झूठ बोलना पाप है, सत्य की ही जीत होती है - बचपन में बच्चों को सिखाने और खुद उस समय सीखने में अच्छा लगता है  . पर सत्य इस सीख से अलग है !
बचपन में ही एक चॉकलेट की मिठास,अधिक पाने की इच्छा मासूम झूठ बन होठों पर थिरकती है, 
- मुझे नहीं मिला 
- मुझे कम मिला 
- मेरा चॉकलेट वो खा गया  .... इत्यादि। 

फिर आता है सामने मास्टर जी का होमवर्क - नहीं बनाने के अनगिनत झूठे बहाने 
- कल कुछ लोग आ गए थे 
- बिजली चली गई थी 
- पेट में दर्द था  .... प्रायः सारे बच्चे ये करते हैं। 

ज़िन्दगी जब सरपट दौड़ने लगती है तब तो झूठ की अत्यधिक ज़रूरत पड़ती है। किसी को खुश रखने के लिए, शान्ति बनाये रखने के लिए झूठ की छौंक ही जायकेदार होती है  .... और जायके के साथ कहना है, सत्यमेव जयते !
रश्मि प्रभा 


एक मैं ही नहीं कहनेवाली - कई हैं, जिनसे जाना क्रमशः -

क्या मैं हमेशा सच बोलता हूँ? बोल पाता हूँ? क्यूँ ? एक ऐसा प्रश्न जिसका उत्तर आसान भी है और बहुत कठिन भी. बहुत आसान है यह कहना कि जिसे मेरा मन या अंतरात्मा सच मानता है उसे मैं बिना किसी भय या परिणाम की चिंता किये स्पष्ट कह देता हूँ, क्यूँ कि ऐसा करने से मेरे मन को संतुष्टि मिलती है. लेकिन क्या यह सच जिसे मेरा मन सच मानता है, वास्तव में सम्पूर्ण और सार्वभौमिक सच है? क्या मेरी अंतरात्मा इतनी निर्मल और निर्पेक्ष है कि वह सत्य का मूल्यांकन कर सकती है? क्या मेरी शिक्षा, संस्कार, ज्ञान-संचय, आसपास के वातावरण, जीवन अनुभवों आदि ने मेरी आत्मा को अपने आवरण से नहीं ढक रखा है, जिससे मेरा सत्य का मूल्यांकन व्यक्तिगत, सापेक्ष हो गया है और इसको मैं शाश्वत सत्य कैसे मन लूँ? फिर मैं कैसे कैसे कह दूँ कि मैं हमेशा सत्य बोलता हूँ.

सत्य क्या है एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर बहुत कठिन है. मैं जो आँखों से देखता हूँ, कानों से सुनता हूँ वह केवल मेरा सापेक्ष, व्यक्तिगत, अर्ध सत्य है. मैंने जो देखा है उससे परे भी उस घटना के पीछे कोई सत्य छुपा हो सकता है जिससे मैं अनिभिज्ञ हूँ. इस लिए मेरा देखा सुना सत्य कैसे सम्पूर्ण, सार्वभौमिक सत्य हो सकता है? हम वस्तुओं और घटनाओं को उस तरह नहीं देखते जैसी वे हैं, बल्कि उस तरह जैसा हम देखना चाहते हैं. प्रश्न उठता है कि सत्य क्या है. भारतीय दर्शन के अनुसार ब्रह्म ही परम सत्य है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता. अपनी आत्मा को उस परम आत्मा से आत्मसात करके और उसमें स्वयं को समाहित करके ही उस निर्पेक्ष परम सत्य का अनुभव कर सकते हैं. लेकिन इस सत्य का दर्शन और पालन एक साधारण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. महात्मा गाँधी ने कहा था “सत्य की खोज के साधन जितने कठिन हैं, उतने ही आसान भी हैं। अहंकारी व्यक्ति को वे काफी कठिन लग सकते हैं और अबोध शिशु को पर्याप्त सरल।“ 

हमें बचपन से सिखाया जाता है “सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात ,न ब्रूयात सत्यम अप्रियं.” लेकिन सत्य अधिकांशतः कड़वा होता हैऔर अगर उसे प्रिय बनाना पड़े तो फिर वह सत्य कहाँ रहेगा, अधिक से अधिक उसे चासनी में पगा अर्ध सत्य कह सकते हैं. अगर सत्य अप्रिय है तो उसे न कहना क्या सत्य का गला घोटना नहीं है? अप्रिय सत्य कहने के स्थान पर अगर मौन का दामन थाम लिया जाय तो क्या यह असत्य का साथ देना नहीं होगा? ऐसे हालात में क्या किया जाए? आज के समय जब चारों ओर स्वार्थ और असत्य का राज्य है, कैसे एक व्यक्ति केवल सत्य के सहारे जीवन में आगे बढ़ सकता है? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कुछ पल की खुशी के लिए असत्य को अपना लिया जाये. सत्य बोलना आसान है क्यों कि आपको याद नहीं रखना होता कि आपने पहले क्या कहा था, लेकिन एक बार झूठ बोलने पर उस झूठ को छुपाने के लिए न जाने कितने झूठ बोलने पड़ते हैं.

अपने व्यक्तिगत और कार्य क्षेत्र पर जब दृष्टिपात करता हूँ तो मेरे लिए यह कहना बहुत कठिन होगा कि मैंने सदैव सत्य ही बोला या नहीं, लेकिन इतना अवश्य कहूँगा कि मैंने अपने कार्यों और निर्णयों में निस्संकोच और बिना किसी डर के वही निर्णय लिया जो मेरी अंतरात्मा ने तथ्यों के आधार पर सही माना और अपने आप को और अपनी अंतरात्मा को कभी धोखा नहीं दिया. अपने व्यक्तिगत और कार्य क्षेत्र में सदैव कोशिश की कि ऐसा कोई कार्य न करूँ जिसे मेरी आत्मा सही स्वीकार नहीं करती. किसी को अपने शब्दों से चोट न पहुंचे इस लिए कई बार सत्य कहने की बजाय मौन का दामन थाम लिया. किसी को कुछ पल की खुशी देने के लिए असत्य का सहारा लेना मेरे लिये संभव नहीं, और न ही ऐसे अप्रिय सत्य को कहना जिससे किसी को दुःख पहुंचे. यह मेरा सत्य है और यह सत्य है या असत्य इसका निर्णय मैं भविष्य पर छोड़ता हूँ. सार्वभौमिक और शाश्वत सत्य की मंजिल अभी बहुत दूर है और जब सब अपने अपने सत्य के साथ जी रहे हैं, ऐसे हालात में मैं कैसे कहूँ कि मैं सदैव सत्य बोलता हूँ? 

....कैलाश शर्मा 



क्या मैं हमेशा सच बोलती हूँ ? या बोल पाती हूँ ? यह बात ही सच की सच्चाई को बयां कर रही है. हाँ, मैं सच बोलना पसंद करती हूँ, पर हर बार सत्य ही बोल सकूँ, यह संभव नहीं हो पाता, क्योंकि उसमें किसी को आहत कर देने का भय भी समाहित होता है. और यदि मेरे बोले सच से किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचे तो मैं असत्य का सहारा लेने की बजाय मौन हो जाना ज़्यादा पसंद करती हूँ. पर यदि न्याय और अन्याय के बीच जंग छिड़ी हो, तो मैं बेझिझक सच का दामन थाम लेती हूँ, फिर चाहे सामने वाला इंसान कितना ही प्रतिष्ठित और ताक़तवर क्यूँ न हो !

'सच' की सबसे बड़ी सुंदरता यह है, कि वो एक ही होता है और स्थाई भी, उसके साथ कहानियाँ गढ़ने का परिश्रम नहीं करना पड़ता, उसे याद नहीं रखना होता ! 'झूठ' को हमेशा संभालना होता है, किन परिस्थितियों में किससे, कब, क्या और क्यों कहा था, इन सभी बातों से मस्तिष्क इतना ज़्यादा बेचैन हो जाता है कि झूठ बोलने वाला व्यक्ति खुद भूल जाता है और आसानी से पकड़ में आ जाता है.

'सच' के साथ हमेशा रह पाना उतना आसान भी नहीं, मैं ऐसे कई लोगों को जानती हूँ जो बड़े ही गर्व से खुद को 'सत्यवादी' कहलाना पसंद करते हैं. पर जब कोई और उनका सच कहे तो, तिलमिला उठते हैं. मेरी नज़रों में असली सत्यवादी वही है जो दूसरों का सच बोलने के साथ-साथ अपनी सच्चाई भी नि:संकोच स्वीकार कर सके. वरना वो 'सत्यवादी' नहीं 'आलोचक' ही कहलाएगा ! ध्यान रखने योग्य बात यह भी है, कि सच बोलने के पहले उसके होने की पुष्टि ज़रूर की जाए और जब यह तय हो जाए कि वही सामने वाले का सच है, उसे तभी ही बोला जाए ! कई बार लोग आधी-अधूरी बात से या पूर्वाग्रह से वशीभूत हो स्वयं ही पूरी कथा बुन लेते हैं, इससे बचना चाहिए. 'आधा सच' भी 'आधा झूठ' ही होता है !

सत्य की एक विडंबना यही है कि ये अक़्सर ही अकेला होता है, जबकि झूठ के साथ पूरा मेला होता है. सच बहुधा उदास हो, कोने में छुपा अकेला सूबकता है जब लोग झूठ की तलाश में व्यस्त रहते हैं ! सत्य कायर नहीं है ,ये ज़रूरत से कुछ ज़्यादा ही आशावादी हैं, तभी तो चुप हो बैठ जाता है, और झूठ की प्रतिरोधक-क्षमता इससे कहीं ज़्यादा दिखाई पड़ती है. जो दिखता है, उसे ही दुनिया भी सच मान लेती है, क्योंकि असली मज़ा तो उन्हें झूठ ही देता है. एक सरल, सच के साथ चलने वाला जीवन 'झूठ' की छत्रछाया में हताश और उम्र-भर संघर्षरत रहता है. आजकल 'झूठ' ज़्यादा बेबाक और 'इन' है, और 'सच' अकेला ही अपने अस्तित्व की तलाश में खिसियाता-सा हाथ-पाँव मारता दिखाई देता है. लेकिन मैंनें न हार मानी है और न मानूँगी, 'सच' के साथ, बिना किसी के सहारे, नि:स्वार्थ आगे बढ़ना है, जिसे जो सोचना है सोचे....वो उनकी स्वतंत्रता है. मैं लोगों के बार-बार झूठ से व्यथित अवश्य होती हूँ और बेहद विचलित भी, पर यही तो जीवन है !
वर्तमान परिवेश, समाज और व्यवस्था को देखते हुए यही कहना चाहूँगी कि - 

झूठ, झूठ और सिर्फ़ झूठ ! 
सारे रिश्ते-नाते...झूठ ! 
दोस्ती के वादे....झूठ ! 
अपनेपन के दिखावे..झूठ ! 
प्यार की वो बातें....झूठ ! 
सारे ख़्वाब सुनहरे....झूठ ! 
खुशियों के वो पल भी कृत्रिम, 
चेहरे की मुस्कानें......झूठ ! 
झूठी बस्ती, झूठा जमघट, 
ये लगता, रिश्तों का मरघट ! 
मायावी इंसान यहाँ पर, 
एहसासों की बातें.....झूठ ! 
स्वार्थ भरा, अब हर धड़कन में, 
दिल ना समझे, इनकी चाल ! 
कब तक गिनता, अपनी साँसें, 
ज़ज़्बातों का ये कंकाल ! 
झूठ ही सब पर हावी है,अब 
सच क्या है, मालूम नहीं, 
शब्दकोष का हिस्सा है, बस 
'सच' तो ये.... 'सच' कुछ भी नहीं !


- प्रीति 'अज्ञात'


सच बोलना सचमुच बहुत मुश्किल काम है, एक समय था जब मैं हमेशा सच बोलता था, संस्कार भी ऐसे मिले थे कि झूठ से नफरत थी, लेकिन आज ये हालत है कि कभी कभी ही सच बोलता हूँ, वरना तो हर समय झूठ का ही सहारा लेना पड़ता है!  अब विस्तार में बताता हूँ...सबसे पहले पत्नी के साथ तो हमेशा झूठ बोलना पड़ता है, उसे सब जानकारी चाहिए कि मैं कब कहाँ जाता हूँ किससे मिलता हूँ, पहले सच बोलता था तो हमेशा झगडा होता था, जब से झूठ बोलने लगा हूँ तो राहत है, मैं कोई गलत काम नहीं करता लेकिन पत्नी के साथ सच कभी नहीं बोलता, उसकी और मेरी दोनों की भलाई के लिए। घर से दूर रहता हूँ तो माँ, पिता जी, भाई बहन सभी हमेशा पूछते हैं घर में सब शांति है, व्यापार कैसा चल रहा है, तो मैं घर में अशांति होने पर भी उन्हें झूठ बोलता हूँ की बहुत शांति है, व्यापार की हालत खराब होने पर भी उन्हें बोलता हूँ की बहुत अच्छा चल रहा है, बीमार होने पर भी उन्हें कहता हूँ कि तबियत बहुत अच्छी है, ये झूठ मैं इसलिए बोलता हूँ कि मेरे लिए सोचकर वो लोग दुखी ना हो। व्यापार में पहले सच बोलता था तो खाने के लाले पड़ जाते थे जब से झूठ बोलने लगा हूँ व्यापार भी ठीक चल रहा है, सच बताऊ तो अब मुझ में सच बोलने का साहस नहीं है, मैं कभी कभार ही सच बोलता हूँ, झूठ बोलने में मैं इतना दक्ष हो चुका हूँ कि मेरा झूठ पकड़ पाना किसी के बस का नहीं है, जानता हूँ कि ये कहीं कहीं गलत है फिर भी बोलना पड़ता है। अब तो ऐसा हो चुका है कि मैं खुद ही भ्रमित तो जाता हूँ कि मैं सच बोल रहा हूँ या झूठ। अंत में चंद पंक्तियाँ...कहा था सच मैंने भी कभी/ जिसे कुचल दिया झूठ ने पैरों तले/ अब साहस नहीं मुझमे इतना/ कि सच बोलूं या किसी कहूँ कि सच बोलो। यहाँ मैंने जो लिखा सब सच है इसमें झूठ कुछ नहीं है, क्योंकि बहुत दिन बाद सच बोलने का मौका मिला है, आभार आपका ये मौका देने के लिए, झूठ बोल बोल कर थक गया था। अब कुछ राहत मिली हई। 


निलेश माथुर, 




सच बोलना और हमेशा सच बोल पाना दो अलग बातें हैं । इंसान बोलना तो हमेशा सच ही चाहता है मगर कभी कभी चाहकर भी सच कह नहीं पाता और झूठ बोल नहीं पाता । वहीं दूसरी तरफ़ कुछ बातें ऐसी होती हैं जिसमें यदि झूठ बोलने से किसी का कोई अहित नहीं होता या किसी का काम बन जाता है तो उतना तो जरूर बोल दिया जाता है । मगर हमेशा इंसान सच ही बोलता हो ऐसे लोग मिलने मुश्किल हैं क्योंकि परिस्थितियाँ आपको अक्सर झूठ बोलने पर मजबूर कर देती हैं क्योंकि सच के कडवे घूँट हर कोई हलक से नीचे नहीं उतार सकता बहुत से सत्यों को तो चाशनी में लपेट कर बोलना पडता है और फिर कितनी ही जगह तो चुप रह जाना पडता है ये जानते हुए भी कि सामने वाला सरासर झूठ बोल रहा है और यदि उसका सत्य सामने ले आयें तो कहीं मुँह दिखाने के काबिल नहीं रहेगा तो ऐसे बहुत से मौके आते हैं ज़िन्दगी में सब चुप रहना बेहतर होता है सच बोलने के । इसलिये हम कभी नहीं कह सकते कि पूरी ज़िन्दगी हमने पूरा सच हमेशा बोला । कभी सच अधूरा होता है तो कभी खामोश तो कह ही नहीं सकते कि हमेशा सच बोलते हैं । जीवन इतना आसान नहीं कि सिर्फ़ सच की धार पर ही चलकर जीया जा सके मगर झूठ की गुंजाइश जीवन में सिर्फ़ इतनी भर होनी चाहिए जैसे आटे में नमक , जिस झूठ से किसी का नुकसान न हो और काम भी बनता हो वहीं तक उसका उपयोग करना चाहिए बाकि हर वक्त हर बात पर झूठ बोलना ये हमारी फ़ितरत नहीं । कुछ सच ऐसे होते हैं जिनसे न किसी का हित होता है न अहित तो उनका दबे ढके रहना ही श्रेयस्कर होता है क्योंकि ऐसे सत्यों से किसी की ज़िन्दगी में फ़र्क पडने वाला नहीं होता तो वो सामने आयें या नहीं फ़र्क नहीं पडता । जब सत्य बोलने वाले युधिष्ठिर को भी एक बार आधा सत्य बोलना पडा तो हम तो आम इंसान हैं कैसे कह सकते हैं कि हम हमेशा सच बोलते हैं ये तो परिस्थितियों पर निर्भर करता है फिर भी पूरी ईमानदारी से कोशिश होती है जहाँ गलत और सही का निर्णय लेना हो वहाँ सच ही कहें क्योंकि उसमें किसी का जीवन जुडा होता है , उसकी मान्यतायें , उसका विश्वास जुडा होता है और वहाँ हमेशा सच ही कहती हूँ बेशक दूसरा नाराज हो जाए मगर सच को सच कहने की इतनी हिम्मत जरूर रखती हूँ । सिर्फ़ सम्बन्धों को बनाए रखने के लिए झूठ का सहारा नहीं ले सकती और इसी वजह से बहुत से दुश्मन भी पाल बैठती हूँ क्योंकि सच कह देती हूँ जो सबके गले से नीचे नहीं उतरता तब शुरु हो जाती हैं मेरे बारे में अनर्गल बातें और लोग तुडवा देते हैं अच्छे खासे सम्बन्धों को क्योंकि उन्हें मौका मिल जाता है मेरे बारे में कुछ भी बात बनाने का और अपना मकसद सिद्ध करने का फिर चाहे मुझे पता चल जाता है कि किसने क्या कहा मेरे बारे में मगर मैं उसे कुछ नहीं कहती क्योंकि मुझे जो कहना था कह दिया अब ये दूसरे पर निर्भर करता है वो मुझे कितना समझता है या वो कितना कान का कच्चा है क्योंकि यदि आप किसी से व्यवहार करने पर भी उसे नहीं पहचान पाते तो ऐसे लोग ज़िन्दगी से निकल भी जाएं तो गम नहीं रहता क्योंकि ऐसे लोगों की अपनी कोई निर्णय शक्ति नहीं होती , कोई विज़न नहीं होता बस दूसरों के दिखाए बताए रास्तों पर चलना ही जानते हैं तो उनसे दूरी ही भली लेकिन यदि मेरे बारे में या मेरी  बात को गलत तरीके से परोसा जाता है तो सच कहने से गुरेज नहीं करती फिर चाहे सामने वाले का नाम ही क्यों न लेना पडे । इसलिए सच कहने के जाने कितने आयाम होते हैं जो कभी सीधे तो कभी घुमा कर कहने पडते हैं मगर कोशिश हमेशा यही रहती है कि सच ही कहूँ फिर भी ज़िन्दगी है जिसमें ये कहना मुश्किल है कि हमेशा सच ही कहते हैं हम कभी कभी परिस्थितियों के हाथों मजबूर होकर झूठ भी बोलना पडा जैसे एक बार एक सरकारी काम अटका हुआ था और वो करना नहीं चाह रहा था रिश्वत चाहता था तो झूठ का सहारा लेना पडा वरना जाने कब तक परेशानी उठानी पडती और वो ऐसा झूठ था जिससे किसी का अहित नहीं होना था और अपना काम भी हो जाना था तो ऐसे झूठ तो ज़िन्दगी में बोलने पड जाते हैं इसलिए ये नहीं कह सकती कि हमेशा सच ही बोलती हूँ क्योंकि जब काम सीधे तरीके से कोई न करना चाहे तो उंगली टेढी करनी ही पडती है ये भी जानती हूँ । सच और झूठ ज़िन्दगी में साथ साथ चलते हैं बस जरूरत है अपने विवेक को जागृत रखना और सही निर्णय लेना ताकि खुद को पछतावा न रहे कि हमारे सच से किसी का अहित हो गया या सच कह देते तो ऐसा न होता । और यही अपने जीवन का उद्देश्य बना रखा है कि कोशिश करें कि सच ही कहें ज्यादातर । 


वन्दना गुप्ता 



"हाँ मैं हमेशा सच बोलता हूँ / बोलती हूँ". हम में से अधिकतर लोगों की पहली प्रतिक्रिया यही होती है…… बचपन से पिलाई गयी घुट्टी का असर जो है ...!
लेकिन क्या वाकई यह कथन सत्य है....?
हममें से अक्सर कितने लोग बच्चों से कहला देते हैं ."कह दो पापा घर पर नहीं "
मकसद कुछ भी हो सकता है ...!
कभी सहूलियत, कभी मजबूरी, कभी ऊब..!!!
सैकड़ों वजह खोज निकालते हैं हम,  अपने कृत्य को सही साबित करने के लिए…… और उतने ही तर्क उन्हें मज़बूती देने के लिए… !
" ऐसा क्या कर दिया ...? एक मामूली सा झूठ ही तो बुलवाया है ...हार्मलेस सा ..!!! 
लेकिन क्या हम जानते बूझते अपने बच्चे को, झूठ के दलदल में नहीं धकेल रहे ..?
.... एक तरफ सच बोलने की सीख देकर और फिर झूठ बुलवाकर क्या हम  ....एक असमंजस की स्तिथि  पैदा कर उसके विश्वास के पैर नहीं खींच रहे ....?
भला यह किसके लिए हितकर है ? उस बच्चे के लिए ....या हमारे लिए,  जो उसके कच्चे मन में अपने बड़ों के आचरण के प्रति अविश्वास पैदा कर देता है....?
इसके विपरीत यही प्रश्न पूछे जाने पर, हम में से कुछ लोग कहेंगे कि " मेरी कोशिश तो यही रहती है कि यथा संभव सच बोलूँ"...  यह लोग, मुझे सत्य के ज़्यादा करीब लगते हैं.
गीता का ज्ञान कहता है  ," न कोई संपूर्ण सत्य है ...न सम्पूर्ण असत्य ...यह तो परिस्थितियाँ निर्धारित करती हैं ". बिलकुल उसी तरह हमारे भी जीवन में ऐसे कई प्रसंग आते है ...ऐसी परिस्थितियाँ पैदा होतीं हैं जब हमें  सत्य और असत्य के बीच किसी एक को चुनना होता है ..और तब हमारा विवेक, सूझ-बूझ, धैर्य और स्वभाव् ही तै करते हैं की हमें किसे चुनना है.
  मेरे पति एक चिकित्सक (जनरल फिजिशियन ) हैं.
विवाहोपरांत एक बार उनके साथ एक वृद्धा रिश्तेदार, के घर उन्हें देखने जाना हुआ. वह काफी अस्वस्थ थीं.
बहोत मायूस लग रही थीं .उन्हें देखने के बाद इन्होने कहा , "अरे अम्मा आप तो बिलकुल फिट हैं ...बस दो तीन दिन में चलने फिरने  भी  लगेंगी ...तब आपके हाथ की बनी वही करेले की सब्ज़ी  , दही और परांठे  खाना है ...बस अब जल्दी से स्वस्थ हो जाइये".
यह सुन उस वृद्धा के चेहरे पर एक मुस्कराहट खिल गयी  .... बाहर आकर इन्होने उनके बेटों से कहा ," सभी रिश्तेदारों को इत्तला कर दो ...अम्मा अब कुछ ही दिन कि मेहमान हैं ..."
दिल धक् से हो गया. तभी अम्मा की मुस्कराहट याद कर , उस झूठ की अहमियत समझ में आ गयी  ...! यही झूठ तो उनके जीने का सम्बल था ....उनकी मुस्कराहट की वजह ...कुछ ही दिनों के लिए सही पर पुन: लड़ने की ताक़त...!
मुझे वह झूठ महान लगा.
जीवन में कई बार ऐसे मौके आते हैं जहाँ झूठ,  सच से अधिक श्रेयस्कर विकल्प प्रतीत होता है .
हमारा स्वभाव ... हमारी  नियत  तै करते हैं की हम झूठ किस मकसद से बोल रहे हैं.
वजह कोई भी हो सकती है.  कभी उसके पीछे होता है डर…… सज़ा का डर, लाँछन का डर, शर्मसार होने का डर , तो कभी अपने सच से किसी को आहत करने का डर.
कभी किसी झूठ के पीछे किसी की भलाई की मंशा होती है  ……तो कभी की हुई भलाई छिपाने की. मेरा मानना है की जिस सत्य से किसी की भावनाएँ गहरे आहत हों ....उस सच को छिपाना ही बेहतर है. और वह झूठ जिससे किसीका भला हो बगैर किसी को क्षति पहुँचाए, तो उसे कह देना ही बेहतर है .
झूठ की एक और श्रेणी होती है ....'आधा सत्य ' . यह बड़े से बड़े झूठ से भी काला और घिनौना   होता है. लेकिन  फिर परिस्थितियाँ और बोलने वाले की नियत ही तै करती हैं की 'उस' अर्ध सत्य को किस श्रेणी में रखा जाये.
"अश्वथामा मरो वा "....यह भी आधा सच ही था ...लेकिन इस आधे सत्य  से भगवान कृष्ण ने इस युद्ध की नियति ही बदल दी.
आये दिन हमें जीवन में ऐसी अनेक परिस्थितियों से गुज़ारना पड़ता है जहाँ हम झूठ और सच के द्वंद्ध में घिरा खुद को पाते हैं. ऐसे में हमें किसी एक को चुनना होता है. और तब हमारा विवेक, हमारी अच्छाई, हमारा स्वभाव और हमारी  नियत ही हमारे मार्गदर्शक होते हैं .

इसलिलिये मैं पुन: उसी बात को दोहराऊंगी की " न कोई संपूर्ण सत्य है , न संपूर्ण असत्य . परिस्थितियाँ उन्हें निर्धारित करती हैं ". बस हमें वक़्त की ज़रुरत को समझना है ....परिस्थितियों का आँकलन करना है ...और फिर झूठ और सच, सही और गलत के बीच जो सही विकल्प लगे उसे चुनना है .


सरस दरबारी

3 comments:

  1. सत्य एक लेकिन उसके आयाम अनेक...सभी रचनाएँ अपने अपने सत्य के बहुत करीब...आभार मेरे सत्य को भी स्थान देने के लिए...

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  2. 'सत्य' पर सबके विचार पढ़कर, बहुत अच्छा लगा ! बेहतरीन विषय, सुंदर अभिव्यक्ति !

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