मैं बड़ी हूँ या छोटी हूँ, काव्य हूँ या कहानी 
सूक्ष्म या विस्तृत, प्रत्यक्ष हूँ या रहस्य  … 
खुद नहीं जानती , पर हूँ - यह सत्य है !

                       रश्मि प्रभा 


और इसी सत्य की धुन है सत्य की खोज ! एक सत्य जब तक मिलता है, कई कारण' उस सत्य के पीछे का सत्य बन उभरते हैं, कभी सत्य के लिए झूठ का सत्य,कभी झूठ के लिए सत्य - सत्य बगैर झूठ के चलता ही नहीं  … 



मैं नहीं जानती
उपयोग करने की कला
किसे…..? कैसे….?
किस लिए……?  कब तक ?
उपयोग करना नहीं आता
नहीं …….
कभी ख्याल नहीं आता

हाँ
उपयोग होना सीखा है
माँ से.……
माँ कहती है इसमें सुख है.…

सुख ?
हाँ.......सुख
दबा-दबा सा सुख
झाँकता-छुपता सा सुख
कभी मंद-मंद सा मुस्कुराता सुख और
वक़्त के गुज़रते जाते ही
उसके चाको में
पिसता सुख, घिसता सुख
करहता सुख, दम तोड़ता सुख

देखा है मर्तबा मैंने
उपयोग चीज़ों का बेहतरी से
पर इंसान का उपयोग
डराता है

समझ नहीं पाती हूँ
कैसे वस्तु का स्थान
एक साँस लेते जीवित व्यक्ति को
दे दिया जाता है

यह शर्मनाक है, घिनौना है
अमानवीय है, दर्दनाक और वीभत्स है

मैं उपयोगिता के
स्तर को बाँट चुकी हूँ
बाँट रही हूँ........
कई अर्थों में और
मज़बूर हूँ समय के आगे
उसके सामने मेरे हाथ फैले है
जिस पर समय ने
उपयोगिता की मुहर लगा रखी है और
अब मैं उपयोग होने के अलावा
कुछ नही कर सकती तब तक

जब तक
मुझ पर बैठा
वक़्त का तानाशाह
मुझे अपनी कैद से आज़ाद नहीं करता

जब तक
मेरी उपयोगिता की
समय सीमा समाप्त नहीं हो जाती
मुझमें बसने वाली एक भी उपयोगिता की नब्ज़
अपना दम नहीं तोड़ देती
तब तक........
मेरे हाथ यूँही फैले रहेंगे

समय की मुहर
मेरे हाथों की लकीरों में
समां कर मेरे अंतर-मन में जा बैठी है
जो अब मुझे सोचने नहीं देती
समझने नहीं देती
जैसे मेरे मन का एक हिस्सा
सुन्न हो गया है, सब शान्त हो गया है

बस
समय है और उसमें बहती
मेरी उपयोगिता……..

*********************************
प्रियका सिंह----

© पियु....

आगरा में जन्म. वहीं से जीवन के सबक सीखे और कविताओं का ककहरा भी. पढ़ने
में रुचि के साथ अमृता प्रीतम जी मुझे साहित्य तक खींच कर लाईं।  कई
पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित लेखन और पढ़ने के अलावा
संगीत में रुचि. लिखना सीखना अनवरत जारी है। अपने लिए दो पंक्तियाँ कहती
हूँ -
बड़ी देर से जागी हूँ
अब कुछ ख्वाब देखने है ज़िन्दगी के लिए…….

7 comments:

  1. जब तक
    मुझ पर बैठा
    वक़्त का तानाशाह
    मुझे अपनी कैद से आज़ाद नहीं करता
    बड़ी देर से जागी हूँ
    अब कुछ ख्वाब देखने है ज़िन्दगी के लिए…
    (h) (h) (h) (h) (h)

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  2. कौन जानता है कोई नहीं लगता है जानते हैं
    बहुत बढ़िया ।

    जवाब देंहटाएं
  3. कौन जानता है कोई नहीं बस लगता है जानते हैं

    बहुत खूब ।

    जवाब देंहटाएं
  4. अति उत्तम भाव प्रवाह ! रचना पाठक की नब्ज़ को अंत तक पकड़े रही। साधुवाद।
    विजय निकोर

    जवाब देंहटाएं

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