सात बच्चों की नृशंस हत्या
फिर भी जीवन बनाने का उपक्रम 
होनी हमेशा घूँघट में नहीं होती 
तभी तो 
हुआ कृष्ण का जन्म !
बचाने का प्रयोजन 
वासुदेव को मिला रास्ता 
भय का तांडव 
फिर भी प्रयास  … 
देवकी की प्रसव पीड़ा 
कृष्ण से दूर होने की मजबूरी 
मनःस्थिति के आगे सामर्थ्य 
अन्याय के आगे अँधेरे में भी उजालों से भरी थी। 
घटित शुभ अंत  देखकर 
हम सब वाह वाह करते हैं 
… पर शुभ अंत के पूर्व प्राकृतिक थपेड़े 
जानलेवा होते हैं 
इच्छाशक्ति की पकड़ साँसों पर हो 
तभी चरितार्थ है,
"जाको राखो साईंयाँ मार सके न कोय  …"
उदाहरण होना कभी आसान नहीं होता 
और उदाहरण भगवान हो 
यह अद्भुत बात है !
सबसे पहले मन के तूफ़ान को नियंत्रित करो 
क्योंकि वह सोच से जुड़ा है 
फिर दुआओं के लिए सर झुकाओ 
क्योंकि कोई दुआ व्यर्थ नहीं जाती 
....
स्वीकार करो,
तूफानों के उत्तरदाई तुम ही हो 
तो उनको शांत करने के उपाय 
तुमको ही ढूँढने होंगे 
यदि होनी काहू विधि ना टरे 
तो तुम्हारे कदम भी निःसंदेह 
परिणामों के निशाँ बनाएँगे 
घर उजड़ता है तो घर बसता भी है 
बसाने का सिलसिला जारी रहे 
तो तूफ़ान भी सोचने पर मजबूर होते हैं 

कृष्ण की चेतावनी कवि दिनकर की कलम से मन को बाँधती है  … 
रश्मि प्रभा 


कृष्ण की चेतावनी / रामधारी सिंह "दिनकर"

वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।

‘दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!

दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।

हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।

‘उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

‘दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

‘शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

‘भूलोक, अतल, पाताल देख,
गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, इसमें कहाँ तू है।

‘अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।

‘जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।

‘बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?

‘हित-वचन नहीं तूने माना,
मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।

‘टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

‘भाई पर भाई टूटेंगे,
विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।’

थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित,
निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!


 सतयुग यानी सत्य का युग 
रश्मि प्रभा 
[*]


सतयुग एक आधार था मानवीय गुणों का, होनी' ने तपस्या, सोच के विपरीत घटना, राक्षसी चरित्र, मोहजाल, भर्मित जाल, संदेह,भेदी रूप, भक्त रूप, भ्रातृ प्रेम, पश्चाताप, वेदना, स्वार्थ, त्याग सबकुछ दिखाया।  कहने का तात्पर्य यह कि अच्छा-बुरा साथ होता है यानि सतयुग-कलयुग दोनों ने अपने अपने रूप निभाए, 
राजा दशरथ के वंश के लिए ऋषि श्रृंगी ने  अयोध्या में आकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' कराया। यज्ञ में राजा ने अपनी रानियों सहित उत्साह से भाग लिया। यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।"  … ऐसा ही हुआ, राम-भरत-लक्ष्मण-शत्रुघ्न चार पुत्रों की प्राप्ति हुई। 
पर होनी की लीला - राम राज्याभिषेक के समय परम ज्ञानी ऋषि-मुनि नहीं बता सके कि सुबह होते कैकेयी की जिह्वा पर मंथरा होगी और राम वनवास जायेंगे !!! कौशल्या ने रात भर विष्णु का जाप किया, सकारात्मक बात ये है कि राम की चरणपादुका ही राज्य की अधिकारिणी हुई, परन्तु इस होनी को कोई रोक नहीं सका। 
लक्ष्मण रेखा हो, या अग्नि परीक्षा - सीताहरण और गर्भवती सीता के वनगमन को कोई नहीं रोक सका।  
शोध करें तो सतयुग में भी सत्य असत्य के पीछे था, या परिष्कृत शब्दों में कहें तो मर्यादा के पीछे था।  
सही मायनों में विरोध किया भरत ने और आगे के लिए प्रमाणित किया कि विरोध से समझने के विकल्प पैदा होते हैं, अन्यथा दशरथ मृत्यु, वैधव्य की पीड़ा से भी कैकेयी ने मंथरा को नहीं पहचाना।  
…… लोग कहते हैं, कि उस घटना का विशेष कारण था  … तो यह हर युग के लिए है, बड़े से बड़े तूफ़ान का कोई न कोई प्रयोजन होता है ! और आज तक ऐसा कोई तूफ़ान नहीं उठा जो थमा न हो, सार सिर्फ इतना है कि होनी काहू विधि ना टरै" 

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