ज़िन्दगी और भीड़ 
शोर और भागती ज़िन्दगी 
मौत की चाह 
जीने के लिए अपने अपने ख्याल 
प्यार,पैसा,पूजा,एकांत  .... 
आओ कुछ पन्नों से रूबरू हों  .... रश्मि प्रभा 

Suicide
ज़िन्दगी में कभी लगे
कि ज़िन्दा रहने का अब कोइ मक्सद ही नहीं,
बेहाल तंगहाल साँसों को खिंच पाना अब और मुमकीन भी नहीं,
दुनिया के सारे ग़म मानो तुम्हारे कमरे ही टिमटिमा रहे हो,
और बक्से में पडी नींद की गोलीयाँ ही बस आखिरी सहारा हो,
तो जाते-जाते,
इस भले मानस की एक बात ज़रुर मानना,
उन गोलियों से पहले,
कुछ देर के लिए ही सही,
किसी सरकारी आस्पताल के बाहार जा बैठना ।

वहाँ, जहाँ ज़िन्दगी को मौत ने घेरा है
पर फिर भी,
हर चौखट पर उम्मीदों का डेरा है ।
कुछ सुनना,
कुछ देखना,
और हो सके तो कुछ समझना ।

कुछ ऐसे मिलेंगे,
जिन्हें पता है अपने आखिरी साँसों का हिसाब ।
कुछ वैसे,
जिन्हें बस हिम्मत का सहारा है ।
और कुछ वे भी,
जिनके तन पर कुछ नहीं
पर मन हारता ही नहीं ।

हर एक की कहानी में कुछ एक से है रंग
हर कहानी में कुछ पन्ने है बेरंग ।
वे भूखे-नंगे-थके-हारे
बस उन पन्नों को ताकते रहते हैं,
दवा-दारु न सही
वो कहानीकार कहीं तो है।
कुछ और पन्नों मे वो रंग ज़रुर फूंक देगा,
“द एन्ड”  को कुछ और पन्नों के पीछे धकेल देगा ।

और एक तुम हो,
जो अपनी कहानी से ही डर रहे हो,
उस कहानी के बिना ही “द एन्ड” कह रहे हो ।
माना कुछ पन्नों पर खुशीयों का मौसम ज़रुर मंदा है,
पर उम्मीदों की छोटी-बडी़ पोटली के सहारे ही तो हम सब ज़िन्दा है।

दिल अब भी समझ ना पाया हो तो,
गोलियाँ बक्से में ही कर रही है तुम्हारा इंतज़ार,
पर उन गोलियों से पहले,
किसी सरकारी आस्पताल के चौखट पर बैठ आना एक बार।


मेरी डायरी के पन्ने.........चंद ख्वाब

मेरा घर बहुत बड़ा था तब, मेरी उम्र बहुत छोटी थी जब, छोटे छोटे पैरों से आँगन में दौड़ती फिरती तब, जहां माँ सर पर आँचल लिए, साग चुना करती थी, उन दिनों मेरे घर में हमेशा हंसने की आवाजें आती, माँ, चाची, दादी, बुआ सब मिलकर आँगन में बैठे कभी अचार बनाती कभी पापड़ और कभी बड़े, मौसम जब गर्मियों का हो, तो अंगम रौशन रहता इनकी हंसी, और हम सब की चहकती आवाजों से, मेरे घर का एक भी शख्स ऐसा न था, जिसने मेरी माँ के हाथों के बुने स्वेटर न पहने हो, मुझे बाहर दोस्त बनाने की कभी ज़रुरत ही न पड़ी, छोटी चाची का बेटा मुझसे एक साल छोटा था, और काकी की दो बेटियाँ मुझसे एक और दो साल बड़ी, मेरे पास एक छोटी नन्ही गुडिया भी तो थी, जिसे माँ हॉस्पिटल से खरीद कर लायी थी, हाँ कई सालों तक तो मैं यही सोचती रही, फिर एक रोज़ बाबूजी ने बताया कि ये तुम्हारी छोटी बहन है, और इसके भी माँ बाबूजी हमदोनो ही हैं, बाबूजी की बात सुन पहली बार समझ में आया था के बड़ा होना किसे कहते हैं! उस रोज़ से गुडिया को नहलाने और तैयार करने की ज़िम्मेदारी मैंने उठा ली थी, उसके एक रोने से मुझे लगता कि क्या कर उसके चेहरे की हंसी वापस ले आऊं, उसका खिलखिलाता चेहरा मेरी ज़िन्दगी बन गया था, मुझे खुद की सुध न रहती एक उसकी हंसी के आगे मुझे कुछ न सूझता,  मुझे आज भी याद है माँ से चाची को कहते सूना था, ‘छोटी बहन के आने से तो अब बड़ी को अच्छा न लगता होगा? उसका प्यार जो बंट गया! तब माँ ने गर्व से कहा था, ना....मेरी अन्नू तो बस प्यार देना जानती है, पाने की तमन्ना इसने कभी की ही नहीं...” पर उस रोज़ मैं काफी देर तक यही सोचती रही, प्यार यदि सिर्फ दिया है मैंने, तो वो क्या था जिसे पाकर मैं इतनी खुश रहती हूँ....मुझसे ज्यादा देर इंतज़ार न हुआ. और जब बाबूजी आए तो मैंने झट से उनसे सवाल किया....मेरे सवाल सुन बाबूजी ने मुझे बहुत प्यार से अपनी गोद में बिठाया और जो कहा वो अब भी याद है मुझे “अन्नू, जो ख़ुशी देने में मिलती है वो पाने में कहाँ, तू इसीलिए खुश है, क्यूंकि तू देना सीख चुकी है, प्यार देना हमेशा और मेरी बिटिया बस तू ऐसी ही रहना.....”


चांदनी (निरुपमा)


आँखें हुईं सजल...!

  
पिछले वर्ष घर गए तो एक बचपन की डायरी साथ ले आये... इतने दिनों से पलटा नहीं यहाँ ला कर भी. अभी उसके फटे हुए पन्नों को पलटते हुए कितने ही वो पन्ने याद हो आये जो बस किसी को यूँ ही दे दिए... कि उन पन्नों पर लिखी कविता उसे पसंद थी...!!! उन कविताओं की कुछ एक पंक्तियाँ याद हो आती हैं, पर इस तरह नहीं कि उन्हें उनकी समग्रता में पुनः लिखा जा सके...
आज इसी डायरी से एक कविता यहाँ लिख लेते हैं कि पन्ने सब अलग अलग हैं, खो जाने की सम्भावना प्रचुर है... 
जिंदगी भी तो ऐसी ही है न... हमेशा कुछ न कुछ खो देने के डर से त्रस्त और ये खो देने का सिलसिला ज़िन्दगी के खो जाने तक चलते ही तो रहना है अनवरत...
खैर, अब कुछ डायरी की बातें... उन दिनों की बातें जब कुछ कुछ कविता जैसी हो होती थी ज़िन्दगी... दोस्तों के साथ खुशियाँ गम और बचपन की छोटी छोटी चिंताएं बाँट लेने के दिन... पंछियों की तरह मुक्त उड़ने के दिन... जीने के दिन... स्कूल की किताबों में उलझे रहने के दिन... खेलने के दिन... हंसने के दिन... खिलखिलाने के दिन और यूँ ही कविताओं के साथ खेलने के दिन!
उन्ही दिनों की लिखी एक कविता... किसी चुटके पूर्जे से इस डायरी में पुनः उतारी गयी २००१ में कभी... काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय में बैठ कर... अपनी पाठ्य पुस्तकें पढ़ते हुए थकती थी... तो कोई पुराना चुटका पूर्जा निकालती थी अपने झोले से... जिसमें कभी की लिखी कवितायेँ होती थी... उन्हें लिख जाती थी डायरी में और फिर लाईब्रेरी से लौटते वक्त उन चुटकों के छोटे छोटे टुकड़े कर हवाओं में उड़ा देती थी, मिटटी में रोप आती थी... वो कागज़ के टुकड़े अबतक कहाँ बचते मेरे पास, अच्छा हुआ कि उन्हें डायरी में लिख लिया... आज डायरी भी अपने कई पन्नो को खो चुकी है... जर्जर अवस्था में है... तो लगता है वहाँ जो बची हैं कवितायेँ...  जो सुखी पंखुडियां अब भी हैं पन्नों के बीच, उन्हें अनुशील पर लिख लिया जाए कि अब तो यही है मेरी डायरी... मेरी यात्रा के विम्बों को सहेजने वाला मेरा पन्ना...!
उस वक़्त की कविता है... तो शीर्षक विहीन है... जो है जैसी है लिख जाए और रह जाए यहाँ किसी पड़ाव की पहचान बन कर...!!!


संतप्त हैं कोटि कोटि प्राण...
वेदना की रात का कैसे हो विहान...
कैसे गीत लयबद्ध हों...
कैसे कविता के शब्द-शब्द प्राण-प्राण से सम्बद्ध हों...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 


आतंकित है पूरा समाज...
उभयपक्ष कैसे अभय हों आज...
कैसे विपदा में धरोहर को बचाया जाए...
कैसे छंदों से क्रांति का विगुल बजाया जाए...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

'मेरा-तेरा' के झगड़े में इंसान पीसा जाए...
ऐसे में आत्मा कैसे स्वाधीन रह पाए...
कैसे संघर्ष के बीच भी मूल चरित्र डटा रहे...
कैसे उपवन से हर क्षण सौंदर्याभिराम सटा रहे...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

हृदय की मायूसी से चेहरा हुआ जाए क्षीण...
जीवन की कंदराओं में कैसे हों किरणें वित्तिर्ण...
कैसे अवसाद को परे हटा खिलना सीखा जाए...
कैसे अनंत सागर में नदियों सा मिलना सीखा जाए...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

हर तरफ पतन हर ओर ह्रास...
बचें कैसे क्षण-प्रतिक्षण बनने से काल का ग्रास...
कैसे कोटि-कोटि जन माला के मोती सम आबद्ध रहें...
क्यूँ टूटने-बिखरने की प्रक्रिया को सुधीजन भी मात्र प्रारब्ध मान सहें...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

हर संचित धन का निश्चित क्षय...
फिर हृदय धन कैसे रह पाए अक्षय...
कैसे मन-मंदिर समृद्धधाम बने...
दंश दोष को कैसे पूर्णविराम मिले...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

पल पल उड़ता ही जाता रंग...
ऐसे में कैसे रह पाए जीवित उमंग...
कैसे बसंत की शोभा में खोये लोगों को सूखे पत्ते दिखाए जायें...
आखिर कैसे मृत्यु की सी मरूभूमि में उल्लास गीत गाये जायें...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 

आदर्श हर क्षेत्र में मरणासन्न...
फिर कैसे हो आहुति के बिना यज्ञ संपन्न...
कैसे त्राहि-त्राहि करता समूह खोयी मुक्ता पाए...
कैसे इस संक्रमणकाल में किरणों का आलम छाए...
यही सोच कर गुजर गए पल
आँखें हुईं सजल! 
***
आखें आज भी सजल ही तो हैं, तो यही हो शीर्षक!!!


अनुपमा पाठक 

अब समय है एक विराम का, मिलती हूँ एक छोटे से विराम के बाद..... 

5 comments:

  1. मैं सोचती थी लोग क्या क्या सोचते है और कैसे .... शायद कम जानती थी मैं .... या जितना जान पायी वो कम था ... यहाँ आ कर इतना कुछ पढ़ा और जाना है की क्या कहूँ .... सबके विचार और लेखन अद्भुत है .... सच है ''जहाँ न पहुचे रवि वहाँ पहुचे कवि '' अद्भुत रचनाएँ और अद्भुत सोच ......नमन परिकल्पना को .....नमन ...

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  2. हर एक की कहानी में कुछ एक से है रंग
    हर कहानी में कुछ पन्ने है बेरंग । बहुत सुन्दर ,कवितायेँ और डायरी के पन्ने .मंजुल भटनागर

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  3. कुछ पन्‍नों का साथ जब चलने लगे ज़ेहन में तो लेखनी पर गर्व होता है
    सभी रचनाकारों को उत्‍कृष्‍ट लेखन पर बधाई

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