जब शाम हुई आँखों में रात ग़ज़ल बन उतरी 
तुम पास हुए या दूर हुए 
चाँद से एक ग़ज़ल चाँदनी बन उतरी 
……… आज का उत्सवी रंग गज़लनुमा है 
किस किसको सुनिए 
किस किसको पढ़िए 
यह भी ग़ज़ल 
वो भी ग़ज़ल 
…………… ग़ज़ल की बात है तो सबसे पहले जगजीत सिंह की ग़ज़ल से एक आलम बनाते हैं -




प्राण शर्मा जी की एक ग़ज़लः

परखचे अपने उड़ाना दोस्तो आसां नहीं
आपबीती को सुनाना दोस्तो आसां नहीं

ख़ूबियां अपनी गिनाते तुम रहो यूं ही सभी
ख़ामियां अपनी गिनाना दोस्तो आसां नहीं

देखने में लगता है यह हल्का फुल्का सा मगर
बोझ जीवन का उठाना दोस्तों आसां नहीं

रूठी दादी को मनाना माना कि आसान है
रूठे पोते को मनाना दोस्तो आसां नहीं

तुम भले ही मुस्कुराओ साथ बच्चों के मगर
बच्चों जैसा मुस्कुराना दोस्तो आसां नहीं

दोस्ती कर लो भले ही हर किसी से शौक से
दोस्ती सब से निभाना दोस्तो आसां नहीं

आंधी के जैसे बहो या बिजली के जैसे गिरो
होश हर इक के उड़ाना दोस्तो आसां नहीं

कोई पथरीली जमीं होती तो उग आती मगर
घास बालू में उगाना दोस्तो आसां नहीं

एक तो है तेज पानी और उस पर बारिशें
नाव कागज़ की बहाना दोस्तो आसां नहीं

आदमी बनना है तो कुछ ख़ूबियां पैदा करो
आदमी ख़ुद को बनाना दोस्तों आसां नहीं

प्राण शर्मा

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प्रकाशित रचनाएँ: ग़ज़ल कहता हूँ , सुराही (मुक्तक-संग्रह). ‘अभिव्यक्ति’ में प्रकाशित ‘उर्दू ग़ज़ल बनाम हिंदी ग़ज़ल’ और साहित्य शिल्पी पर ‘ग़ज़ल: शिल्प और संरचना’ के १० लेख हिंदी और उर्दू ग़ज़ल लिखने वालों के लिए नायाब हीरे हैं.

सम्मान और पुरस्कार: १९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.
२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.


बेवफा ज़िन्दगी .....

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अब भी तो कुछ रहम कर ऐ बेवफा ज़िन्दगी
दे रही किस बात की तू सज़ा ज़िन्दगी

सांस लेना भी क्या अब गुनाह हो चला है
हो रही क्या मुझसे यही खता ज़िन्दगी..

ख़ुशी में खुश होने का भी हक दिया नहीं तूने
क्यों करती रही हरदम ज़फ़ा ज़िन्दगी

निचुड़ी हुई आँखे और होंठ बेबस मुस्कुराने को
क्यों ऐसी रही तेरी बेदर्द अदा ज़िन्दगी

बेरहम, तू उसे आने भी तो नहीं देती
कि मौत आये और तेरा हर सितम हो फना ज़िन्दगी 

स्नेहा गुप्ता 


सामने कुछ पीछे कुछ और कहा करते हैं
इस शहर में बहुरूपिये रहा करते हैं ।
किसी तरह बस अपना भला हो जाए
इसी वजह लोग औरों का बुरा करते हैं ।
जिनके बस में नहीं होता बुलंदियाँ छुना
फिकरे औरों की फ़तह पर वो कसा करते हैं ।
ठोकर मत मार इन्हें ये अंधेरों में याद आयेंगे
सूरज छिप जाता है तो चिराग़ जला करते हैं । 
रौशनी जितना दबाओगे और बाहर आएगी
कहीं हाथों के घेरों से समंदर रुका करते हैं ।
खातिर अपनों के मत छीन ग़ैर बच्चों की खुशी
हर बच्चे के भीतर भगवान् बसा करतें हैं ।
एक अज़ब सा रिवाज़ है इस शहर में "दीपक"
लोग नशे से दवा , दवाओं से नशा करते हैं ।



दीपक शर्मा



.........समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद 

3 comments:

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