टूटी चूड़ियों के टुकड़े 
माला बनाने का उपक्रम 
गुड़ियों की सजावट 
कागज़ की नाव 
वो पेड़ पर रस्सी के झूले  … कहाँ हैं कहाँ हैं कहाँ हैं ?

रश्मि प्रभा 


मोर पंख
मानोशी

किताब के खोलते ही, कई पंख, नीलकंठी सरक कर गिर जाते है ज़मीन पर। उठा कर देखती हूँ। हरे, नीले, सुनहरे रंगों से जड़े मोरपंख...

’कितकित’, ’बूड़ी छू",’पोशम्पा भाई पोशम्पा’...हवा में गूँजती नीलू, पीयू, और मेरी खिलखिलाहटों से जड़ा मोर पंख...सहेज कर, उसे सहला कर फिर करीने से अपनी जगह वापस रख देती हूँ।

’अब तो माधव मोहे उबार’, राग कीरवाणी...तबले की थाप पर अल्हैया बिलावल के तानों का अभ्यास...सा, रे, ग, म... छोटी सी बच्ची के सर लगा मोर पंख...

मां से बहस, बड़े भाई की डाँट, दोस्तों के साथ ठहाके... उस सोलह साल की उम्र का मोर पंख, ख़्यालों के जगत का मोर पंख...

बिस्मिल्ला खां की गूँजती शहनाई, हज़ार सपनों के रंगीन आस्मां में उड़ते मोर पंख...

ज़िंदगी में ख़ुशी और ग़म के रास्तों पर चलते हुये, कभी ख़ुशी में डुबोया हुआ, तो कभी आँसुओं से भीगा मोरपंख...

एक नन्हें फ़रिश्ते के हाथ से छीना हुआ मोर पंख...ओह! इसकी जगह शायद पहले पन्ने के पास है... इस बार चिपका कर रख दूँगी...

आज से सौ साल बाद कभी बैठ कर गिनूँगी फिर ये मोर पंख...कुछ नये रंगों से सजे...क्या पता एक आज ही जुड़ा हो शायद...



काश!

काश! रात ये लम्बी होती,
सुबह नही यूँ जल्दी होती।

सोमवार को सूरज भी गर 
उठता, लेकिन आँख मीच कर,
अंगडाई लेता, सो जाता,
मुँह पर चादर और खींच कर।

किरणे भी झट बांह समेटे,
दुबक रजाई भीतर जातीं,
फिर से रजनी सपनों का तब
एक नया संसार सजाती।

एक अंचभित चिड़िया का,
नन्हा बच्चा ले कर पंखड़ाई,
कहता मम्मी आज सवेरे
से ही देखो बदली छाई।

रवि उठना जो भूल ही जाता, 
तो किस्मत क्या अपनी होती...
काश रात ये लंबी होती,
सुबह नही यूं जल्दी होती।

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