकर अपनी सम्‍वेदनाओं और दक्षता को पेंसिल, रंग और तुलिका से आकृति प्रदान कर रहे हैं। आज हिन्‍दी सहित्य की कोई भी ऐसी पत्रिका नही जो के. रविन्द्र की कला से अलंकृत होने से वंचित रही हो। इन पत्रिकाओं मे इनकी 14000 से ज्यादा रेखांकन/चित्र के साथ कोई कवियों की कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं।


अब समय है एक छोटे से विराम का, कहीं जायेगा मत, 
मिलती हूँ थोड़ी देर बाद इसी जगह .......

आज आगे का शेष कार्यक्रम 

अपराहन 2 बजे-               असग़र वज़ाहत के नाटक "जिस लाहौर नई देख्या" की प्रस्तुति 
                                                                     (स्थान: वटवृक्ष  ब्लॉग पर)

शाम 3.30 बजे-                      अनुपम  ध्यानी की कविताओं  के पश्चात 
                                        प्रथम दिवस के कार्यक्रम का समापन। 
                                                                     (स्थान: परिकल्पना ब्लॉग पर)

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