चरित्र शरीर नहीं, मन है 
झूठ और सच सिर्फ मन जानता है 
तो सिर्फ हम-तुम जानते हैं कि हमारा चरित्र क्या है !
चीखने से 
प्रस्तुत कर देने से सत्य नहीं देखा जा सकता 
पुरजोर ख़ामोशी में सत्य सिसकता है 
और जब वह चुप होता है 
तो सबकुछ गंभीर होता है  … 
रश्मि प्रभा 


वैदेही ...प्यार में देह के स्तर तक ही भटकते अटकते लोग क्या समझेंगे ?
राजीव चतुर्वेदी


"वैदेही ...प्यार में देह के स्तर तक ही भटकते अटकते लोग क्या समझेंगे ? ... फिर समझ तो राम भी नहीं सके थे ... रावण थोड़ा-थोड़ा समझा था ... कृष्ण भी समझे नहीं थे, राधा ने समझा दिया था और रुक्मणी रुक गयी थी देह की दहलीज पर ... समझे तो बुद्ध भी नहीं थे, यशोधरा ने समझा तो था पर विदेह की यात्रा नहीं शुरू की ...मीरा ने वैदेहीकरण की क्रान्ति कर दी थी ...पहली बार प्यार में कोई स्त्री वैदेही नहीं हो रही थी बल्कि उसने पुरुष को विदेह कर दिया था ... मीरा के सामने कृष्ण विदेह थे ... साकार से सरोकार और निराकार से निर्लिप्त किन्तु अनंत अतृप्त ... वैदेही होने के लिए देह होना जरूरी है, ...निर्देही नहीं सदेही ...और देह के प्रति सरोकार, तिरष्कार, पुरुष्कार, अधिकार को प्रतीत ही नहीं व्यतीत करके अतीत करना ..."बीतराग" ...अनुराग से बीतराग तक की यात्रा का पूर्णविराम है वैदेही ...वैदेही माने भौतिकता से भावनात्मकता की यात्रा का पूरा होना ...रजनीश ने इस वैदेही की यात्रा को शुरू होने के पहले ही रोका टोका और भावनाओं का झंडा लहराते भटक गए ...लाओत्से ने कल्पना तो की पर राग से आग तक आ कर बीतराग के बाहर ही रुक गए...सुकरात ,नीत्से ,फ्रायड देह पर ही अटके भटके रहे ...पातांजलि ने प्रेम की ज्योमिती में स्थूल शरीर और आत्मा के योग -वियोग तक आ गए पर विदेह की व्याख्या करते इसके पहले उनका समय समाप्त हो गया था ...यों तो पार्वती के प्रतिष्ठान में शंकर भी रुके थे ... मोहम्मद व्यसन और वासना में उलझे थे, उपासना की ओर एक कदम भी नहीं चले ...मरियम बढ़ती तो है पर ठिठक जाती है ... सीता, राधा और मीरा वैदेही की यात्रा पूरी करती हैं ...यशोधरा रास्ता बताती तो है पर फिर चुप हो जाती है ...सीता देह से वैदेही होने की यात्रा पूरी करती है ... राधा कभी खुद वैदेही होती है कभी कृष्ण को विदेह करती है ...और मीरा कृष्ण को कालजयी विदेह रूप में देखती है स्वीकार करती है ...मीरा कृष्ण की समकालीन नहीं है वह कृष्ण से कुछ नहीं चाहती न स्नेह , न सुविधा , न वैभव , न देह , न वासना केवल उपासना ...उसे राजा कृष्ण नहीं चाहिए, उसे महाभारत का प्रणेता विजेता कृष्ण नहीं चाहिए, उसे जननायक कृष्ण नहीं चाहिए, उसे अधिनायक कृष्ण नहीं चाहिए ...मीरा को किसी भी प्रकार की भौतिकता नहीं चाहिए .मीरा को शत प्रतिशत भौतिकता से परहेज है . मीरा को चाहिए शत प्रतिशत भावना का रिश्ता . वह भी मीरा की भावना . मीरा को कृष्ण से कुछ भी नहीं चाहिए ...न भौतिकता और न भावना , न देह ,न स्नेह , न वासना ...मीरा के प्रेम में देना ही देना है पाना कुछ भी नहीं . मीरा के प्यार की परिधि में न राजनीती है, न अर्थशास्त्र न समाज शास्त्र . मीरा के प्यार में न अभिलाषा है न अतिक्रमण . मीरा प्यार में न अशिष्ट होती है न विशिष्ठ होती है ...मीरा का प्यार विशुद्ध प्यार है कोई व्यापार नहीं . जो लोग प्यार देह के स्तर पर करते हैं मीरा को नहीं समझ पायेंगे ... वह लोग भौतिक हैं ...दहेज़ ,गहने , वैभव , देह सभी कुछ भौतिक है इसमें भावना कहाँ ? प्यार कहाँ ? वासना भरपूर है पर परस्पर उपासना कहाँ ? देह के मामले में Give & Take के रिश्ते हैं ...तुझसे मुझे और मुझसे तुझे क्या मिला ? --- बस इसके रिश्ते हैं और मीरा व्यापार नहीं जानती उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए ...कृष्ण से भी नहीं ...कृष्ण अपना वैभव , राजपाठ , ऐश्वर्य , भाग्वाद्ता , धन दौलत , ख्याति , कृपा ,प्यार, देह सब अपने पास रख लें ...कृष्ण पर मीरा को देने को कुछ नहीं है और मीरा पर देने को बहुत कुछ है विशुद्ध, बिना किसी योग क्षेम के शर्त रहित शुद्ध प्यार ...मीरा दे रही है , कृष्ण ले रहा है .--- याद रहे देने वाला सदैव बड़ा और लेने वाला सदैव छोटा होता है ....कृष्ण प्यार ले रहे हैं इस लिए इस प्रसंग में मीरा से छोटे हैं और मीरा दे रही है इस लिए इस प्रसंग में कृष्ण से बड़ी है . उपभोक्ता को कृतग्य होना ही होगा ...उपभोक्ता को ऋणी होना ही होगा कृष्ण मीरा के प्यार के उपभोक्ता है उपभोक्ता छोटा होता है और मीरा "प्यार" की उत्पादक है . मीरा को जानते ही समझ में आ जाएगा कि "प्यार " भौतिक नहीं विशुद्ध आध्यात्मिक अनुभूति है . यह तुम्हारे हीरे के नेकलेस , यह हार , यह अंगूठी , यह कार , यह उपहार सब बेकार यह प्यार की मरीचिका है . भौतिक है और प्यार भौतिक हो ही नहीं सकता ...प्यार केवल देना है ...देना है ...और देना है ...पाना कुछ भी नहीं . --- यह यात्रा है ...आदि और अंत की सीमाओं से परे ...और हम यात्री हैं ...शरीर से आत्मा ...आत्मा से परमात्मा की यात्रा ... साकार से निराकार की यात्रा ... सदेह से विदेह की यात्रा ...देह संदेह और विदेह ... वैदेही को प्रणाम !!" ----- 




भरम हैं रास्ते, चौराहे सत्य और नित्य हैं
सुजाता
[DSCN4929.JPG]


दुनिया की सबसे दुर्गम सड़कें

भरम हैं रास्ते
चौराहे सत्य और नित्य हैं 

मुझे अक्सर पहुंचाया ही है
हर राह ने एक और चौराहे तक ही

उन रास्तों से डरना, जो चलने से पहले
आश्वस्त करते हैं 
सुखद सफर के लिए 
सजीले साइन बोर्ड लगा कर 
ये बोझिल हैं उन मार्गों से
जहाँ लिखा है 
'दुनिया की सबसे दुर्गम सड़कें'

दाएं बाएं और बाएं दाएं का क्रम 
कभी याद नही रहा जीवन में मुझे ठीक ठीक  
इसलिए 
पसंद ही करना हो
तो मैं चुनूँगी पहाड़ी रास्ते 
वे घुमावों से भरे पर सीधे और सच्चे हैं 
चौराहे नही आते वहाँ जल्दी जल्दी 
वहाँ न तेज़ी स्वभाव की काम आती है
न शहरी दम्भ हुनरमंद होने का

और अक्सर ही मिल जाती है कोई नदी भी
जो भागती आती है 
राहों के अकेले चट्टानी सूनेपन को भरने
----
तुम इसे मूर्खता ही कहोगे 
लेकिन कह दूँ 
मुझे भय है उन यात्राओं का आदी हो जाने से
जिनमें रास्ते के मोड़ और गड्ढे भी 
याद हो जाते हैं ऐसे कि सावधान होकर 
कुछ मीटर पहले 
स्वतः बदल लेते हैं कदम अपना रास्ता

तुम इसे पागलपन ही कहोगे 
फिर भी कहती हूँ 
(आखिर कोई तो कहे ऐसा ) 
- चाहती हूँ ऐसा हो एक दिन कि सारे नक़्शे मिट जाएं   
 कोई रास्ता न बचे जाना- बूझा 
 भटकें हम साथ साथ सभी

इस तरह होने में भय नही होगा खो जाने का
कितना रोमांच होगा
बिना मानचित्र जब ढूँढ ही लिया जाएगा कोई देश
जिसे अब तक देखा था सपनों में किसी अनबूझ कथा-सा !

5 comments:

आपका स्नेह और प्रस्तुतियों पर आपकी समालोचनात्मक टिप्पणियाँ हमें बेहतर कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं.

 
Top