मैं कोई ऋषि मुनि तो नहीं 
पर जन्म से मेरे भीतर कोई समाधिस्थ है 
कई ज्ञान के रहस्यमय स्रोत उसका स्नान करते हैं 
ज्ञान की असंख्य रश्मियाँ उसे सूखाती हैं,तपाती हैं 
लक्ष्मी प्रेम रूप में निकट से गुजरती हैं 
मुक्त हाथों मोतियों के दान की शिक्षा 
वीणा के हर झंकृत तार से सरस्वती देती हैं 
श्राप के शब्द उसकी जिह्वा पर नहीं 
पर  ……
झूठ, अपमान के विरोध में 
जब जब शिव ने उसकी शिराओं में तांडव किया है 
अग्नि देवता की लपटें ही सिर्फ दिखाई देती हैं 
जिसकी चिंगारियों में 'भस्म' कर देने का हुंकार होता है 
सहस्त्र बाजुओं में कई मुंडमाल होते हैं 

                                            रश्मि प्रभा 


यही शरीर, बुद्ध: हां, तुम।.

अगर सब कुछ ठीक है [तुम्हारे शरीर के साथ], तुम पूरी तरह इससे अनजान रहते हो और, वास्तव में, वही क्षण है जब संपर्क किया जा सकता है, जब सब कुछ ठीक होता है। क्योंकि जब कुछ गलत हो जाता है तो संपर्क बीमारी के साथ बन जाता है, कुछ ऐसी वस्तु के साथ जो गलत हो गई है और अब स्वास्थ्य नहीं है। तुम्हारे पास एक सिर है, फिर सिर दर्द होता है और तब तुम संपर्क करते हो।

लेकिन हमने वह क्षमता लगभग खो दी है। कोशिश करो अपने शरीर के साथ संपर्क बनाने की जब सब कुछ अच्छा है। 
बस घास पर लेट जाओ, आंखें बंद करो और संवेदना जो भीतर जारी है महसूस करो, सुख जो अन्दर बुदबुदा रहा है। नदी में लेट जाओ। पानी शरीर को छू रहा है और प्रत्येक कोशिका ठंडी हो रही है। महसूस करो अन्दर ठंडक कैसे प्रवेश करती है, कोशिका दर कोशिका, और शरीर में गहरी चली जाती है। शरीर एक महान घटना है, प्रकृति के चमत्कारों से एक है ।

धूप में बैठो। सूरज की किरणों को शरीर में प्रवेश करने दो। गर्मी को अपने अन्दर जाता महसूस करो, किस तरह यह गहरी जाती है, किस तरह यह तुम्हारी रक्त कोशिकाओं को छू लेती है और हड्डियों तक पहुंच जाती है। सूरज जीवन है, उसका स्रोत है। तो बंद आंखों से महसूस करो क्या हो रहा है। सावधान रहो, देखो और आनंदित रहो।

धीरे-धीरे तुम एक बहुत ही सूक्ष्म सामंजस्य से अवगत हो जाओगे, एक बहुत ही सुंदर संगीत लगातार अंदर चल रहा है। तो फिर तुमने शरीर के साथ संपर्क किया है, नहीं तो तुम मृत शरीर ढो रहे हो।

तुम्हारा शरीर किसी प्रणाली के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, तो तुम्हें इसके बारे में बहुत संवेदनशील नहीं होना चाहिए। शरीर बहुत सी बातें कह रहा है पर तुमने कभी नहीं सुनी क्योंकि तुम्हारा कोई संपर्क नही है। तो अपने शरीर के बारे में अधिक से अधिक संवेदनशील बनने की कोशिश करो। इसकी बात सुनो, यह बहुत सी बातें कहे चला जा रहा है, और तुम इतने ज्यादा ख्यालों में रहते हो कि तुम इसकी कभी नहीं सुनते।

जब भी तुम्हारे मन और शरीर के बीच संघर्ष होता है, तुम्हारा शरीर लगभग हमेशा सही होगा, तुम्हारे मन से भी अधिक, क्योंकि शरीर प्राकृतिक है, तुम्हारा मन सामाजिक है। शरीर इस विशाल प्रकृति का है, और तुम्हारा मन तुम्हारे समाज, तुम्हारे विशिष्ट समाज, उम्र और समय के अंतर्गत आता है। शरीर की अस्तित्व में गहरी जड़ें हैं और मन सिर्फ सतह पर लहरा रहा है। लेकिन तुम हमेशा मन की सुनते हो, तुम कभी शरीर की नहीं सुनते। इस लम्बी आदत की वजह से संपर्क खो गया है।

पूरा शरीर हृदय केन्द्र के आसपास स्पंदित होता है जैसे कि संपूर्ण सौर मंडल सूरज के चारों तरफ घूमता है। जब दिल ने धड़कना शुरू किया तभी तुम जिंदा हो गये, तुम मर जाओगे जब दिल धड़कना बन्द कर देगा। दिल तुम्हारे शरीर का सौर केंद्र बना रहता है।। इसके प्रति सजग हो जाओ। लेकिन तुम धीरे-धीरे केवल तभी सजग हो सकते हो, जब तुम पूरे शरीर के प्रति सचेत होते हो।

ओशो, वेदांत: 
http://www.osho.com/hi

बुद्ध .........कौन ? ........एक दृष्टिकोण

बुद्ध .........कौन ? 
सिर्फ एक व्यक्तित्व या उससे भी इतर कुछ और ? एक प्रश्न जिसके ना जाने कितने उत्तर सबने दिए. यूँ तो सिद्धार्थ नाम जग ने भी दिया और जिसे उन्होंने सार्थक भी किया ..........सिद्ध कर दे जो अपने होने के अर्थ को बस वो ही तो है सिद्धार्थ ..........और स्वयं को सिद्ध करना और वो भी अपने ही आईने में सबसे मुश्किल कार्य होता है मगर मुश्किल डगर पर चलने वाले ही मंजिलों को पाते हैं  और उन्होंने वो ही किया मगर इन दोनों रूपों में एकरूपता होते हुए भी भिन्नता समा ही गयी जब सिद्धार्थ खुद को सिद्ध करने को अर्धरात्रि में बिना किसी को कुछ कहे एक खोज पर चल दिए . अपनी खोज को पूर्णविराम भी दिया मगर क्या सिर्फ इतने में ही जीवन उनका सार्थक हुआ ये प्रश्न लाजिमी है . यूँ तो दुनिया को एक मार्ग दिया और स्वयं को भी पा लिया मगर उसके लिए किसी आग को मिटटी के हवाले किया , किसी की बलि देकर खुद को पूर्ण किया जिससे ना उनका अस्तित्व कभी पूर्ण हुआ .......हाँ पूर्ण होकर भी कहीं ना कहीं एक अपूर्णता तो रही जो ना ज़माने को दिखी मगर बुद्ध बने तो जान गए उस अपूर्णता को भी और नतमस्तक हुए उसके आगे क्यूँकि बिना उस बेनामी अस्तित्व के उनका अस्तित्व नाम नहीं पाता , बिना उसके त्याग के वो स्वयं को सिद्ध ना कर पाते ...........इस पूर्णता में , इस बुद्धत्व में कहीं ना कहीं एक ऐसे बीज का अस्तित्व है जो कभी पका ही नहीं , जिसमे अंकुर फूटा ही नहीं मगर फिर भी उसमे फल फूल लग ही गए सिर्फ और सिर्फ अपने कर्त्तव्य पथ  पर चलने के कारण , अपने धर्म का पालन करने के कारण ........नाम अमर हो गया उसका भी ...........हाँ .......उसी का जिसे अर्धांगिनी कहा जाता है ..........आधा अंग जब मिला पूर्ण से तब हुआ संपूर्ण ..........वो ही थी वास्तव में उनके पूर्णत्व की पहचान ............एक दृष्टिकोण ये भी है इस पूर्णता का , इस बुद्धत्व का जिसे हमेशा अनदेखा किया गया .


पूर्णत्व की पहचान हो तुम 

यधोधरा
तुम सोचोगी
क्यो नही तुम्हे 
बता कर गया
क्यो नही तुम्हे 
अपने निर्णय से 
अवगत कराया
शायद तुम ना 
मुझे रोकतीं तब
अश्रुओं की दुहाई भी
ना देतीं तब
जानता हूँ
बहुत सहनशीलता है तुममे
मगर शायद 
मुझमे ही 
वो साहस ना था
शायद मै ही
कहीं कमजोर पडा था
शायद मै ही तुम्हारे
दृढ निश्चय के आगे
टिक नही पाता
तुम्हारी आँखो मे
देख नही पाता 
वो सच 
कि देखो 
स्त्री हूँ
सहधर्मिणी हूँ
मगर पथबाधा नही
और उस दम्भ से 
आलोकित तुम्हारी मुखाकृति
मेरा पथ प्रशस्त तो करती
मगर कहीं दिल मे  वो 
शूल सी चुभती रहती
क्योंकि 
अगर मै तुम्हारी जगह होता
तो शायद ऐसा ना कर पाता
यशोधरा 
तुम्हे मै जाने से रोक लेता
मगर तुम्हारा सा साहस ना कहीं पाता
धन्य हो तुम देवी
जो तुमने ऐसे अप्रतिम 
साहस का परिचय दिया
और मुझमे बुद्धत्व जगा दिया
मेरी जीवत्व से बुद्धत्व तक की राह में 
तुम्हारा बलिदान अतुलनीय है 
गर तुम मुझे खोजते पीछे आ गयीं होतीं
तो यूँ ना जन कल्याण होता 
ना ही धर्म उत्थान होता 
हे देवी !मेरे बुद्धत्व की राह का
तुम वो लौह स्तम्भ हो 
जिस पर जीवों का कल्याण हुआ 
और मुझसे पहले पूर्णत्व तो तुमने पा लिया 
क्योंकि बुद्ध होने से पहले पूर्ण होना जरूरी होता है
और तुम्हारे बुद्धत्व में पूर्णत्व को पाता सच 
या पूर्णत्व में समाहित तेजोमय ओजस्वी बुद्धत्व
तुम्हारी मुखाकृति पर झलकता 
सौम्य शांत तेजपूर्ण ओज ही तुम्हारी 
वो पहचान है जिसे गर मैं
तुम्हारी जगह होता 
तो कभी ना पा सकता था 
हाँ यशोधरा ! नमन है तुम्हें देवी 
धैर्य और संयम की बेमिसाल मिसाल हो तुम 
स्त्री पुरुष के फर्क की पहचान हो तुम 
वास्तव में तो मेरे बुद्धत्व का ओजपूर्ण गौरव हो तुम 
नारी शक्ति का प्रतिमान हो तुम 
बुद्ध की असली पहचान हो तुम ........सिर्फ तुम 
वंदना गुप्ता 
http://redrose-vandana.blogspot.in/



हे -गौतम बुद्ध..

(यहाँ आने वाले हर किसी पाठक से प्राथर्ना है कि ..कविता किसी के भी विचारों और भावनायों को आहत करने के लिए नहीं लिखी गई है ...इस कविता को सिर्फ सिर्फ कविता के तौर पर ही पढ़ा जाए )

कभी कभी मै सोचती हूँ
आशा के दीप जलाए
तुम्हे ढूंढ़ रही हूँ 
हे -गौतम बुद्ध 
तुम ...एक भाव
जरुर हो ....
पर पूर्ण कविता नहीं
अपनी ही कैद से भागे
खुले आसमान के नीचे
क्या मिला वहाँ
विचार,एहसास ..अनुभव...
ज्ञान भी ...बाँट लेने को
मानती हूँ मिला होगा
बहुत कुछ .....
पर ज्ञान वो नहीं जो
जो तुमने
किताबो में लिख दिया
और हमने पढ़ लिया ||

जन्म लिया था..
तो
कम से कम उसे
भोगते तो
देखते ...
कितने उतार चड़ाव
है इस जीवन में
जीवन वो नहीं
जो तुमने जिया 
एक पेड़ के नीचे .....
जीवन वो है
जो एक औरत जीती है
अपने परिवार के लिए
माँ,बहन,बेटी और पत्नी
बन के ...
जीवन वो है जो
एक भाई जीता है
अपनी बहनों के लिए
उनके सामने एक आदर्श
रखने के लिए
कर देता है खुद की
इच्छायों का बलिदान
एक परिवार को
उनकी ख़ुशी देने
के लिए
जीवन वो है
जहां चार बाते हो
कुछ झगडा
कुछ प्यार हो
पति पत्नी में
मान- मुनहार हो
तकरार हो
जहाँ ..
इधर उधर की
कह लेने से
मन का गुबार
निकल जाता है
जैसे तैसे
हँसते-खेलते
लड़ते-झगड़ते
ये समय भी
खूब गुज़र जाता है 
हे -गौतम बुद्ध 
अफ़सोस है मुझे
की एक मिले जीवन को
तुमने यूँ ही
व्यर्थ गँवा दिया
देखे नहीं जीवन के सभी रंग
और ज्ञान के शब्दों में
संसार को बहा दिया






अंजू चौधरी
http://apnokasath.blogspot.in/






इसी के साथ आज का कार्यक्रम संपन्न,  मिलती हूँ कल फिर सुबह 10 बजे परिकल्पना पर..... 

3 comments:

  1. सभी रचनाओं का चयन एवं प्रस्‍तुति नि:शब्‍द करते हुये
    आभार

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  2. आहत होने वाला कुछ नहीं है सत्य तो सत्य है खूवसूरत प्रस्तुतियाँ ।

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  3. बहुत सुन्दर चयन .... रश्मि जी बुद्ध और यशोधरा पर आपने भी लिखा है और मैंने भी .... सबके लिखे को पढ़ कर अपनी सोच परिष्कृत होती है . आभार

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