कहानियों की अपनी दुनिया 
कभी हम कहानी में 
कभी कहानी हममें  … 

                            रश्मि प्रभा 


नीरा जाग गयी है....


आज फिर घर में बड़ी चहल-पहल थी. पूरा सामान उलट-पुलट किया जा रहा था. पापा व्यस्त थे. माँ व्यस्त थीं. छोटी बहनें चहक रहीं थीं, बस नीरा चुप थी. देख रही थी चुपचाप . किसी ने कोई काम बताया तो कर दिया, बस इतना ही. सबके चेहरों पर ख़ुशी थी , लेकिन नीरा का चेहरा शांत था. सरोकारहीन, निर्लिप्त सी घूम रही है.कभी इधर तो कभी उधर. वैसे किसी को इस बात का ख़याल भी नहीं था कि नीरा कहाँ है, क्या कर रही है? जबकि ये सारा सरंजाम उसी के लिए किया जा रहा था.
चुपचाप बालकनी में आ गई नीरा.
नीरा, जो शहर के सरकारी हायर सैकेंडरी स्कूल के प्राचार्य सुशील पांडे की बेटी है, नीरा, जिसकी माँ बेहद सुघड़ और शालीन है, लेकिन अब परिस्थितिवश नीरा पर झुंझला उठती है. नीरा, जिसकी दो छोटी बहने और एक भाई है, जो उसे बहुत प्यार करते हैं, लेकिन अब जो स्थितियां घर में बन रहीं हैं, जो तनाव घर में छाया रहता है, उसके लिए नीरा को ही दोषी मानने लगे हैं.
और नीरा???
यह वही लड़की है, जिसने चार साल पहले जीवविज्ञान में एमएससी किया है, जिसने शुरू से लेकर अंत तक सारी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं, और बीएड करने के बाद एक प्रायवेट स्कूल में २००० रुपयों की नौकरी कर रही है, अब छब्बीस साल की हो गई है, लेकिन अभी तक उसकी शादी नहीं हो सकी है.
बस!!! सारी चिंताओं की जड़ यही है.
नीरा साधारण शक्ल-सूरत की लडकी है लेकिन आकर्षक है. रंग थोडा दबा हुआ लेकिन चमकदार है, फिर भी अब तक जितने भी रिश्ते आये , सब दबे हुए रंग और साधारण सूरत के चलते वापस हो गए. सब के सब घर जा कर जवाब देने की बात कह कर गए और चुप्पी साध गए. पहली बार नीरा के पापा ने फोन करके लड़के वालों का जवाब जानना चाहा था, लेकिन उसके बाद जब भी लड़के वाले बिना जवाब दिए गए, पांडे जी उनका जवाब खुद ही समझ जाते.
पहली बार के इन्कार पर पांडे जी ने लड़के वालों की लानत-मलामत की. उन्हें नादान और इंसान को परखने में अक्षम बताया. दूसरी बार परेशान हुए, लेकिन तीसरी बार तो सीधा निशाना नीरा पर ही साधा. पता नहीं कितनी तरह से अयोग्य ठहराया गया उसे.
बालकनी में घूमती नीरा के दिमाग में केवल पिछली घटनाएं ही घूम रहीं हैं. अब तो इन लड़के वालों के नाम से दहशत सी होने लगी है उसे. एक तो कितनी बार उसने माँ से कहा है कि उसका मेकअप न किया करें. उसका चेहरा ऐसे बिना किसी प्रसाधन के ज्यादा अच्छा लगता है. लेकिन माँ मानती ही नहीं.
कभी भी झूठ का सहारा न लेने वाले माँ-पापा लड़के वालों के सामने धड़ल्ले से झूठ बोलते दिखाई देते हैं अब तो..............." ये कुशन इसी ने बनाए हैं...." बुनाई में तो बहुत होशियार है हमारी नीरा......"
" तरह-तरह के व्यंजन बनाने का बहुत शौक है नीरा को..."
" ये कचौरियां उसी ने बनाई हैं......."
जबकि सच तो ये है कि नीरा को कढाई के नाम पर केवल चेन-स्टिच आती है . नाश्ते जो लोगों को पेश किये जाते हैं, उनमें कुछ भी उसका बनाया नहीं होता.फिर फूलचंद भाजियावाले जैसे समोसे-कचौड़ी नीरा तो क्या कोई भी कुशल गृहिणी नहीं बना सकती. पूरे शहर में प्रसिद्धि है, इन समोसों-कचौरियों की . वो तो लड़के वाले बाहर से आते हैं इसलिए समझ नहीं पाते, वर्ना इस शहर के लोगों की तो जुबान पर स्वाद चढ़ा है इनका. एक बार में पहचान जाएँ......
और बुनाई???? बुनाई के नाम पर नीरा केवल उल्टा-सीधा बुन सकती है, वो भी तब तक जब तक स्वेटर में कुछ घटाने की बारी न आये. पिछली बार माँ राहुल का स्वेटर बना रहीं थी. पीछे का पल्ला नीरा को पकड़ा दिया था. नीरा ने किताब पढ़ते-पढ़ते जो बुनाई की, तो दो फंदे ऐसे छोड़ दिए, जिन्होंने पूरी बुनाई ही उधेड़ के रख दी. तब से लेकर आज तक माँ ने बुनाई के नाम पर नीरा को ऊन तक नहीं पकडाया होगा.
थक गई है नीरा ये झूठी बातें सुनते-सुनते. कितनी बार उसने माँ-पापा से कहा है कि उसकी झूठी तारीफें न किया करें. उसे पढने का शौक है, लिखने का शौक है, म्यूज़िक का शौक है, लेकिन ये सारी चीज़ें तो होने वाली बहू के गुणों में शामिल नहीं हैं न!! बस इसीलिये उसके इन गुणों का ज़िक्र तक नहीं किया जाता.
एक अच्छी बहू के गुण हैं- गोरा रंग, खूबसूरत चेहरा, नज़रे हमेशा नीची रखने वाली, हर बात सिर झुका के मानने वाली, पलट के जवाब न देने वाली, अपने विचार स्वयं तक सीमित रखने वाली, और हर कार्य में दक्ष .
लेकिन नीरा तो ऐसी नहीं है.एक बहू के लिए निर्धारित इन तथाकथित गुणों में से एक भी नहीं है उसमें. गलत बात तो नीरा को बर्दाश्त ही नहीं होती. किसी की भी हाँ में हाँ मिलना तो उसने सीखा ही नहीं है. अपने बेवाक विचारों की प्रस्तुति के कारण ही कॉलेज में उसका अच्छा प्रभाव था. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में हमेशा प्रथम स्थान मिलता रहा है उसे. कितने सर्टिफिकेट, कितने मेडल, कितने ईनाम...........लेकिन सब बेमानी. सब बेकार. पिछली बार यही तो कह रहे थे पापा-
" इनामों को चाटेंगे क्या ससुराल वाले? इसे कुछ घर का कामकाज सिखाओ भाई"
माँ ने भी जैसे पापा के आदेश को सिर-माथे लिया था. रसोई का हर छोटा-बड़ा काम सिखाने की कोशिश करतीं. हालाँकि इतनी मूर्ख नहीं थी नीरा. घरेलू काम काफी कुछ आते हैं उसे. सुघड़ तो है ही. काम चलाने लायक खाना भी बना लेती है. घर को सजा-संवार के रखना उसे अच्छा लगता है. बहुत सलीके से बातचीत करना आता है उसे. अगर फ्री हो के किसी मसले पर चर्चा करती है, तो सामने वाला हमेशा प्रभावित होता है उससे.
लेकिन लड़के वालों के सामने तो सिर झुकाए केवल हाँ में जवाब देते बैठे रहना पड़ता है उसे. कई बार तो उसकी मौजूदगी में हो रही सामजिक या राजनैतिक चर्चाओं में अपने विचार व्यक्त करने के लिए कसमसाती रह गई है वह. हमेशा " बिना मुंह की बिटिया है हमारी " जैसे पापा के स्लोगन का सिर झुका के पालन करती रही है, नीरा.
कितनी बार माँ-पापा से कहा है उसने कि अब ये दिखने-दिखाने का कार्यक्रम बंद करें. तीन बार रिजेक्ट हो चुकी है वह. अब बस. लेकिन ये लोग मानते कहाँ हैं?
" क्यों ? घर में बैठे रहने का इरादा है क्या?"
" छोटी बहनों का ख़याल नहीं है?"
"लोग क्या कहेंगे?"
जैसे जुमले अब बोलने के पहले ही उसे सुनाई देने लगते हैं. अब आज एक बार फिर घर संवारा जा रहा है. पापा इस बार कुछ ज्यादा ही खुश हैं. उन्हें जैसे पक्का भरोसा है कि बात बन ही जायेगी.
फिर पर्दे बदले जा रहे हैं. कुशन बदले जा रहे हैं. नई क्रॉकरी निकली गई है. राहुल को बता दिया गया है कि समोसे-कचौड़ी कब लाने हैं. मिठाई आ गई है.
पता नहीं कहाँ से आ रहे हैं ये लोग. शायद लखनऊ से. पहले तो नीरा को सब बताया जाता था, लेकिन इस बार तो लड़के कि फोटो तक नहीं दिखाई. सोचते होंगे, मना तो होना ही है, पूरा डिटेल बताने से क्या फायदा? नीरा ने भी इसीलिये कोई रूचि नहीं दिखाई, विवरण जानने में.
सोनी आ के नीरा को तैयार होने को कह गई है. शायद मेहमान आने ही वाले हैं. माँ आईं, आते ही, कैसे तैयार होना है, बता गईं. साडी-जेवर सब निकाल कर पलंग पर रख गईं हैं.
नहीं पहनेगी नीरा ये चमकदार साडी. नहीं पहनेगी इतने सारे जेवर. उकता गई है इस सारे दिखावे से. कितनी ही बार इन्ही जेवरों और ऐसी ही साड़ियों में पेश की जा चुकी है. आज तो नहीं ही पहनेगी. अपनी पसंद की हलके गुलाबी रंग की साडी और हल्का सा जेवर पहन लिया है उसने. आज कुछ भी उल्टा-सीधा बर्दाश्त नहीं करेगी नीरा. तय कर लिया है उसने.
नीचे से बुलावा आया तो नीरा चल दी ड्राइंगरूम की तरफ. पापा पिछले अनुभवों और आदत के मुताबिक़ नीरा की खूबियों का बखान करने में व्यस्त थे.
ड्राइंगरूम में आ गई थी नीरा.
"बैठो बेटी"
बैठ गई नीरा. धीरे से प्रस्तावित लड़के को देखने की कोशिश की. अरे बाप रे!!!! ये लड़का है? इतना उम्रदराज़??? क्या हो गया है पापा को? क्या सचमुच बोझ बन चुकी हूँ मैं?? सोचा नीरा ने. न. अब तो किसी की ज़बरदस्ती बर्दाश्त नहीं करेगी नीरा.
" बेटी क्या कर रही हो आजकल?"
" जी, पापा ने नहीं बताया?"
उलटे सवाल से हडबडा गईं तथाकथित लड़के की माता जी.
" कढाई, बुनाई, सिलाई, कुछ आता है?"
"नहीं:
"मगर तुम्हारे पापा तो बता रहे थे......"
"गलत बता रहे थे. यहाँ जो भी कुशन या टेबिल-क्लॉथ दिखाई दे रहे हैं, उन्हें मेरा बनाया न समझें. ये सब बाज़ार से
खरीदे गए हैं."
भावी वधु के जवाब से तिलमिलाई माताजी समझ ही नहीं पा रहीं थीं कि क्या पूछें?
" खाना बना लेती हो?"
"नहीं. बस दाल-चावल या एक-दो सब्जियां बना लेती हूँ. आप इसे काम चलाऊ कह सकतीं हैं लेकिन स्पेशल डिशेज़ बनाना मुझे नहीं आता. "
"मगर तुम्हारे पापा तो बता रहे थे..........'
"गलत बता रहे थे. ये समोसे-कचौड़ियाँ तो फूलचंद भजिया वाले के यहाँ से आये हैं. इतना अच्छा नाश्ता बनाना मुझे नहीं आता. "
हताशा भरा अंतिम सवाल आया माता जी का-
" जब ये सब घरेलू काम तुम्हें नहीं आते, इनका शौक ही नहीं है तुम्हें, तो फिर आखिर शौक किस चीज़ का है?"
" मुझे पढने, लिखने , खेलने, और अच्छा- अच्छा खाना खाने का शौक है. और अगर कोई कुछ सिखाए तो उसे सीखने का भी शौक है"
" मगर तुम्हारे पापा तो कह रहे थे कि तुम गाना......"
" गलत कह रहे थे. मुझे खुद गाने का नहीं, गाने सुनने का शौक है."
हक्के-बक्के से लड़के वाले एक-दूसरे की तरफ देख रहे थे और पापा? क्रोध नहीं था उनके चेहरे पर......कुछ राहत ही नज़र आ रही थी वहां भी.....शायद उम्र पाया दामाद उन्हें भी पसंद नहीं था.
पापा और माँ को शायद शर्मिंदा किया था नीरा ने लेकिन भविष्य में लगने वाली अपनी उस नुमाइश का अंत कर दिया
था उसने , जो लड़के वालों के इंकार के बाद नीरा को शर्मिंदा करती थी........लेकिन अब नहीं. अब नीरा जाग गई है.


नहीं चाहिये आदि को कुछ....


"ये क्या है मौली दीदी?"
" आई-पॉड है."
"ये क्या होता है?"
" अरे!!!! आई-पॉड नहीं जानते? बुद्धू हो क्या?"
इतना सा मुंह निकल आया आदि का. क्या सच्ची बुद्धू है आदि ? क्लास में तो अच्छे नंबर पाता है.....हाँ, कुछ चीज़ों के उसने नाम सुने हैं, लेकिन देखा नहीं है.
"अरे पागल, ये आई-पॉड है, इसमें बहुत सारे गाने भरे हैं. पांच सौ से ज्यादा गाने डाउन-लोड कर सकती हूँ मैं इसमें. और हाँ ये एम्.पी. फ़ोर है."
" इत्ते सारे गाने? इसमें??? ..............वैसे मौली दी, ये एम्. पी. फ़ोर क्या है......?"
पूछते हुए अपने आप में सिमट गया था आदि, पता नहीं अब कौन से विशेषण से नवाज़ा जाएगा उसे..........
" अरे इधर आओ बसंतकुमार, मैं तुम्हें समझाती हूँ. "
आदि झिझकते-सकुचाते मौली के पास बैठ गया.
" ये देख , स्क्रीन दिखता है इसमें?"
"............................"
" दिखता है या नहीं?"
' दिखता तो है"
' तो जब हम कोई वीडियो क्लिप इसमें डाउन-लोड करेंगे तो वो हमें इसी स्क्रीन पर दिखाई देगी. समझा कुछ?"
" हां...समझा तो...."
" और गाने सुनने के लिए वही, ईयरफोन"
" ये कितने का आता है मौली दी?"
" मंहगा नहीं है यार, बस टू थाऊजंड का है."
" टू थाऊजंड..........यानि सौ के कितने नोट मौली दी..?"
सात साल का आदि , मुश्किल में पड़ गया था.........
" अरे बुद्धू, हंड्रेड के ट्वेंटी नोट यानि सौ-सौ के बीस नोट."
" सौ -सौ के बीस नोट.................... तब तो बहुत सारे रूपये चाहिए....."
" अब इतने सारे भी नहीं हैं ये. अपने पापा से कहना, तो वे ला देंगे तुम्हारे लिए."
बारह साल की मौली ने अपना ज्ञान बघारा.
आदि, यानि पांडे जी का छोटा बेटा, जब भी मौली के घर जाता है, चमत्कृत होता है. कितना बड़ा घर, कितना सारा सामान..... सबके अलग-अलग कमरे..
कितने सारे सामानों के तो नाम ही नहीं जानता आदि.... वो तो मौली दी बहुत अच्छी हैं, सब सामानों के बारे में बताती हैं.
आदि हमेशा सोचता है, उसका घर मौली के घर जैसा क्यों नहीं है? हम लोग किराए के घर में क्यों रहते हैं? मौली दी कोई फरमाइश करें, तो उनके मम्मी-पापा तुरंत पूरी करते हैं, मेरी फरमाइशें क्यों पूरी नहीं होतीं? जब भी कुछ मांगो तो फट से सुन लो " हमारे पास पैसों का पेड़ नहीं है, जो तोड़-तोड़ के तुम्हारी ऊटपटांग मांगें पूरी करते रहें."
मौली दी के बगीचे में पैसों का पेड़ लगा है क्या?
ज़रूर लगा होगा ! उसी से तोड़-तोड़ के सामान खरीदते होंगे.
आदि को मौली के घर में रहना बहुत अच्छा लगता है. सब एक दूसरे से कितने प्यार से बातें करते हैं. आदि भी पूरे घर में कहीं भी आ-जा सकता है. कोई मनाही नहीं. उसके घर में तो जब देखो तब चख-चख . मम्मी कुछ घरीद लें, तो पापा घर सिर पे उठा लेते हैं. कितना चिल्लाते हैं! दिन रात खटने की दुहाई देते हैं. हर बात में कह देते हैं, पैसा नहीं है....
पता नहीं , पैसों का पेड़ क्यों नहीं लगा लेते.....पौधा तो मौली दी के घर से मिल ही जाएगा. शायद कलम लगती हो.........
पूछेगा आदि मौली से.
मौली दी के पापा कितने अच्छे हैं. कितनी बड़ी बड़ी चॉकलेट लाते हैं उनके लिए. आदि को सब चॉकलेटों के नाम और स्वाद मालूम हैं. मौली दी उसे भी खिलाती हैं न! चॉकलेट खाने के बाद जब मौली दी उसका रैपर फ़ेंक देतीं हैं , तो आदि चुपचाप उसे उठा लेता है, एकदम नज़र बचा के. पूरा डिटेल पढ़ता है. बार-बार सूंघता है रैपर को ...और फिर सहेज के रख लेता है.
आदि के पापा तो कभी चॉकलेट खरीदते ही नहीं. कभी-कभार टॉफी ला देते हैं, तो वो भी बस दो-दो ही मिलतीं हैं दोनों भाइयों को. और मांगो तो डपट देते हैं कि " दाँत खराब करना हैं क्या?"
मौली दी के दाँत तो एकदम सफ़ेद हैं.....................
मौली दी के पापा गाड़ी से ऑफिस जाते हैं. एकदम चमाचम गाड़ी. सुबह सबसे पहले उनका नौकर गाड़ी ही साफ़ करता है. मौली दी का नौकर उनकी गाड़ी, और उसके पापा अपनी साइकिल लगभग एक ही समय पर साफ़ करते हैं.
अच्छा नहीं लगता आदि को......................
उसके पापा गाड़ी क्यों नहीं खरीदते? पूछा था आदि ने पापा से, लेकिन उन्होंने हंसी में उड़ा दिया.....आदि समझ ही नहीं पाता पापा की बातें.
लेकिन आदि को मौली दी की तरह रहना अच्छा लगता है. उसके दोनों दोस्त , रोहन और अनवर भी तो मौली दी की तरह ही रहते हैं. पैरेंट्स-मीटिंग में उनके पापा भी तो गाडी से ही आते हैं. लेकिन आदि के पापा....................
पिछली बार साइकिल के डंडे पर बैठा आदि कितना शर्मिंदा हो गया था , जब रोहन की गाडी ठीक उसकी बगल में आकर खड़ी हो गई थी.
अब तो आदि भी कई बार झूठ बोल देता है............. सब बड़ी-बड़ी बातें हैं.....अगर वो झूठ न बोले और बता दे कि उसका कोई कमरा नहीं , वो तो रात को बाबा आदम के ज़माने के , तांत की बुनाई वाले सोफे पर सोता है, तो कौन उससे दोस्ती करेगा? भला हो मौली दी का , जिनके कारण न केवल उसे हर आधुनिकतम सामान देखने को मिलता है, बल्कि उनका इस्तेमाल भी जानता है. इसीलिये अपने दोस्तों के बीच किसी भी सामान के बारे में ऐसे बताता है , जैसे वो मौली का नहीं, उसका खुद का हो.
काश! उसने मौली के घर जन्म लिया होता!
अपने घर में वो जब भी आसनी बिछा के खाना खाने बैठता है तो उसे मौली दी की डाइनिंग टेबल खूब-खूब याद आने लगती है. चमकती हुई...शीशे की.....उस पर क्रॉकरी....
कितनी नफ़ासत से सब थोडा-थोडा खाना निकालते हैं प्लेट में...
उसके पापा तो जब खाना खाने बैठते हैं , तो मम्मी रोटियों कि पूरी गड्डी ही रख देतीं हैं थाली में. सब्जी भी ऊपर तक भर देतीं हैं कटोरी में. मौली दी के यहाँ खाते समय कोई आवाजें नहीं करता, और आदि के यहाँ?
पापा तो इतनी आवाजें करते हैं न, कि दूसरे कमरे में बैठा आदि बता सकता है, कि वे कब क्या खा रहे हैं. चाय भी ऐसे सुड़क-सुड़क के पीते हैं, कि आदि सोते से जाग जाता है.
पहले आदि को पापा की सारी आदतें बहुत अच्छी लगतीं थीं. वो भी चाय सुड़कने लगा था. लेकिन मौली दी की मम्मी ने समझाया , उसने चाय सुडकना बंद कर दिया.
समझाया तो उन्होंने ये भी था कि बच्चे चाय नहीं पीते, तुम दूध पिया करो.
उसने मम्मी से कहा भी था कि वे उसे दूध दिया करें. लेकिन मम्मी ने कहा कि अभी कुछ दिन चाय पियो, फिर अगले महीने से दूध बढ़ा लेंगीं. लेकिन वो अगला महीना आया ही नहीं......
उसकी कोई भी बात मम्मी पूरी नहीं करतीं. पिछली बार अपने जन्मदिन पर आदि ने कहा था कि उसे भी मौली दी की तरह केक काटना है. मौली दी से कन्फेक्शनरी का पता भी ले आया था. पापा गए भी थे दुकान तक, लेकिन फिर बिना केक के लौट आये . बोले- बहुत मंहगे है. मम्मी झट से बोलीं- मैं घर में बना दूँगी. आदि खुश.
लेकिन मम्मी ने क्या किया? हलवा बना के उसी को केक के आकार में जमा दिया!
कितनी अच्छी हैं मौली दी की मम्मी.....एक उसकी मम्मी हैं...दिन भर काम करतीं हैं, और अपनी ही साडी से हाथ पोंछतीं रहतीं हैं. कभी आदि को डांटती हैं कभी भैया को.
काश! मौली दी कि मम्मी उसकी मम्मी होतीं.................
सुबह देर से आँख खुली थी आदि की. किसी ने जगाया ही नहीं. जब उठा तो घर कितना सूना-सूना लग रहा था. न मम्मी कि आवाजें न पापा कीं. कहाँ गए ये लोग?
अन्दर से बाहर तक ढूंढ लिया मम्मी को, नहीं मिलीं. केवल भैया बाहर बैठा था. उसी ने बताया कि बड़े सबेरे मम्मी कि तबिअत अचानक ही ख़राब हो गई, तो पापा उन्हें हॉस्पिटल ले गए हैं. और ये भी कि दस बजे जब भैया स्कूल जाएगा तब आदि को मौली के घर छोड़ देगा, पूरे दिन के लिए.
मौली दी के घर! पूरे दिन!! बांछें खिल गईं आदि कीं. मम्मी बीमार हैं, ये भी भूल गया. फटाफट नहा-धोकर तैयार हो गया.
मौली दी भी उस समय स्कूल में थीं, जब आदि उनके घर पहुंचा. आंटी ने उसे ढेर सारी स्टोरी बुक्स दे दीं.
लेकिन कितनी देर पढता आदि? थोड़ी देर में ही बोर होने लगा. तभी आंटी ने उसे ब्रेक-फास्ट के लिए बुलाया . आदि प्रसन्न. टेबल पर आंटी, अंकल और आदि. आंटी ने टोस्ट पर बटर लगाया, प्लेट उसकी ओर खिसकाई.
गपागप खा गया आदि. और की इच्छा थी, लेकिन मांगे कैसे? सब दो पीस ही खा रहे थे. उसका घर होता तो मम्मी पहले ही चार ब्रेड देतीं.
फिर लंच के समय भी............
उसका मन हो रहा था कि कुर्सी पर ही आलथी-पालथी लगा के बैठ जाए लेकिन............
मन हो रहा था कि चम्मच फेंक के , पूरी कटोरी की दाल चावल में उड़ेल के, हाथ से खा ले, जल्दी-जल्दी लेकिन..................
बहुत बंधा-बंधा सा महसूस कर रहा था आदि................मम्मी की याद आ रही थी. पता नहीं उन्हें क्या हो गया? अपने घर की भी बहुत याद आ रही थी. शाम होते-होते उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, न कम्प्यूटर, न वीडियो गेम न और कुछ......................
[1383411_3355523144087_1157254373_n.jpg]" आदि आओ बेटा....." पापा की आवाज़ सुन उछाल पड़ा आदि, जैसे बरसों बाद सुनी हो ये आवाज़. लगा कितने दिन हो गए, घर छोड़े...............
दौड़ता हुआ बाहर आया. मौली दी को बाय तक कहना भूल गया.........
घर पहुँच के मम्मी से लिपट गया आदि. कितना सुकून......................कितना सुख. न नहीं चाहिए उसे मौली का घर, मौली की मम्मी.
भैया चाय बना लाया था. पापा अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सुडकने लगे. आदि मुस्कुराया. अपना कप उठाया, प्लेट में चाय डाली, और खूब जोर से सुड़क गया.

वन्दना अवस्थी दुबे 


इन अभिव्यक्तियों के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न, मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर.....

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