मृत्यु - यानि शरीर से प्राण निकल जाना, और कथनानुसार शरीर की मुक्ति, आत्मा को एक नए शरीर की तलाश ! 
यह तलाश कितना सत्य है, कितना अनुमानित - इसे बता पाना मुश्किल है।  मृत्यु के बाद की ज़िन्दगी क्या है, यह रहस्य आज तक अनसुलझा है. 
पर यह सत्य है कि मृत्यु के साथ व्यक्तिविशेष, जन्तुविशेष को हम पुनः नहीं देख पाते।  यह बात अपने आप में एक दुखद स्थिति है !
मृत्यु ज़रूरी है, क्योंकि उम्र बढ़ने के साथ शरीर साथ नहीं देता।  तो यह है ईश्वरीय वरदान कि चले जाना है।  लेकिन असामयिक मृत्यु - !!!
यह मृत्यु भी सबके लिए एक भाव नहीं रखती - कोई बीमार हो जाता है, कोई असंतुलित, कोई भयभीत, कई लोग इसे हर दिन के काम की तरह लेता है ।  
कार्य-संस्कार को ही लोग मुख्य मानते हैं और इसे सम्पन्न करके अपने कर्तव्यों को पूर्ण मान लेते हैं !आंतरिक द्वन्द , आंतरिक वेदना एक सी नहीं होती।  
शब्दों का व्यवहार इसके साथ अलग अलग है, और शब्द बताते हैं कि आप कैसे लेते हैं इसे -
कुछ लोग कहते हैं 'वे नहीं रहे"
कुछ सपाट स्वर में कहते हैं - "मर गए"
यह "मर गए' सुनना दिल-दिमाग की स्थिति को अव्यवस्थित करता है, पर जिनके लिए मर गए कहना स्वाभाविक है, वे नहीं रहे पर पूछते हैं - 'नहीं रहे यानि मर गए ?" 
परिवेशीय,शिक्षा,पारिवारिक संस्कार बोली को, महसूस करने के ढंग को प्रभावित करते हैं। 
    आत्मा यदि अमर है तो मृत्यु मुक्ति नहीं, एक पड़ाव है रंगमंच पर पोशाक बदलने का - एक दूसरी छवि, दूसरा सत्य !
रश्मि प्रभा 



मृत्यु से संबंधित ज्ञान -


आदित्य चौधरी
संस्थापक एवं प्रधान संपादक 
भारतकोश 
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किसी ने कन्फ़्यूशस से पूछा कि मृत्यु क्या है ?
चीनी दार्शनिक कन्फ़्यूशस ने बहुत आश्चर्य से पूछा “क्या तुम जीवन को समझ गए हो, जो मृत्यु के बारे में जानना चाहते हो?”
क्या है जीवन और क्यों है जीवन। क्या सचमुच हमें जीवन को जानने का प्रयास करना चाहिए अथवा इन प्रश्नों को अनुत्तरित मान कर, यूँ ही जीवन को जीते रहना चाहिए…
असल में जीते तो रह सकते हैं यूंही लेकिन बड़ा मुश्किल है यह विचार मन से निकालना कि जीवन, ईश्वर, मृत्यु, सत्य, प्रेम और आनंद क्या है।
इन छहों, शाश्वत-प्रश्नों का संसार बहुत विलक्षण है। इन प्रश्नों की खोज करने की यात्रा में ही अनेक मनीषी देवत्व और परम पद को प्राप्त हो गए लेकिन इन प्रश्नों का उत्तर कभी इतना प्रभावी और सटीक नहीं मिला कि जिसको पाकर मनुष्य को तृप्ति हो जाती। किंतु हम लगे हैं प्रश्न करने में और विद्वत्जन और भगवद्जन लगे हैं उत्तर देने में।
एक बार की बात है एक वीर योद्धा सिपाही एक युद्ध से वापस लौट रहा था। उसकी सेना जीत गई थी इस बात की ख़ुशी उसे थी लेकिन कई दिन चले, युद्ध के कारण थकान भी बहुत थी। सिपाही एक गांव में पहुँचा जहाँ ज्ञान, वैराग्य प्रकाश की कथा चल रही थी जिसमें वैराग्य का वर्णन बहुत ही प्रभाशाली ढंग से कथावाचक साधु कर रहे थे।
सिपाही भी मुंह-हाथ धोकर वहाँ बैठ गया और साथ का खाना खाने लगा। खाना खाने के साथ ही साथ वह कथा भी सुनता जा रहा था। कथा का प्रभाव, सिपाही पर बहुत गहरा पड़ा। उसने भोजन बीच में ही छोड़ दिया और अपने हथियार, अपनी तलवार, अपना घोड़ा, अपने वस्त्र आदि वहीं त्याग दिए। साधु को प्रणाम करके वह सिपाही सन्यस्थ होकर प्रवज्या को निकल पड़ा।
चार-पाँच वर्ष गुज़र गए। यह सन्यासी बना सिपाही, भिक्षा मांगता हुआ, वापस उसी गाँव में लौटा। उसने देखा कि कथा हो रही है, तो पूछा-
“ये कथा कौन से साधु महाराज कह रहे हैं?
एक श्रोता बोला “वही हैं जो वर्षों से इसी स्थान पर कथा कह रहे हैं।”
“तो रोज़ाना नई कथा कहते हैं ?”
“नहीं वही कथा है वैराग्य की।”
“तो फिर सुनने वाले बदलते रहते हैं।”
“नहीं सुनने वाले भी लगभग वही हैं, रोज़ाना शाम को कथा सुनने आते हैं।” 
यह सुनकर सन्यासी आश्चर्य में पड़ गया। उसने कथा के बीच में ही श्रोताओं को संबोधित करते हुए कहा-
“धन्य हैं आप सभी… कथा कहने वाले भी और सुनने वाले भी… मैंने एक बार वैराग्य की कथा सुनी और मैं इसके मर्म को समझ कर वैरागी हो गया किन्तु आप तो रोज़ाना कथा कह-सुन रहे हैं और किसी पर वैराग्य का कोई असर नहीं है।”
यह कहानी तो यहीं समाप्त हुई। अब प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में हमारे द्वारा किए गए प्रश्नों का उत्तर हम चाहते हैं। क्या सचमुच हमारे ऊपर इन सप्त प्रश्नों के उत्तर का असर होगा?… युगों-युगों से हम प्रश्न करते आ रहे हैं और इसके उत्तर भी पा रहे हैं लेकिन किसलिए? मात्र सुनने के लिए?
शायद ही कोई एेसा बुद्धिमान व्यक्ति हो जिसके मन में ये छहों प्रश्न न आए हों और उसने कभी न कभी इन प्रश्नों को किसी से पूछा न हो।
इसमें सबसे रुचिकर बात यह है कि इन प्रश्नों के उत्तर हमें अपने मन की गहराई में किसी न किसी उम्र पर जाकर मिल जाते हैं, समस्या तब आती है जब इन उत्तरों को हम किसी दूसरे से चाहते हैं अथवा अपने शब्दों में देना चाहते हैं। उदाहरण के लिए जब हम कहना चाहते हैं कि प्रेम क्या है तो स्वयं को असमंजस में पाकर यह सोचने लगते हैं कि हम नहीं जानते कि प्रेम क्या है जबकि हम जानते हैं कि प्रेम क्या है।
असल बात यह है कि प्रेम किसी के जीवन में कैसे घटा है या घट रहा है या घटेगा, यह तो बताया जा सकता है लेकिन यह नहीं कि वह क्या घट रहा है जिसे प्रेम कह सकते हैं। यही स्थिति अन्य पाँच प्रश्नों की भी है। यहाँ एक प्रश्न और उठाया जा सकता है कि एेसा आख़िर क्यों है कि प्रेम को व्यक्त करने की कोई भाषा या शब्द नहीं हैं।
इसके लिए ऐसे समझें कि जिस भाव की कोई उपमा नहीं दी जा सकती उसकी परिभाषा कैसे दी जाएगी। प्रेम की तुलना होगी सत्य से जो कि स्वयं अपरिभाषित है, तो फिर…
क्या बताएँ कि ‘कैसा' घट रहा है हमारे साथ?
श्रीकृष्ण से पूछा गया कि आपका और राधा का प्रेम कैसा है तो उन्होंने कहा कि मेरा और राधा का प्रेम, मेरे और राधा के प्रेम जैसा ही है।
ठीक इसी तरह हम समझ सकते हैं कि ईश्वर, सत्य, आनंद, जीवन और मृत्यु की व्याख्या अथवा परिभाषा करना कठिन ही नहीं, असंभव है।
लेकिन… हम फिर भी ऐसा करते हैं और करते रहेंगे… मैं भी इससे अछूता नहीं हूँ।

3 comments:

  1. सही बात
    सब नहीं सोचते मौत की
    वो भी नहीं जो शामिल
    होते हैं शवयात्रा में भी
    सोचते भी नहीं कभी
    वो भी इसी तरह आयेंगे
    लौटते समय हंसी ठ्ठठे
    करते हुऐ अक्सर देखे जाते हैं ।

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